श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 60
प्राण!
आज तुमने मेरे क्षितिज पर यह कैसा सूरज उगा दिया है। आँख भर आई है। इसी के लाघव से न जाने-कौन-सा अतीत घाव की तरह रिस आया है और इसी एक क्षण में अतीत की किन-किन देहरियों को लाँघ आई हूँ...प्राण...! तुम्हारी दो तीन पंक्तियों ने-मेरे देह-प्राण में सावन जगा दिया है। भूल गई थी कि कभी यौवन ने इस देहरी पर भी दस्तक दी थी-एक अदृश्य-सुकुमार-कल्पना के रूप में...उस क्वाँरी देहरी पर के चिन्ह आज भी कहीं उग आते है-जिन्होने एक दिन अपने चितवन से मुझे मोहाबिन्ध कर दिया था। एक चाह-सी पलने लगी थी-नवांकुर-सी। उस नयी नवेली उम्र में। जब भी वह स्वप्न सामने उभरता रहा-आँखे मूंद जाती रही और कली के ओंठ सिल जाते रहे। शब्द तक नहीं निकल पाते थे। केवल आँखे एक मूक प्रणय निवेदन बन कर रह जाती थी। उसकी आँखों का मोहाबिन्ध होना भी मैंने देखा था प्राण...।
बादलों की तरह एक धुँये-सा सब कुछ उठ रहा है आज मानस-आँखों में-भीग गई हो-तौलियाँ लो और पोछ लो...।
नहीं-नहीं-ठीक हूँ...
क्या ठीक हूँ-बैठो न...।
नहीं-यह सब गीला हो जायेगा...
कुछ नहीं होता...
और मेरे कँधे पर मानो बासंती-सौरभ झुक आया था...अब तो बैठो...।
बहुत अच्छी लग रही हो-भीगकर...
मेरा अंतरतम तो किसी अव्यक्ता में विकल हुये पँछी की तरह फड़फड़ा रहा था।
देखो...पहले ही बीमारी से उठी हो-ठंड खा जायेगी और गरम-गरम प्याला-ओठो से लग गया था...
ये लो चाय पी लो...
यों-नहीं-यो...
प्याले और होठों के बीच एक फूलों का सागर बिछ गया था-पूरा का पूरा...।
पर क्षणभर बाद ही-बेचैन-लहर-सी में उछल कर अलग हो गई थी।
सागर-पीछे सरक गया था।
आँखों में उठी वह गहरी-प्रश्न भरी स्मृति-आज भी मेरे स्पन्दन में बसी है। साथ ही आज तलक में प्रयत्न करती रही हूँ कि उस स्पन्दन में बसी स्मृति की पवित्रता पर लगे-प्रश्न-चिन्हों को मिटा सकूँ...।
पर नहीं मिटा पाई प्राण...आज तलक वह नमी नहीं मिली जो स्लेट पर पड़े उन फरेब भरे अक्षरों को और उनकी कुत्रिमता को मिटा सके...।
एकाध बार और मिलना हुआ था। स्पर्श को ही प्रेम की संज्ञा दे सकती थी...उसके आगे तो देहरी बदल जाती है और देह शुरू हो जाती है। देह-प्राण में प्रेम के अर्थ बदल जाते है।
मेरे उस सपने की आँखों की स्मिति में केवल देह-पुराण था...वह भी मेरे प्रेम की देहरी से प्रारंभ नहीं होता था। वह किसी भी देहरी से शुरू होकर किसी भी देह पर खत्म हो सकता था। जिस दिन मुझ पर उसकी यह वास्तविकता प्रगट हुई कि उसने अब तक कितने ही देह-पुराण लिख डाले है, उसी दिन मेरे कंधे पर-मेरे हाथों पर उस स्पर्श की प्रतीती जख्मों का रूप ले बैठी। उसके बाद ही पुरुष मेरे लिये परिहार्य जैसी वस्तु हो गया। उसके बाद-उसके साथ में प्रेम के एकांगीपन को नहीं जोड़ सकी। पुरुष उस गुलाब की तरह है जो अपनी ओर बहुत जल्दी खींच लेता है लेकिन पास आते ही-चारों तरफ से अपने कांटों में दबोच लेता है। देह के समक्ष एक दिन सब हारते है-पर हारना कलंकित होना नहीं है। यह भाग्य और पुरुषार्थ की परीक्षा है। स्पर्श और प्रेम के बीच की दूरी ही प्रेम है। स्पर्श समर्पण नहीं है-केवल शाश्वत-पराकाष्ठा है।
वह कच्ची उम्र का एक हादसा था प्राण...जिसके चिन्ह आजतलक नहीं मिटे है।
तुम्हारी आज इन चार पंक्तियों ने-कहीं उन घावों पर मरहम लगा दी है।
संबोधन अनिवार्य नहीं है-तुम्हारा पत्र और उसके भाव अनिवार्य है-लिखा है :
तुम एक शक्ति हो-शिवा हो-यहाँ युद्ध में जब भी कमजोर पड़ता हूँ-आपकी कल्पना कर लेता हूँ। आपकी आँखों का अव्यक्त
भाव मुझे केवल मनुष्य बनने की प्रेरणा देता है। बस मेरी शक्ति बनी रहना। कुछ है तो मुझे आप के सामने अशक्त करता रहा है...शायद आपकी महत्ती वैयक्तिता...जो आज मेरी शक्ति बन गया है।
टूपस निकलने को हैं...सोचा निकलने से पहले थोड़ी-सी एकाग्र-भक्ति कर लूँ...। शेष फिर...। शहनाज का ध्यान रखिये...।
अनुकम्पा प्रार्थी
आप का दिलावर
तुम्हारी इन पंक्तियों ने मुझे सार्थक कर दिया है प्राण...। मन भर आया है-तुम्हारे इस औदार्य से...।
- तुम्हारी अनाम...
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