श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 47
प्राण-प्रिय!
आज तो जब तक मन का लावा-इन पृष्ठों पर उतार कर-तुम्हें सुना नहीं लूँगी-शायद मेरे मन को राहत नहीं मिलेगी। जब स्वयं को तुम्हारे धार्मिक एवं सामाजिक रस्मों के समक्ष रख कर देखती हूँ तो अपने इस परिवेश पर कितनी ग्लानि होती है। उस दिन शहनाज ने बताया कि तुम्हारे पिता ने मेहर को रकम भेजी है। इसके साथ ही तुम्हारी इस रस्म से तुम कुछ और ऊँचे हो गये हो मेरी आँखों में। अपने समाज या इतिहास में जो देखा है-उसमें तुम्हारा समाज भी कहीं अवश्य शामिल होगा। उससे पुरुष-जाति के प्रति मेरी वितृष्णा बढ़ा ही है। वह समाज, वह धर्म मुझे अभी ढूँढ़ना है जो स्त्री को केवल अपनी ही भाँति मानवीय समझकर उसकी ही वैयक्तिकता में आंके। भगवान की बनाई हुई इस धरती पर इसके बड़ी उल्ट बांसी क्या होगी कि नारी को अर्ध-नारीश्वर और देवीं की उपाधियों से विभूषित करने वाला मनुष्य वास्तव में उस की कैसी दुर्दशा करता है। नारी जितना सहती है-शायद धरती भी न सह सके और फट जाए...। उसका पति किसी भी पराये घर की खिड़कियाँ तोड़ सकता है-दीवारे लांघ सकता है-लेकिन तुम्हारे सामाजिक-व्यवहारोचित-मेहर की रकम से-वह अपना-स्वायत्त संवार सकती है। हां थोड़ी राहत तो है इसमें-हमारे सामाजिक-धर्म के अनुसार ऐसे में वह केवल एक बेबस-निर्भर जिंदगी जी सकती है, घुट सकती है बच्चों के लिए तिल-तिल मर सकती है। लेकिन अपने लिये कहीं भी एक क्षण का सकून नहीं ढूँढ सकती। उसका अपना एक सुनहरा क्षण समाज के लिये कलंक बन जाता है...। जिसके लिये उससे अलग से प्रताड़ना मिलती है। उपेक्षा...के प्रहार झेलने होते है उसे...। चलो! यह तो हो गया-पुरुष का वह सामंतवादी रूप-जो स्त्री को जूते की तरह बदलने का आदी है। किसी भी फूल को तोड़कर अपनी अचकन में लगाने का शौक उसका जन्मांध-अधिकार है। इसका एक दूसरा पहलू भी है। उसी स्त्री को दूसरी-तरह भी मारा जाता है। परिवार की सारी कठोरताएँ, लताड़नाएँ-उस पर खुले सांडों की तरह छोड़ दी जाती है। वह जो अत्याचार स्वयं नहीं कर सकता...उससे तटस्थ रहकर अपने परिवार से करवाता है।
हमारे यहाँ अगर लड़की के साथ उससे भी ऊँचे-कद्दावर का दहेज न आए तो ये अत्याचार सौ-गुणा हो जाते है। तब उस लड़की का भविष्य-देश के किसी भी कोने में लगी आग बन जाता है। वह आग-जिस में केवल वह स्वयं जलती नहीं जला दी जाती है।
समझ रहे हो न मेरी बात राज! तुम्हारा मुँह क्यों इतना लटक गया है। तुमने क्या अभी तक भारतीय-सामाजिक आचारों को इतना भी नहीं जाना कि यहाँ नारी को लक्ष्मी और देवी के नामों की अभ्यर्थना चढ़ाकर ही उसे बलि का बकरा बनाया जाता हैं। अभी तुम्हें बहुत कुछ जानना है, पढ़ना हैं। यहाँ की संस्कृति को समझना चाहते हो-तो पहले यहाँ की नारी को जानो। जिस तरह जन्म लेने के लिये जीव को माँ के गर्भ की संकीर्ण से संकीर्ण गली को लांघना होता है, उसी तरह स्त्री वह गली है-जो संस्कृति के मुख्यद्वार तक तुम्हें पहुँचा सकती हैं।
यह सब मैं यूही ही नहीं लिख रही हूँ। यह बेजा संताप नहीं है मेरा। आज मेरा हृदय टूक-टूक हुआ है-इसी ही तरह के एक हादसे से...। वह पत्र मेरे पर्स में पड़ा हुआ-मुझ तक अपनी लौह-सी जलती मशालों की तरह मुझे जला रहा है। मेरी ही एक सहेली, एक मात्र अतल सखी के साथ ऐसा हुआ हैं। वह सखी-जिसके साथ मेरे बचपन की एक-एक किलोल जुड़ी है। आंगन में खेला हुआ एड़ी-टप्पा, स्कूल से पटकते हुये बस्ते की धींगा मस्ती, एक ही थाली से खींचकर खाना, चोटियाँ खीचना, अंडगी अड़ाना, सोये हुये पर होली के रंग उड़ेलना-जैसी हजारों मस्तियाँ जुड़ी हुई है-उसी के साथ हादसा हुआ है-मुझे लगता है कहीं मेरे ही शरीर पर, मेरी ही आत्मा पर घटा है सब कुछ। मेरी ही किसी ने छील उघेड़ दी है। समझ नहीं आता-तुम्हें सब विस्तार से लिखूँ या नहीं। तुम शायद जुड़ भी न पायो-। क्या मेरी उस मनस्थिति की संवेदना का संप्रेषण तुम तक हो पायेगा! शायद ही-शायद नहीं।
चलो! आज रहने दो। कल तक धाव थोड़ा सहम जायेगा...तुम्हें और उदास देखना भी नहीं चाहती। तुम्हारा लटका हुआ मुँह-पहले ही मेरे मन की आँखों में लटक गया है। अब कल ही तुम्हें सारी गाथा सुनाऊँगी। यूँ मैंने तुम्हें उदास तो कर ही दिया है।
बाकी फिर-
तुम्हारी-
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