श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
पत्र - 52
राज मेरे...।
समझ नहीं पा रही हूँ राज! क्यों तुम्हारी दृष्टि उस क्षण मेरी ओर उठी थी जब काजी ने तुमसे निकाह की हामी भरने को कहा था...। शहनाज! वल्दा दौलत शाह-मोहसीन से तुम्हे निकाह कबूल है।
और तुम्हारी आँखे मेरी ओर उठी थी। कभी-कभी केवल आँखों से हम न जाने क्या-क्या कह लेते है कि अंदर ही अंदर कहीं-दूसरे तक उसका अर्थ संप्रेषित हो जाता है। गूंगे के गुढ़ की तरह...पर उस अर्थ को शब्द नहीं पहना पाते। शायद ऐसा ही कुछ अर्थ रहा होगा-तुम्हारी उस दृष्टि का।
क्या तुम मेरी हो पाकर आश्वास्त होना चाहते थे-या कहीं कुछ और अनकहा-जो हमारे बीच है-उसे शब्द नहीं संकेत से समझाना चाहते थे...। आज तलक वह दृष्टि-मैं आँख बंद करके-पलकों में सिमटी देख सकती हूँ...या एक मौन आश्वासन था-कि कुछ भी हो-हमारे बीच की अनकही-दोस्त-शाश्वत रहेगी-। मैं आजतक उसके अर्थ को खोज रही हूँ किंतु किसी शब्दकोष में मुझे उसके अर्थ नहीं मिले।
तुमने हां कर दी थी और हर्ष की एक लहर मेरे तन-मन में भी सिहर कर आँखों में भर आई थी। कैसे होते है ये पल-प्राण! जब हम एक दूसरे व्यक्तित्व को समाज के सामने साक्षी मान लेते है-मन-प्राण से एक होने का अटूट वचन दे देते हें। कितना शाश्वत ढंग है-दो आत्माओं को मिलाने का!
पर प्राण! क्या हर-गठ-बंधन में-दो आत्माएँ सचमुच मिलती ही है...शायद हां...शायद नहीं...।
आदियुग से यह बंधन शायद भावना से अधिक शरीर का ही होता रहा है। युग को, धर्म को, संसृति को चलाने के हेतु...अन्यथा-सभी बंधे हुये शरीरों की आँखों में भी एक बंधक की तरह तैरता हुआ-आहत-अतीत क्यों होता...। एक घायल-स्वप्न क्यों होता। कोई अपना-निति अतीत आँखों में तैरता-एक सकून बना रहता हैं। हम जब कभी चाहे वर्तमान से आँखे मूंदकर उस स्वर्णिम-स्वर्ग के दर्शन करते रहते है। और क्षणांश के लिये हम उस ब्राह्मंड में खोकर-
|