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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 50


प्रिय राज!

उस दोपहर तुम्हारी जुड़ी हथेलियों पर मन होता था-अपनी आँखे रख दूँ और जो दुआएँ-तुमने कभी-भी मांगी है उनसे सरोबार कर दूँ-तुम्हारी हथेलियाँ...

मेरी अंजुरियों में जितनी दुआओ के फूल आ सकते हैं-वे सब तुम्हारे है प्राण...तुम्हारे त्यक्तित्व के सामने-सब बौना हो जाता है।

जब लालू सालू उतरा था किसी की आँखों में-तब तक फूल झर चुके थे...।

राज! लाल-फूल जब झरते है तो मुझे लगता है आसमान के तारे अपनी ज्योति खो बैठे है...।

मेरे अंदर तो शब्दों और उनसे उदीप्त भावों की कब से इतिश्री हो चुकी है, इसलिये तुम्हारी स्वपनिल-सी अधमुदी आँखों में एक सपने की-सी कोमलता-जब देखती हूँ तो उसकी होंद की प्रतीत नहीं होती।

मैं कभी प्यार नहीं कर पाई क्योंकि जाना कि पुरुष की आँखों में प्यार नहीं हवस होती है। जब कभी किसी की आँखों में स्वपनिल स्वप्न झलकते देखे-साथ ही देख ली उसके पीछे वासना की लपलपाती-लपटे। इसलिये विश्वास शब्द मेरे लिये बेमानी हो गया। यह मेरा अनुभव ही नहीं-आस-पास-घर-समाज-गाँव-देस-सभी जगह-सारी कायनात इस सच्चाई से अटी-पड़ी है। और विवाह-विवाह तो एक दैहिक धर्म-एक कर्त्तव्य...एक समझौता। जिसका आदि या अंत देह पर ही होता है। 'प्रेम' विवाह की परिधि से बाहर का शब्द है।

पहली बार-तुम्हें देखकर लगा था कि मृत्युलोक की इस धरती पर-कहीं पार की कोई ऐसी परिभाषा है-जो अतीन्द्रिय है। जो प्राप्ति से परे की चीज होकर भी नितांत-अशरीरी है। स्त्री और प्रेम शब्द पर्यायवाची कहे जा सकते हैं। गुलाब की पंखुड़ियों जैसे कोमल और आर्द-पर सच्चाई की कड़वाहट तक चुभने वाले।

शहनाज भी एक गुलाब हैं। उसकी पंखुड़ियाँ तुम बिखेरना मत। बिखर भी जाए-तो कुचलना मत।

तुम्हारे लिये केवल एक ही प्रार्थना है-मेरे मन में-कि तुम पुरुष बना-

पौरुषता के पर खूंखारता के नहीं। मेरे लिये पुरुष का दूसरा नाम परूषता है। मैं बाहरी कोमलता नहीं, अंदर की कोमलता ढूँढना चाहती हूँ। वह कहीं तुम्हारे अंदर भासती हूँ...। इसीलिये चाहती हूँ-तुम दूर चले जाओ-बहुत दूर...ताकि वह कोमलता-मेरे मन मे कभी पाषाण न हो जावे। शहनाज के लिये-तुम महापुरुष बन सको-तो मैं आधी-पुरुष जाति को क्षमा कर दूँगी। उस पुरुष को भी क्षमा कर सकूँगी जो मेरे अंदर, मेरे बचपन से-गरीब पर हंटर मारता-विराजा हुआ है। यहीं नहीं-जो रूपयों के लिये- अपने क्रोध के वशीभूत होकर-अपने बच्चे की गर्दन तक मरोड़ सकता है। वे सभी नृशंस पुरुष बरी हो सकते हैं-मेरी आजतक की वितृष्णा से, घृणा से...बस तुम केवल एक कली मुरझाने मत देना।

पीछे लौटकर न देखो-तो भी ये आँखे-तुम्हें देखती रहेगी...।

- बस तुम्हारी

 

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