लोगों की राय

श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

186 पाठक हैं

पत्र - 48


प्राण प्रिय !

कल से तुम्हारे चेहरे की वे बेतरतीब लकीरें साल रही है। मैं जानती हूँ ये लकीरे मुझ से विरोध की नहीं है-केवल अनभिज्ञता की है-एक अनजाने पन की। लेकिन फिर भी मुझे सालती है। जब कोई भी पुरुष उन सब स्थितियों से अनजाना बना रहना चाहता है-मुझे बड़ी पीड़ा पहुँचती है। नारी को जानने के लिये-पुरुष के हृदय से नहीं-स्त्री के हृदय के भीतर उतरना होगा। जो गुण पुरुष को देवत्व तक पहुँचाने का काम करते है, वे सभी गुण स्त्री के स्वतः निर्मित त्यक्तित्व में होते है। नारी को उन गुणों को-अपने में ढालने के लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता-अपितु उन्हें झटकने के लिये या उनके अयाचित-बोझ से बचने के लिये-कभी-कभी उसे अत्यंत श्रम करना पड़ता है। वह भी तब-जब वह हार जाती है। दब जाती है। लाचार हो जाती है। तब उसे विषकन्या भी बनना पड़ता है और दुर्गा भी...। यों वह तन से ही कोमल नहीं-मन से भी नितांत कोमल है राज! पुरुष की दृष्टि उम्र भर उसके बाहय-कोणों की छानबीन में ही बीत जाती है। उसकी सूरत, उसकी आँखे, उसका रंग, उसकी लचक, उसकी करधनी, पर सजा-उसका यौवन...आदि-आदि...अंदर तक पहुँचने का उपक्रम वह बहुत कम करता है। जब कभी करता है तो पराजित होता है...क्योकि दूर उस थाह तक उसकी पहुँच नहीं हो पाती-तब स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने के भ्रमित अहम पर चोट लगती है। इसलिये उसको सम्पूर्णतः समझ लेने का नाटक बाहय शरीर को समझ लेने में ही करता रहता है। उसकी तुष्टि की यही सीमा है। इसी के तहत वह आजतक उस पर मनमाने अत्याचार करता आया है। जब तक सृष्टि का क्रम है, यह क्रम इसी तरह चलता रहेगा...। जिस तरह दो पड़ोसी देशों के राजाओं में अपनी-अपनी सीमाओं को लेकर दंद्व युद्ध चला रहता है उसी तरह स्त्री-पुरुष में यह संघर्ष आघात चलता है। जब कभी निर्बल देश ने अपनी सीमा का अतिक्रमण करने का प्रयास किया, श्रेष्ठ का अहम भड़क उठा...और दोनों में पहले टकराव, मनमुटाव और फिर खुल्लम-खुला युद्ध छिड़ गया...। इसी तरह यह शीत युद्ध-किसी-न-किसी दिन धर्म युद्ध बनकर दो समांतर बिंदुओं के बीच ज्वालामुखी बन जाता है।

जिस मूल तथ्य तक पहुँचने में मैंने तीन-दिन-बिता दिये-आज किस तरह तुम्हारे सामने बेठते ही वह मुखर हो गया।
तुम जो अखबार का टुकड़ा मेरे पास लेकर आये थे...उस एक टुकड़े ने दो संस्कृतियों के बीच का अंतराल स्पष्ट कर दिया। उस टुकड़े का समाचार ही तो मुझे साल रहा है। तुम्हारे समक्ष अपनी सारी गरिमा लिये भी मैं छोटी हो गई। समाज की इस हरकत पर...। कागज के टुकड़े के शब्द जहाँ तुम्हें कहीं भी जुड़ने का भाव नहीं देते-वहीं-वे शब्द मेरे लिये तरकश का बाण बनकर मेरे अंतर को छेद रहे है-तभी मैंने दहेज और मेरी सखी सुधा से जुड़ी सारी कहानी तुम्हें सुना दी।

दहेज की जुड़ी कहानियों के आरंभ और अंत एक ही होते है। केवल अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में कुछ घटनाओं का हेर-फेर हो जाता है। कहीं मासूम लड़की-गिरगिटों की चालें पकड़ लेती है-और उसके अपने-उसकी सहायता को पहुँच जाते है, कहीं वह भोली हिरनी-सी शिकार होने तक केवल हैरत की बड़ी-बड़ी आँखे काढ़े-उस वस्तुस्थिति में स्वयं को स्वाहा कर लेती है।

तुम्हारे मुँह से निकले कुछ शब्द-जिनके अर्थ है 'महामूर्ख', अत्याचारी या अन्यायी निकले है, वे केवल शब्द है प्राण...। ऐसे ही शब्द किसी भी पुरुष के मुँह से सुने जा सकते है...। दूसरे को गाली देने की सभ्यता...आदिम है। इसमें किसी का घटता-बढ़ता नहीं है। पर यह सभ्यता का निदान भी नहीं बन सकते। केवल हवाई सहानुभूति बाँट सकते है। अक्सर हमारे यहाँ लड़कों के मुँह में जबान नहीं होती। होती है तो उसकी कुंजी के माँ-बाप के हाथों में होती है। पर चाहे जो हो-सबल-कहलाने वाले पुरुष को मैं यह सदयता नहीं दे सकती कि वह केवल कायरता का बाना पहने-एक नारी की जिंदगी से खिलवाड़ कर डाले। उसका दबबूपन और उसकी कायरता-एक आडम्बर है। इस ओढ़े हुये नकाब को वह अगर उक्त नहीं सकता-तो वह पुरुष नहीं-नपुंसक है। यह सब बाहर नहीं-कहीं भीतर घटता है। समाज सेवियों के भाषण नहीं, पुरुष की अपनी प्रबल इच्छा ही इसको बदल सकती है। मैं तो सारा दोष पुरुष पर ही देती हूँ...।

