श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
पत्र - 58
प्राण मेरे!
आजकल न जाने मुझे क्या हो गया है। घंटो बैठी रहती हूँ या लेटी रहती हूँ-बिना कुछ किये-बिना कुछ हाथ में लिये। पहले होता था-तो एक क्षण खाली बैठना दूभर हो जाता था-और नहीं तो-हाथ में कोई किताब-कोई बुनाई-कढ़ाई या-और नहीं तो टी.वी. ऑन रहता और मन-मस्तिष्क कहीं संलग्न हो जाता। लेकिन अब न जाने क्यों कभी छत-कभी दीवारों के साथ टंग जाती हूँ। जैसे छत पर चढ़कर, बैठकर नीचे अपने आपको, स्थितियों को, स्वांगों को देखती रहती हूँ। तोलती रहती हूँ-यह क्या है-यह क्या हो रहा है-ऐसा क्यों होता है। मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ, क्यों हूँ, अगर हूँ तो यहाँ क्यों हूँ। इन स्थितियों में कैसे पहुँची! मेरा और कौन है-! कौन नहीं है...है तो कहाँ है। हम यहाँ क्यों आते है-क्यों आएं है। हमारी स्थितियों हमें क्यों ऐसे मोड़ देती हैं कि हम वह बन जाते है-जो नहीं बनना चाहिए-या वह नहीं बन पाते-जो बनना चाहते है।
मालूम नहीं कहाँ से शुरू होती है जीवन की यह लंबी यात्रा। किसे प्रारंभ और किसे अंत कहना चाहिए। यो तो प्रारंभ होने से पहले ही हम अन्विति तक पहुँचे होते है-क्योंकि मालूम है-किसी चीज में सार नहीं-सारतत्व नहीं-सब भौतिक है-सब क्षणभंगुर है, ऊपरी है-अस्थायी है, दिखावा है, छलावा है। फिर भी कितनी दृढ़ता होती है हम मैं-कि हम जिये चले जाते हैं, दौड़े चले जाते है। मंजिल की निश्चतता न होते हुये भी-दौड़ में शामिल है। भीड़ का हिस्सा है। थक-टूटकर भी-फिर किसी अनजानी प्रेरणा से उठ खड़े होते है। रूचि न होने पर भी जूझे रहते है। क्यों बनाया ऊपर वाले ने ऐसा। कहाँ से शुरू होती है और कहाँ खत्म।
मैं यह सब क्यों लिखने बैठी हूँ तुम्हें। अपनी ही विफलताओं का लेखा-जोखा। क्यों तोलती रहती हूँ स्वयं को-हर समय! क्यों अपना छिद्रान्वेषण। करने में मुझे सकून मिलता है। क्यों बार-बार अपने तराजू से गिरती रहती हूँ। क्यों मेरी अपनी ही आँखें कमजोरी मुझे छोटा करती रहती है। खिले-हुए फूलों को देखकर-क्यों उनकी क्षणिकता पर दया आती है या हँसी कि कैसे फूला-फूला इतरा रहा है- जरा-सी चुभन और निकल गई हवा।
क्यों मैं स्वयं को व्यक्ति के मानदंडों से परे होकर सोचती हूँ। मैं भी आम इंसान हूँ। मेरी भी दुर्बलताएँ है। उन दुर्बलताओं को लोगों ने जब-तब भुनाया है और मैं अंत तक भुनाई भी गई हूँ। क्यों मुझमें वे लाघव पैदा नहीं होते-जो मुझे इन किनारों की छिलन्दरों से बचा सके। इन दलदलों में गिरने से बचा सके। लेकिन मैं सायास-स्वयं को इन दलदलों में धकेलती रहती हूँ। अपनी इन तटस्थ आँखों से ही सदैव-जग को देखती रही हूँ-और संसार मुझे अपनी लहरों की पछाड़ से पछाड़ता रहता है।
क्यों आप अपनी जिंदगी-अपनी इच्छा से प्रारंभ नहीं करते या कर सकते। मालूम नहीं किस चौखटे में ढली-ढलाई जिंदगी शुरू हो जाती है और आपकों इसकी खबर तक नहीं होती-पर जिंदगी आप के आस-पास अपना गहरा जाल बुनना शुरू कर देती है। हर दिन, हर क्षण, हर लमहा, आप उस जाल में बुनते चले जाते है। आप का रेशा-रेशा जैसे बालों की बारीकी सा, उसमें उलझता चला जाता है। आप इस जिंदगी को बहुत लंबे समय तक देख ही नहीं पाते-केवल अनुभवते हो, जीते हो, घूमते हो- चक्कर खाते-खाते-गिरते पड़ते हो-क्योंकि उस जिंदगी की चाबी आप के पास नहीं-किसी और के पास होती है-और यही विडम्बना है।
पता नहीं क्यों यह अनर्गल प्रलाप-आज तुम्हें लिख गई...। न रुचे तो फेंक देना.
- तुम्हारी-ही
|