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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 51


राज प्रिय...।
उस दिन शहनाज जब प्रसाधन क्रेंद्र (Beauty Salon) से सोलह-श्रृंगार कर के लौटी थी-तो वह तन्बंगी, छरहरी, गौरी उस श्रृंगार में रीतिकालीन षोड़शी नायिका लग रही थी। कहीं कमी नहीं थी। नख-शिख श्रृंगारित एवं यौवन के आलौक से आलोकित। यों भी उम्र का सौन्दर्य-नख शिख के सैकड़ों खलाव भर देता है। सबसे बड़ा सौन्दर्य तो यौवन का होता है न...बाकी सब प्रसाधनारित सौन्दर्य उसके समक्ष बौने है...।

शहनाज के सामने देखकर अपना यौवन-एक बार दर्पण में उभरे चित्र के समान आँखों में क्यों उभर आया। आज शहनाज और मेरे बीच कितनी दूरी है-उम्र की...। उम्र किसी को नहीं छोड़ती। धीरे-धीरे एक-एक पल हम कैसे बढ़ते और झरते जाते है-आइने को भी खबर नहीं रहती और एक दिन हम देखते है कि सारे बसंत का बौर झर गया है। पर मन ही मन इस कड़वे यथार्थ को नकारे रहते है। नकारने का एक लाभ तो है ही प्राण-हम जी लेते है-अन्यथा तलवार की तरह लटकी यह नियति किसी को जीने न दे...।

अरे! ऐसे अपरूप सौन्दर्य के समक्ष में अपनी दार्शनिकता क्यों बघारने बैठ गई हूँ...।

शहनाज की सखियाँ उसे घेरे बैठी है। कोई उसे बुलाता है तो कैसी भरी-भरी आँखों से ऊपर देखकर- मुस्काकर दृष्टि नीचे कर लेती है। भूषण सार न संभार ही-जैसी विनीत बैठी है। कभी-कभी उसकी आँखों में-कहीं खो जाने का भाव झलकता है। उस भाव के पीछे तुम हो-उसकी माँ के अरमान है-या ससुराल की काल्पनिक देहरी है-मैं नहीं जानती। कितने सपने संजोये होंगे उसकी माँ ने अपनी इकलौती शहनाज के लिये...।

ऐसे में जब शहनाज की आँखे मेरी ओर उठती है तो उसमें अनबूझे से प्रश्न और शंकाये घिर आती है...तब-तब मैं बरबस उसके हाथों को-अपने हाथों में लेकर-एक आश्वासन भरे पार से उसके गाल सहला देती हूँ...। पर मेरी आँखों में भी संशय के बादल है। वह मेरी आँखों की अनकही भाषा जैसे पढ़ जाती है। मैं इससे बचने के लाघव में कहती हूँ-बहुत सुंदर लग रही हो शहनाज-बिल्कुल सधे हाथों में निर्मित 'अल्पना' जैसी। वह नीची नजर करके बैठ जाती है और मेरे हाथों में-उसके पसीने की सरसराहट फैल जाती है। उसके थरथराते से हाथ-जैसे निर्जीव से बर्फ हुये-मेरे हाथों मे कसमसाने लगते है-जैसे आसरा ढूँढ़ रहे हो...।

घबरा रही हो।

तुम्हारे मन की मुराद मिल रही है-घबराना कैसा!

हूँ...और उसकी आँखों में कुछ तैर जाता है। तुम्हारी ये अँजुरियाँ-खुशी से भरी रहे शहनाज...।

वह गद्गद होकर मेरे कंधे पर सिर रख लेती है। सभी सहेलियाँ बाहर-बारात देखने चली गई है।

आप भी जाइये न बारात देखने...।

पहले तुम्हें तो जी भर कर देख लूँ-उसका हाथ और भी मेरी हथेली में भिंच गया है।

द्वार पर सूर्य की किरणों के बीच शहनाज के प्राण का चेहरा दीप्तिमान हो रहा है। सहेलियाँ उचक-उचक कर देख रही है और खिलखिला रही है...।

भीड़ है-चेहरे पर चेहरा चढ़ा हुआ। मैं भी जरा-सा उचक कर देखना चाहती हूँ-पर संकोच बाँध लेता है।

रोज असंख्य चेहरे दिखते है। दाँए-बाँए-ऊपर-नीचे- आसपास-घर-आंगन-पर जब कोई चेहरा-सेहरा बाँधकर-किसी के द्वार पर शहनाई बजाता है तो उत्सुकता लगाम तोड़ देती है। सेहरे के पीछे छिपे चेहरे को देखने की होड़-सी लग जाती है।

मेरे लिये तो वह चेहरा-हर दिन उत्सुकता की लगाम तोड़ता रहा है। उस दिन-तुम्हारी ओर देखे बिना ही-वह सारा समय-मैंने तुम्हारी खुशी के लिये-अपने से छिपा-छिपाकर बिता लिया था।

जाने क्यों बार-बार लगता रहा-कि जैसे तुम्हारी आँखे कुछ ढूँढ रही है...और बीच-बीच में मुझ तक आकर ठहर जाती रही है-जैसे किनारे तक आकर लहर रूक जाती है।

मैं तुम्हारे लिये किनारे-सा सम्बल बन सकूँ-यही क्या मेरे लिये कम है।

आज-लगता है बहुत थक गई हूँ। अन्दर-बाहर के आंदोलनों में पिस गई हूँ...।

मेरे अंदर की लौ बुझ रही है-धीरे-धीरे...जैसे मेरे अंदर का कोई कोना सूना होता जा रहा है या हो गया है। सूर्य की कितनी भी दीप्ति हो-फिर भी जब तक अपनी आँखों की लौ-जीवित न हो तो उस महा-प्रकाश पुंज का भी क्या अस्तित्व रह जाता है। ऐसा ही कुछ भास रही हूँ...।

क्या है यह अधिकार...जो न होने पर भी सालता है और होने पर भी...।

बस आज इतना ही-

एक कल्पनातीत-भाव...।

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