श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 53
मेरे तुम!
यह कैसी विडम्बना है कि मेरे ये पत्र तुम दोनों तक कभी नहीं पहुँच सकते। ये सदैव मेरी ही पूँजी बनकर रहेंगे...। मेरे प्यार के साक्षी...मेरी थाती के रूप में। क्योंकि भौगोलिक दूरी के अतिरिक्त एक और दूरी है। मेरी भाषा की सम्प्रेषणीयता-जो कभी तुम तक नहीं खुल सकती। तुम दोनो एक ही युद्ध में आमने-सामने खड़े हो। यहाँ मुझमें भी-तुम दोनों आमने-सामने खड़े-एक दूसरे का प्रतिरोध- प्रतिवाद और परिशोध कर रहे हो...मैं कुछ भी नहीं कर सकती। एक को छीनना है और दूसरे को अपने-आप को बचाना है-अपनी थाती-सहित-यही कठिनाई है और यही त्रासदी भी।
तुम दोनों मैं कुछ भाषा का और उससे बड़ा देशा का वैमनस्य है। एक इराक और एक इरान। एक शिया और एक सुन्नी। दोनो तरफ के माँ-बाप एक दूसरे के सामने मोर्चे पर खड़े हुये और तुम दोनों- किसी सीमा पर सन्धि-का परचम लिये। क्यों है यह धर्म-यह धर्मान्धता। क्यों है यह भेद-भाव या दूरी। क्यों नहीं खुली बाहों से लोग मिल सकते! क्यों संकरी-गलियों के कीचढ़ में लिथना पड़ता है न चाहते हुये भी। प्रेम ने तुम्हे बाँधा है-फिर यह मनमुटाव यह बेबसी क्यों! आज तुम दोनों सोच रहे हो कि शहनाज का पति-शहनाज के विरुद्ध है-उसकी मातृभूमि के विरोध में झंडा लिये खड़ा है-। क्या प्यार इस-सबसे बड़ा नहीं है। क्या ऊपर वाले ने हमारी रचना अलग-अलग की है-। नहीं न! सब एक जैसे हाथ-पाँव-मुँह-नाक-शरीर-लिये पैदा हुये है-खुदा ने ये लकीरे मानचित्र पर नहीं खींची थी-फिर उस की सल्तनत में-सीमाएँ खड़ी करने वाले हम कौन है!
मेरा विवाह भी-मेरी भाषा से परे भाषेतर से हुआ और प्रेम एक दूसरे भाषेतर से। हम सब के बीच एक काम चलाऊँ, जीवन चलाऊँ-आम भाषा है-जो कभी मेरी अंतस को भावनाओं को, मेरी आत्मा की संप्रेषणीयता को नहीं छू सकी-चाहे इन बनावटी चौखटो में हम जीते रहे...फिर भी आँखों की भाषा, आत्मा की भाषा बनकर-हमारा प्यार, हमारा कर्त्तव्य हमसे उकेरती रही और कोई व्यवधान खड़ा नहीं हुआ। जीवन निकल आया...वह कैसे भी निकल ही जाता है केवल आपको उसे अपना कँधा देना होता है।
पर-राज...मैंने अपनी भाषा की आत्मीयता इन पत्रों में उड़ेली है। इन मैं मेरी आत्मा-समाहित है। यह कभी समझे नहीं जायेगे। यों इनमें मेरा मैं समाहित है-वही मेरी-मैं-अपनी। मेरा अपनापन-जो कभी बाँटा न जा सकेगा। तुम दोनों आज जिस मुद्दे पर प्रतिपक्षी हो-मेरे लिये वह सारी कशमकश ही बेमानी है। इसीलिये मैं तुम दोनों के बीच त्रिशंकू ही बनी रहूँगी। मेरी यही निर्यात है राज...। चिंता मत करना...कभी बाधा नहीं बनूँगी-तुम्हारी राह की, तुम्हारी चाह की...।
कैसे समझाऊँ मैं अपूर्ण होकर भी पूर्ण हूँ...। असंतुष्ट होकर भी तुष्ट हूँ...। दोना जहान की अनूभूतियाँ हैं मेरे पास...मेरे निकट...। अनुभूति-जन्य सुख भी अलभ्य है-।
शुभ कामनाओं सहित-
- तुम्हारी कोई नहीं
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