श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 61
राज प्रिय...।
तुम्हारे कल के पत्र ने बहुत कुछ कह दिया है। प्यार केवल तराशता है, संगतराश की छैनी-सा धीरे-धीरे आप के जीवन से अन्यथा उभार-अन्यथा मिट्टी झाड़ता है। यों काम, माया, मोह और अपेक्षाओं की प्रेम के केन्द्र-बिदु में कोई आवश्यकता नहीं होती-ये सब पार में स्वतः विलीन हो जाते है। मनुष्य को प्रेम-सब राग-द्वेषों से मुक्त कर देता है। जब किसी के प्रति-पवित्र आसक्ति होती है तब दूसरी ओर से अपेक्षा या आशा का अस्तित्व स्वयं तिरोहित हो जाता है। पावन-प्रेम की शर्त पाना नहीं खोना है। निर्लिप्त होना या मुक्त होना है। प्रेम मुक्ति देता है, श्रद्धा देता है-स्वार्थ नहीं। मीरा ने बिना आशा, आकांक्षा या अपेक्षा के-मनसा-वाचा-कर्मणा से केवल प्रेम किया। इसीलिये-हे मेरे ईश्वर! तुम साक्षी हो-प्राण! मुझे कभी तुम्हारी ओर से प्रेम की स्वीकृति या प्रत्याशा नहीं रही। जब तुम शहनाज से प्यार करते हो, मेरा प्यार पूर्ण हो जाता है। जब तुम उसे स्पर्श करते हो-मुझे मेरी स्वीकृति मिल जाती है। जब कोई भी पुरुष-किसी पर-अपना निःश्छल प्यार निःस्वार्थ होकर न्योछावर करता है-मुझे मेरा गंतव्य या विश्वास टुकड़ों में वापिस मिल जाता है। जानते हो मैं एक अनवरत काल से-एक निःश्छल-प्रेम की खोज में थी-जिसे न जाने कभी किसी ने पाया भी कि नहीं...हां लगता है 'सोनी' ने पाया, हीर ने पाया...। पर शायद वह इस परीक्षा से पहले ही मुक्त हो गये। प्यार सदैव त्याग माँगता है...तृप्ति देता है और निःस्वार्थ हो तो-मुक्ति देता है-वह मुक्ति बुद्ध की मुक्ति से भी कही ऊपर होती है। मैं तुम्हारे अन्यतम प्रेम की काली पट्टी आँखों पर बाँधकर-सांसारिक नियमों की लगी बाढ़ को फाँद कर-किसी संस्था का अपमान करूँगी तो मेरा प्रेम एकांगी और स्वार्थी होगा। प्यार ईश्वर के प्रति वृद्धा जैसा है। जब ईश्वर के प्रति कोई समर्पण करता है तो किसी प्रकार की प्रत्याशा नहीं रखी जाती। ईश्वर साक्षात्कार रूप में प्रकट होकर हमे स्पर्श करे, हमें अपनी सुरक्षित बाहों में भर ले-ऐसा हम कभी नहीं सोचते। हम तो केवल समर्पित होते है-जिसमें हमें उसका अस्तित्व भासता है-जो हमें चारों ओर से बांध लेता है और वही हमारी शक्ति बन जाता है-हमारी प्रेरणा बनकर हमें जिदंगी में आगे-से-आगे ठेलता चला जाता है। इसी तरह तुम्हारे पत्र का आवलंबन-उसी तरह का भाव देता है। मेरी एकांगी-आसक्ति को जैसे दूसरा छोर मिल गया है। किनारे पर जैसे नाव बंध गई है। अब वह पानी में लावारिस नहीं तैरेगी। उसकी पतवार-किसी के हाथ में रहेगी। इससे बड़ा प्रेम प्रतिदान क्या हो सकता है।
युद्ध में तुम शक्ति-वान बनो और विजयी हो...। पढ़ती रहती हूँ-युद्ध अपने भीषण-रूप में है। क्या तुम अपनी अम्मी-अब्बू से मिल पाये।
मैं प्रार्थना करूँगी-
- तुम्हारी
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