श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 56
प्राण!
जब से तुम गए हो...ईरान और इराक के युद्ध से संबंधित-कहीं भी लिखी-एक पंक्ति-मुझे तुम से जोड़ देती है। इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर देश और जातियाँ अपनी सत्ता ही स्थापित करती रही है। विश्वासघात से दूसरे देश की सीमाओं का उल्लंघन करती रही है। मैं नहीं जानती...उस धर्म का नाम...जिस ने धर्म के नाम पर युद्ध कर के किसी जाति को ऊँचा उठाया हो। किसी जाति को ओदार्य प्रदान किया हो। युद्ध केवल सत्ता परस्ती के पर्याय ही रहे है। जो युद्ध मुक्ति के लिये लड़े जाते है वे तो स्वाधीनता के लिये किये गये यज्ञ होते है। उसमें आहत होने वाले मनुष्य युद्ध की नहीं-यज्ञ की हविशा बनते है। यही बात ईराक और इरान के युद्ध के विषय में एक ईरानी मौलवी ने कहीं है-''इस्लामी क्रांति के नाम पर जो सेवा इरान के सदर ने इस्लाम धर्म के नाम पर पिछले चार-वर्षो में की है, उसने सिर्फ यह नुकसान पहुँचाया है कि सौ साल तक ईरानियों के दिलों में इस्लाम धर्म के लिये घृणा का बीज बो दिया है''। मेरा मन तो विकलित है यह सोचकर कि उसी युद्ध की अग्नि में तुम्हें कूदना है, जो दो देशों की नहीं-दो भाईयों की लड़ाई है। इसमें जीत किसी की भी हो-अनन्तः धर्म की ही हार है।
ऐसे में हमारी आवाजें, हमारा विद्रोह केवल चार दीवारी में तनी हुई मुट्ठियों की तरह है...प्राण! तुम्हारी आँखों में भी यह बेबसी मैंने देखी थी...इससे तुम इंकार नहीं कर सकते। यों भी-सोचना पड़ता है कि स्वयं राजसी चार-दीवारी में सुरक्षित बैठकर-दूसरों के सिरों को गाजर-मूली की तरह कटवाकर-गर्व करना-कौन से धर्म की आस्था है.
फिर भी शुभकानाएँ-
- तुम्हारी...
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