श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 49
प्राण...!
दूसरे दिन भरी दोपहरी में-मेरे घर की बैल बजी थी। बालकनी से झाँका तो तुम थे...।
तुम अकेले थे और उदास थे...।
मैं भी उस दिन नितांत अकेली थी। तुम चुपचाप मेरे सामने आकर बैठ गये थे। हमारे बीच धूप की ग्रीष्म कालीन उदासी बिछी हुई थी। पानी का गिलास मैंने तुम्हारे हाथों में थमा दिया था। तुम आदर से-जैसे उठकर पानी लेने के लिये आगे बड़े थे-पर मैंने संकेत से तुम्हें बैठने के लिए कहा था...।
मैं यह पूछकर तुम्हें छोटा नहीं करना चाहती थी-कि तुम क्यों आये हो! इस जलती हुई दोपहर में...पर मेरे भीतर एक भय-सा समा गया था।
तुम कुछ भी कह नही रहे थे-मैं केवल प्रतीक्षा में थी कि कुछ शब्द मुझ तक आयेगे-तुम्हारी ओर से-जो मेरी इस दुविधा की स्थिति से मुझे उबार लेगे।
पर तुम एकाएक उठ खड़े हुये-आकस्मिक ही तुम ने एक कागज का टुकड़ा मरे हाथे में रख दिया था...इसी लाघव में तुम्हारा हाथ-मेरे हाथ को छू गया था। हम दोनों सिंहर गये थे। पर वह कागज का टुकड़ा हमारे बीच में था-जो दोनों को सुरक्षित रखे हुये था। वह कागज का पुरजा-तुमने इस तरह से दिया-जैसे कोई बहुत ही संभालकर रखने की चीज दी जाती है-कोई प्रण या अव्यक्त समझौता किया जाता है। हाथ पर हाथ रखकर-उस लाघव में तुम्हारे हाथ की छुअन-मैं तुम्हारा सारा व्यक्तित्व जैसे भरे अंदर कहीं गहरे उतर गया था और दूर तक छू गया था। मैं भौचक और आसन्नमना कुछ क्षण कि कर्त्तव्य विमूढ़-सी-अपनी हथेली पर टिके तुम्हारे उल्टे रखे हुये हाथ को देखती रही थी... जिनके बीच-केवल एक कागज का टुकड़ा-लिफाफे में बंद-उसे दो पाटन के बीच की स्थिति दे रहा था ...। मुझे लगा-यही एक कागज का टुकड़ा, मेरे जीवन की लाज है-जो हमारे बीच चिरन्तन काल तक रहकर मुझे मेरी सीमाएँ बताती रहेगी।
स्थिति की यथार्थता से परिचित होने पर हम दोनों अप्रितम हो उठे थे। झटके से पीछे हटकर-अपनी-अपनी कुर्सियों में धंस गये थे। हमारे अवाक चेहरे अपनी सवाकता खो बैठे थे-जैसे अभी-अभी प्रलय आई हो और सबका कुछ-न-कुछ खो गया हो!
मैंने सिर उठाकर देखा। तुम उसी भाँति सिर झुकाये बैठे थे। मैंने आवाज दी-राज! तुम्हारी आँख उठी-लेकिन वे डबडबाई हुई थी।
एक बार तो मेरे अंदर भी समुद्र का पारावार उमड़ने लगा। लेकिन मेरे किनारे दृढ़ है राज! मैं अपने समुद्र की सीमाएँ टूटने न दूँगी-कभी।
उस दिन पहली बार लगा-शहनाज से परे भी कुछ है-जो तुम्हें सालता हैं। तुम्हें उद्विग्न करता है। कैसी स्थितियाँ होती है प्राण कि पूरे सागर का फैलाव होता है पर बीच में कोई कश्ती नहीं होती-किनारे-किनारे ही बने रह जाते है।
तुम उठ खड़े हुये थे। उस सागर की लहरों को कोई नाम नहीं दिया जा सकता था। पर शब्दों की बाहरी आवाज ही सब कुछ होती तो इतने खुले शब्द-उस दिन तुम्हारी और मेरी आँखों में न उभरते...जो आज तक उम्र भर तक मुझ से कुछ न कुछ कहते रहे है। कितना कुछ घट गया था उस दिन...कितना कुछ कह दिया था उस दिन तुमने...। वे आवाजे केवल मैंने सुनी थी। वे शब्द केवल तुमने समझे थे। तुम्हारे वे उठे हुये हाथ और शब्द-आज भी कहीं कह रहे है ''मुझे इस शनिवार को जाना है। कल मैं और शहनाज-विवाह कर रहे है-सुबह आठ बजे-गिरिजाघर में-और आपको आना है...यानि मुझे आना है...मैं आज भी सुन रही हूँ...।
मैं हाथ में लिफाफे को खोलने लगी थी-तो तुमने मेरे हाथों को बढ़ाकर थाम लिया था...।
अभी नहीं...जब मैं नहीं रहूँगा-तब...मेरे जाने के बाद ही इसे पढ़िये...। मेरी आँखों की गहराई में उतरकर कह रहे थे-प्रण कीजिए मेरी बात मानेगी। मैंने दृष्टि से मौन वचन दे दिया था...।
तुम चुपचाप सीढ़ियों से उतर गये थे। बालकनी से मैंने देखा-तुम धीरे-धीरे भारी कदमों से सड़क पार कर रहे थे...।
न जाने क्यों सड़क का वह हिस्सा-मेरी बालकनी से दिखते दृश्यों में सार्वभौम बन गया है...मेरे लिये।
लगता है मेरी मूक आवाजें तुम तक पहुँचने लगी है।
क्या यह इस कल्पना की इतिश्री है या कोई नया इतिहास है। दूरियों का इतिहास, भावनाओं का कोरा-इतिहास और एक दूसरे तक न पहुँचने की लंबी संधि...यह संधि तो पहले भी थी-लेकिन अलिखित अब-यह लिखित होने
जा रही हैं।
पर अच्छा लगा कि तुम जाने से पहले शहनाज से जुड़ रहे हो-यह तुम्हारे कर्त्तत्य की जमीन को और दृढ़ता से पकड़ेगा...।
ढेर सारी शुभकामनाओं की अंजुरि भरी-कलियाँ तुम्हारे रास्ते पर न्योछावर हो...।
इतना ही-
- तुम्हारी
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