श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
पत्र - 59
मेरे प्रिय!
क्या लिखू प्राण! मन बड़ा उद्विग्न है, बेचैन है। आज मेरे देश में भी ईराक और ईरान जैसी स्थिति पैदा हो रही है। संसार तो मानवता का पाठ पढ़ाने वाले अपने ही घर में आग जला बैठे है। यह स्थिति तो तुम्हारे देश से भी निष्कृष्ट है। प्राण...वहाँ कम से कम देश है-जो अलग-अलग सीमाओं में बंधे है। वे अपने मानचित्र की लकीरे बढ़ाने की बात सोचते होगे या उन्हे सत्ता स्थापित करने का मोह होगा। हो सकता है किसी बंदर-संस्कृति का बीज भी हो। किंतु मेरे देश का संघर्ष तो दो भाईयों के बीच, पति-पत्नी के बीच, माँ और बेटो के बीच जैसा है। एक ही महानदी से निकली कोई धारा कहे कि मैं अपने उत्स को नहीं मानती तो। एक ही माँ की गोद मे पला कोई कहे कि यह मेरा भाई नहीं है। बस यही सब यहाँ हो रहा है। जिन गुरुओं को भगवान मान-हम लोग अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी सभ्यता का एक मूर्तता का जामा पहनाते है, उन्हीं गुरुओं के आदर्शों को भंगकर क्या हम उनका अपमान नहीं करते! इसी तरह अगर एक-एक व्यक्ति अलग समाज, अलग राज्य की कल्पना करने लगेगा तो विश्वभर को वसुधैव-कुटुम्भकम का उपदेश देने वाले देश का क्या होगा। उसका क्या आदर्श रह जायेगा। मैं तो बार-बार यहीं कहती हूँ कि रक्त बहाकर-किसी भी आदर्श या सत्ता की स्थापना कर सकना-अपने-आप में बेमानी ही नहीं-सरासर मानवता का विरोध है।
अब तो तुम्हारी शहनाज भी इस आग में घिरी बैठी है। तुम वहाँ आग से खेल रहे हो और हम यहाँ अपने ही घर में जले-अलाव में झुलसने लगे है।
यह आग सिक्ख और हिंदुओं के बीच लगी है। बसों से उतारकर, या बसों में बम रखकर हिंदुओं को मारने लगे हैं। यहीं नहीं बड़े-बड़े हिंदु नेताओं-सम्पादकों को मार डाला है। किसी एक राजनितिज्ञ की- नृशंसता-सारी मानव जाति भुगतती है। यह कैसा नियति का न्याय है। अपनी किन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये-निरीह-इंसानियत बली चढ़ती आई है। लोग अपनी ही छत के नीचे असुरक्षित अनुभव कर रहे है। मालूम नहीं सारी मानव जाति को क्या हो गया है। सब कहीं अपने-अपने स्वार्थ की लट्ट लिये घूम रहे है-और उन्हें हाँकने वाले- जैसे अपनी अमरता का वरदान लेकर आये है। इतिहास भर पड़ा है इन त्रासदियों से-जहाँ अपनी लिप्सा के लिये मानवता की-बस बलि ही दी गई है।
आज हम यही समझ नहीं पा रहे है कि मनुष्य और मनुष्य मिलकर ही मानवता का सृजन करते हैं-अन्यथा सब गोरख धंधा है-बेमानी है-खोखला है।
तुम्हें क्या कहूँ। तुम्हारा दुःख बढ़ाना भी नहीं चाहती-किंतु ऐसी स्थितियों में-मैं अंदर तक खौल जाती हूँ-प्राण! तब तुम्हें न कहूँ तो किसे कहूँ...। बाहर तो कटीली तारों की बाड़ लगी है पर अंतर की भाषा पर तो कोई बाड़ नहीं है न! इसीलिये-तुमसे यह सब कह पाती हूँ...। बस-उस आग की झुलस से तुम अपने आप को बचाकर रखना...मेरे लिये-शहनाज के लिये...।
मेरी अभ्यर्थनायों का हर पुष्प तुम्हारा है-
- तुम्हारी
|