लोगों की राय

श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

186 पाठक हैं

पत्र - 57


मेरे राज!
मैं कल एक पत्रिका पढ़ रही थी-जिसमें किसी ईरानी लेखिका ने-ईरानी कैम्पों का दौरा करने के बाद लिखा है कि आहत एवं परिवार-हीन सिपाहियों का दुःख सहन-शक्ति से बाहर हो रहा है। आज के तीन-वर्ष पूर्व लेखिका को जो संगीन यातनाएँ दी गई थी-उनसे वह आज भी सहमी हुई है पर उसी दर्द की दृष्टि से वह सारी उस जाति का दर्द देख सकती है जो इन युद्धों की यंत्रणाओं के शिकार हो रहे है। अब तो वहाँ यह स्थिति है कि बीस-बीस हजार के इनामों की घोषणा के बावजूद-ईरानी माँ-बाप ने अपने लड़को को युद्ध में नहीं भेजना चाहते। शहरों में माँ-बाप ने अपने लड़कों के नाम स्कूलों से कटवा लिये है। यह भी लिखा है कि जब ऐसी सूचना सदर तक पहुँचती है तो उन माता-पिता को गोली से उड़ा दिया जाता है। यह कैसी सत्ता की या वैमनस्य की लिप्सा है प्राण...जो अपनी ही कलियों को मसल रही है। देश का सदर-देश की जनता का माँ-बाप-सबकुछ होता है-कभी किसी माली को-अपने ही बगीचे की कलियों को मसलते देखा है। तुमने अगर-अभी तक नहीं देखा होगा-तो अब देख रहे होगें। मुझे तो चिंता है कि तुम्हारे पहुँचने से पहले कहीं तुम्हारे माता-पिता भी इन्ही नृशसताओं के शिकार न हो गए है। ऊपर वाले से प्रार्थना है-उस आग में कूदने से पहले-तुम एक बार अपने माता-पिता से मिल सको। वही माता-पिता जो अब तलक तुम्हें इस आग से दूर रखने के लिए-स्वयं न जाने कितनी यातनाएँ भुगतते रहे होगे।

यह आज की कहानी नहीं है-युगों युगान्तरों से यही परिपाटी रही है-कि कुछ लोगों की स्वार्थ-लिप्सा-दुनियाँ को ऐसे मुहाने पर धकेल देती है। कि आम व्यक्ति को उस जलते अलाव में भस्म होने को विवश कर दिया जाता है। अभी हिटलर की त्रासदियाँ-हमारे मुँह का जायका बिगाड़ रही है। उस नृशंसता के वंशज आज भी अपाहिज-जीवन बिता रहे है। अपनी आँखों के सामने-अपनो से बिछुड़ते-उनकी पीड़ा-की पुकार-सुनते-आधी-आधी रात को बड़बड़ा उठते हे। अभी तक वे अपनी नींद सो सके है।

फिर भी तुम अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने और किसी की खूंखार युद्ध-लिप्सा-तुम्हें निगलने का साहस न कर सके!

बार-बार मेरी आँखों में वह आग जल रही है जिसमें कूदने के सिवाय-तुम्हारे समक्ष दूसरा विकल्प नहीं है प्राण...।
कभी-कभी जीवन हमें-जीने का दूसरा कोई विकल्प देता ही नहीं। हम बस एक ही रास्ता चुन सकते है। जीवन की यही विवशता है। कठपुतिलयाँ स्वयं नहीं नाच सकती। डोर थामने वाले की अंगुलियाँ ही उसके चरणों की भाप बनती है। यही हमारी परीक्षा होती है और यही हमारी-दो-धारी-चलने वाले धार भी। चिंता-नहीं करना...। सब अच्छा होगा...।
प्रार्थनाओं के साये में-

- तुम्हारी

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book