ऐसी कितनी लड़कियाँ पैदा हुई है जो दहेज की बात उठाने पर-बारात लौटा सके-या फेरो से उठ जाय या सुहागरात की वेदी के फूल कुचल सके। हमें यही पैदा करना होगा-स्वयं में-उन लड़कियों में-इस समाज में...। पुरुष की नपुंसकता को जगाने का यही उपक्रम उचित होगा...। जब वह यह सब सीख जायेगी-तब माँ के आँसू और पिता को दुनियाई इज्जत की लाज रखने के लिये-उसे उम्रभर जहर के घूँट नहीं पीने पड़ेगे...।

सुधा मुझे बार-बार आकर कानों में कह रही है-मैं तो नहीं-और भी है-उन सब को बचा लो...। उनकों बचा लो...दिव्या...और मुझे लगता है-जैसे मैं ही वह कायर हूँ जो अभी तक-उस के लिये कुछ नहीं कर पाई।

सुधा ने-पहली ही रात-अपने कमरे के बाहर होती फुसफुसाहट में वे सब बाते-शायद सुन ली थी। उसके मन की ऊँहोपोह-मेहंदी भरे हाथों में कैसे कसमसाई होगी। डोली के कहारों के पाँवों के अभी निशान भी न मिटे थे। उसने पीछे मुड़कर देखा होगा-अपने गरीब बाप का निरीह चेहरा-छोटी बहन के आने वाले भविष्य की सुनहरी आया-भाईयों की पढ़ाई...अपनी एक जिंदगी के लिये-वह इतनी सारी जिंदगियों का सुख नहीं छीन सकती थी। उसने पति के कमरे में आते ही-उसे कह दिया-मुझे छुइए मत...मेरा शरीर सोने या चाँदी का नहीं है-जिस की खनक आप के परिवार को सुखी कर सके। यह मात्र मिट्टी की काया है-जो आप के काम की नहीं...। मेरी मिट्टी न बिगाडिये। यों भी औरत के पाप कम नहीं होते...। मुझे सुबह होते ही मेरे घर पहुँचा दीजिए। मेरे पिता को स्पष्ट हो जायेगा कि लड़की को जन्म देकर-जो पाप उन्होंने किया है-उसकी सजा क्या होती है।

विजयेंद्र हक्का-बक्का-सा उसका मुँह देखता रहा। पर कुछ कर न सका। उसने हाथ बढ़ाकर-उसका हाथ पकड़ना चाहा और कहा-माना बड़ी बहादुर लड़की हो-पर मैंने तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा।
सुधा छिटककर खड़ी हो गई-नहीं-नहीं-मुझे क्षमा करे-मैं सुबह होते ही चली जाऊँगी।

विजयेन्द्र न जाने कैसे और क्यों-कमरे से चला गया...।

रात शायद दो बजे होगे-सुधा चुपचाप न जाने किन-किन सीढ़ियों और दरवाजों को पार करती-बाहर निकल गई...।
दूसरे दिन-उसकी लाश-शहर की झील में तैरती मिली...।

पुलिस ने मार-मार कर विजयेन्द्र से सारी बातें उगलवा ली थी।

सभी जमानत पर छूट गये थे। उनके पैसों और पहचान ने इसे आत्म-हत्या का ही नाम दे दिया था...।

राज! मुझे लगता है आज पुलिस-समाज-माता-पिता सबकी आँखों में रतीना उतर आये है-इसलिये वे सब चेहरों और सच्चाई की पहचान खो बैठे है। कोई उपचार नहीं है उस कैंसर का...।
मेरी आँखे सुदूर भविष्य में इस अंधकार के बादल को और भी गहरा होता देख रही है और बिसूर रही है।

मैं उस दिन यह सब कहते-कहते शायद भूल ही गयी थी कि तुम मेरे सामने बैठे थे। यहीं नहीं-मुझे यह भी होश नहीं रहा कि मैं एक पुरुष से बात कर रही हूँ...। एक दीवार से टकरा-टकरा कर लौट रही है मेरी आवाजे...। मालूम नहीं क्यों मुझे चारों ओर उठी हुई यही लौह-दीवारे-घेरे रहती है। मैं इनसे बाहर नहीं निकल सकती। कहीं-अंदर ही अंदर घुट जाती हूँ और उन अनजानों की पीड़ा से छुटती रहती हूँ...। ऐसा क्यों होता है कि कहीं-मैं ही आहत हो उठती हूँ...दुनियाँ वैसे ही...दूसरे दिन अपनी दिनचर्या में खो जाती है। अपनी रोजमर्रा जिंदगी की भाग में भागती और लिप्त होती-निर्लिप्त घूमती है।

मुझे मालूम ही नहीं पड़ा-कब तुम उठकर चले गये थे...शायद मेरी आँखे तुम्हें नहीं-कहीं सुधा की तैरती लाश को देखती रही होगी...।

बस आज और नहीं...।

तुम्हारी-

एक प्रश्न चिन्ह

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book