श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 62
प्राण...।
अभी भी इस तिलस्म से उभरी नहीं हूँ। सोच रही हूँ कैसे कोई भ्रांति हम पाल लेते है और कैसे एक दिन वह स्वयं ही टूटकर पारदर्शी होकर-अपने सत्य के दूसरे पहलू से हमे परिचित करवा देती है। दुनियां में सब क्षणांश है। तुम्हारी कुछ ही पंक्तियों ने-दुनियां भर के काँटों को निगलकर उन्हें केवल कोमल-गात-सा सुरभित कर दिया है। न जाने-कैसे-कैसे अन्याय होते रहे मुझसे-इसी भ्रांति के तहत...। पुरुष की कोमलता को भी कठोरता ही मानती रहीं हूँ। कहीं-किसी ने तो मुझे अभिशब्त भी किया-तुझे भगवान प्रेम के लिये-उम्रभर वृतिष रखे, तड़पाये, जो अक्षरशः उम्रभर भोगा है। सच में ही वरदान और अभिशाप में शक्ति होती है शायद! तुमने मुझ पर बड़ा उपकार किया है-आभारी है। मन के किसी कठोर अंश को तुमने केवल अपने कुछ शब्दों को शक्ति से कोमल कर दिया है।
आज समझ आ रहा है कि पुरुष देह है तो स्त्री उसकी आत्मा। केवल इस द्वेय को पहचानने का गणित गलत रहा है। न स्त्रीत्व को पुरुषों में खोजा जा सकता है, न पुरुषत्व को स्त्री में। जब इसी विरोधाभास की खोज हम शुरू कर देते है तभी आधारभूत सत्य से दूर चले जाते है। इसी सत्य को पाना ही साधना होगी...सच्ची साधना-और यही जीवन को समझने की कुँजी...। तुम्हारे पत्र ने कहीं मुझे सत्य के निकट लाकर खड़ा कर दिया है। हम उम्रभर बाहरी-कलेवर की चकाचौंध से चुंधियाये रहते हैं और उसके अन्तरतम में झाँकने की हमारी दृष्टि को जैसे मोतियाबिंद लग जाता हैं।
तुमने मुझे क्या से क्या बना दिया है प्राण...। अन्यथा-जीवन की दुरभि-संधियों ने तो मेरी मानवता को भी ताक पर रख दिया था। जिस के अव्यक्त मोह-ने मुझे अपनी जमीन से बांध रखा है, संघर्षों के बीच कहीं तप्ते सूरज की गरमी को अपनी छाया से शीतल बना दिया है...वह भी तो एक पुरुष ही है...यह मैं कैसे भूल गई...।
लगता है आज तलक किसी मृग-तृष्णा की तरह मेरी भटकन-अपनी ही सुगंध को खगोलती रही-जंगल दर जंगल। पर पहचान नहीं पाई क्योंकि अपनी और नजर झुकाकर एक बार भी नहीं देखा...। सत्य का स्वरूप-अपने ही आंगन में अठखेलियाँ करता रहा-पर जैसे आँखों से ओझल रहा...।
चलो सवेरा हो गया है और दरीचौ से-थपथपा कर सूर्य की किरणें अंदर आने को धकमका रही है। इस ज्योति को शतशत प्रणाम...।
शहनाज-मेरी दृष्टि में है-सदैव...शहनाज में क्योंकि तुम हो-इसीलिये तो तुम पास हो...।
आर्शीवचन-
- तुम्हारी
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