श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 46
मेरे प्रिय!
बीच में से कुछ दिन कैसे दौड़कर हाथों से छिटक गए-मालूम ही नहीं पड़ा। व्यक्ति रूक जाता है पर समय कहाँ रूकता है। हमारी सोच, हमारी नियति जड़ हो जाती है। समय की विकराल गति अपने पैरों तले-जिंदगी को रौंदती ही चली जाती है। बार-बार तुम्हारी मोहविष्ठ सूरत आँखों में उभरती रहीं है और आँसुओं के सागर में झिलमिलाती रही है। लेखनी को भी जैसे काठ मार गया था। इतना कुछ मन के भीतर घटता रहा है कि बाहर की दुनियाँ से पूर्णतयः विलग हो गई।
मन में केवल एक विश्वास था कि जब भी तुम जाओगे-एक बार मिलने अवश्य आओगे और उस दिन कैसे भी-दुनियाँ की आँखों से बचाकर-मैं केवल तुम्हें अपनी-केवल अपनी आँखों से क्षण-भर के लिये भरपूर देखूँगी एक-टक और तुम भी देखोगे। तब दोनों की आँखों की वह तरलता ही हमारी इस अव्यक्त-भावना की साक्षी बनेगी।
इस बीच मन के भीतर और भी बहुत कुछ अकुलाता रहा हैं। मैं अपने एकांत क्षणों में स्वयं ही अपनी व्यथा में डूबती-उतरती रही हूँ। मेरी स्थिति तो वह रही-जैसे भरे घड़े को जरा-सी ठोकर छलका देती है...इसी तरह इन दिनों-किसी का कोई एक शब्द, एक वितृष्णा-भरी दृष्टि भी मुझे छलकाती रही है। ज्वार-भाटे की-सी लहरें मेरे मानस को मथती रही हैं। पता नहीं क्या है जो बाहर-घटकर मेरे भीतर घट कर लेता हैं। मन को शांति का एक कतरा नहीं मिल पाया। इतनी उद्वेलित रही हूँ कि स्वयं अपने-आप को विस्मृत ही किये रही।
बाकी कल कहूँगी-इतने गहराये मन से-जो कहूँगी-भरमरा जायेगा-। इसलिये जरा शांत होलूँ-फिर कहूँगी-
कल पर छोड़ती हूँ-
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