गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला भले का फल भलागीताप्रेस
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प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।
चौथा परिच्छेद
कौशाम्बीमें पाण्डु जौहरीका विहार तैयार हो चुका है। उसमें सैकड़ों विद्वान् और
दयामूर्ति श्रमण निवास करते हैं। अल्प समयमें ही इस विहारकी ख्याति दूर-दूरतक
फैल गयी। दूर रहनेवाले धर्म-पिपासु लोग भी वहाँ जाकर उपदेशामृतका पान करके अपनी
तृष्णाको शान्त करने लगे। पाण्डु जौहरी भी एक सुप्रसिद्ध जौहरी बन गये और उनकी यशोगाथा दूर-दूरतक सुनायी देने लगी।
कौशाम्बीके समीप ही एक राजाकी राजधानी थी। एक दिन राजाने अपने कोषाध्यक्षको पास बुलाकर आदेश दिया कि 'मुझे एक ऐसा सोनेका मुकुट बनवाना है, जैसा इस संसारमें कहीं भी न देखा गया हो। इस मुकुटमें बहुमूल्य रत्न जड़े हों-ऐसी मेरी इच्छा है। पाण्डु जौहरीके सिवा इतना बड़ा काम कोई भी दूसरा नहीं कर सकता। इसलिये शीघ्र ही पाण्डु जौहरीको ऐसा मुकुट बनवा देनेके लिये कहलवा दो।' राजाके आदेशानुसार कोषाध्यक्षने पाण्डु जौहरीको सूचित कर दिया।
निश्चित समयपर मुकुट तैयार हो गया। इसके अतिरिक्त भी जौहरीने अपनी सारी पूँजी लगाकर हीरे, माणिक और सोने चाँदीके बहुत-से आभूषण तथा अन्यान्य चीजोंके नमूने बनवाये। ये सभी चीजें अपने साथ लेकर वे राजधानीकी ओर निकल पड़े। पंद्रह-बीस बलवान् रक्षक अपने साथ ले लिये और बड़ी खुशी तथा सावधानीके साथ आगे बढ़ने लगे। उन्हें विश्वास था कि उनकी सारी चीजें राज्यमें बिक जायेंगी और अच्छी कमाई होगी एवं कीर्ति बढ़ेगी। किंतु जब वे एक घने जंगलमेंसे गुजर रहे थे, तब उन्हें डाकुओंका एक दल मिला। इस दलमें पचाससाठ डाकू थे। उन डाकुओंने जौहरीको लूट लिया। जौहरीके साथ आये हुए रक्षकोंने बहादुरीके साथ सामना किया। पर आखिर बहुसंख्यक डाकुओंकी जीत हुई और वे जौहरीकी तमाम चीजें लेकर चम्पत हो गये !
सब समाप्त। एक क्षण पहलेके लक्षाधिपति जौहरी बिलकुल कंगाल स्थितिमें आ गये। उनकी सारी आशाएँ धूलमें मिल गयीं। वे कहींके भी न रहे। अब उन्हें अपने पिछले पापोंके लिये बड़ा पश्चाताप हो रहा था। जवानीमें किसका कितना बुरा किया था-सब सामने आ गया। जो बोया था, वही फल गया। उनकी आँखोंके आगेका पद दूर हो गया। अभिप्राय, जितना इस समय समझमें आ रहा था, वैसा पहले कभी नहीं आया था। अब उनका अन्त:करण निर्मल हो गया। उनके हृदयमें दयाका स्रोत उमड़ने लगा। पश्चातापकी अग्निसे मानस पवित्र हो गया।
पाण्डुको आज अपनी निर्धन परिस्थितिका कोई दुःख नहीं हो रहा है, दु:ख है तो केवल इतना ही है कि धनके द्वारा जो दूसरोंकी भलाई कर सकते थे और श्रमणोंकी सेवा करके उनके द्वारा धर्म-प्रचारका जो कार्य हो रहा था, उसमें रुकावट आ गयी।
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