श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 54
प्राण!
आज फिर मन बहुत उद्विग्न है। कभी-कभी जीने की स्थितियाँ इतनी विकट हो उठती है साँस लेना मुश्किल हो जाता है। यों भी ऊपर वाले ने नारी की सृष्टि करके-उसके आँचल में दुनिया भर के अंगारे भर दिये है। जीवन में नकारी जाने के लिए क्या नारी ही बनी है। नारी के अंदर कभी झांक के देखा है तुमने! कभी विष का स्वाद चखा है तुमने। कभी-सीखा है अंदर ही अंदर तिल-तिल कर मरना और जीना। यह सब जानना है तो मुझ से पूछो। नारी केवल पुरुष की नृशंसता का ही शिकार नहीं बनती उसकी ठंडी दर्याद्रता की भी भाजन बनती है। दया की दृष्टि झेलना-नृशंसता की क्रूरता से भी बढ़कर होता है। ये सब नारी के जीवन में यो घटित होते है जैसे रोज की उसकी दिनचर्या। किसी बिखरे फूल की पंखुड़ियों को देखने की इच्छा हो तो नारी-मन के अंदर झाँककर देख लेना।
समझ नहीं आता-क्यों यह सब-तुमसे रोज कहने बैठ जाती हूँ। क्या मुझे तुम्हारी-ओर से कुछ अपेक्षाएँ हैं-क्या मैंने अपने मन में तुम्हें-लेकर- आशाएँ-आकांक्षाएँ पाल रखी है-जिनका-कही-मेरा मन- मुआवजा माँग रहा है। ऐसी गलती भी मत करना-सोचने की...ले देके तुम भी तो एक पुरुष हो-उसी तरह निर्मम-उसी तरह कठोर-उसी तरह निःसंग। पर तुम्हारी निःसंगता ही तुम्हारा गुण है। यहीं खिचाव मुझे रोज तुम्हारे निकट खींच लाता है। आज एक रहस्य मेरी समझ में बिजली की कोंध-सा खुल गया है कि नारी-पुरुष की तरह क्यों-बार-बार अपना पुरुष नहीं बदल पाती। एक जीवन में नारी में एक पुरुष को झेल कर-उसकी निर्ममताओ से लड़कर-चुक जाती है-इसीलिये वह बार-बार इन अग्नि-परीक्षाओं में नहीं बैठना चाहती। बार-बार एक ही भट्ठी पर चढ़कर उसे राख होना स्वीकार होता है-पर वह नयी भट्ठी नहीं खोज सकती-अपनी नयी यातना-यात्रा के लिये...! अपने जीवन के अपराह तक आते-आते वह अपनी उन सारी झेलनाओं के साथ मात्र राख बन जाती है। हाँ वही राख- कभी-कभी भभूत बनकर उसे शाँति भी देती रहती है और कभी सिर पर चढ़ कर विवश हो वह उसे दुर्गा भी बना देती है। प्रतिशोध की आग बनकर दानवों तक का विनाश भी वही कर सकती है। यह सब आज के युग में ही हुआ हो-ऐसा नहीं है। हर युग में अलग-अलग ढंग से यही सब दुहराया जाता रहा है। द्रोपदी से लेकर दामिनी तक कुछ भी नहीं बदला है केवल कुछ छद्म परदे और सब कुछ ज्यादा नँगा हो गया!
नारी जीवन की-यह अंदर सुलगती विडम्बना आज तुम्हें लेकर न जाने क्यों उबल पड़ी है। अपनी विवशता की बंधक हूँ-राज! चाहकर भी तुम्हारी ओर हाथ नहीं उठा सकती। तुम्हें जाते हुये देख तक नहीं सकती-आँख भर कर...।
शहनाज के जीवन की सार्थकता को ही अपना मानकर चल रही हँ...!
- तुम्हारी
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