गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला भले का फल भलागीताप्रेस
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प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।
पाँचवाँ परिच्छेद
कौशाम्बी नगरीके पास एक जंगल है। इसी जंगलमें राक्षसी डाकुओंने बेचारे पाण्डुको
लूट लिया था। उसी रास्तेसे आज एक बौद्ध साधु जा रहे थे। वे तो अपने ही
विचारोंमें मस्त थे। हाथोंमें एक कमण्डलु और एक छोटी-सी गठरी थी, जिसमें कुछ
हस्तलिखित पुस्तकें थीं। गठरीके ऊपर एक बहुमूल्य वस्त्र बँधा था। किसी
श्रद्धालुने ग्रन्थमहिमासे आकर्षित होकर पूज्यभावसे गठरी बाँधनेके लिये यह
कपड़ा दिया हो, ऐसा लगता था। यही बहुमूल्य वस्त्र साधुके लिये विपत्तिका कारण
बन गया। डाकुओंने दूरसे ही इस गठरीको देखा और बहुमूल्य वस्त्रमें अवश्य कोई
कीमती चीजें छिपी होंगी-यों समझकर वे उस साधुपर टूट पड़े। जब उन्होंने गठरी
खोलकर देखी और उसमें केवल कुछ कागज ही निकले, तब तो उनके क्रोधका पारा और भी
चढ़ गया। देखकर वे सभी आगबबूले हो उठे। उन्होंने मिलकर साधुको घूंसोंसे
मार-मारकर गिरा दिया और यों अपनी नीचताका प्रदर्शन करके चले गये।साधु अत्यन्त पीड़ासे कातर था। उस रातको वहाँसे आगे नहीं बढ़ सका। सुबह होनेपर बड़ी कठिनतासे उसने आगे बढ़ने का प्रयत्न किया। कुछ ही आगे बढ़ा होगा कि उसे दी। साधु धीरे-धीरे वहाँ जा पहुँचा। पहुँचते ही देखा कि पिछली रातके जिस डाकुओंके दलने उसे लूटा-मारा था, उसी दलके लोग आपसमें लड़ रहे थे। उसमेंसे एक डाकू बड़ा बलवान् था। जैसे शिकारी कुत्तोंसे घिरा हुआ सिंह गुस्सेमें आकर उनपर टूट पड़ता है, वैसे ही वह बलवान् डाकू अन्य सब डाकुओंको मार रहा था। किंतु वह अकेला था, जबकि विरोधियोंकी संख्या अधिक थी। दस-बारह आदमियोंकी उसने जमीनपर गिरा दिया, किंतु आखिर वह भी घायल होकर जमीनपर गिर पड़ा। उसके शरीरपर बहुत चोटें थीं। उसे वहीं छोड़कर जीवित डाकू भाग गये।
श्रमणने आकर देखा तो दस-पंद्रह लाशें पड़ी थीं। इनमेंसे केवल एक वही बहादुर डाकू अपने जीवनकी आखिरी साँस ले रहा था। साधुका हृदय भर आया। इस निरर्थक हत्याकाण्डसे उसे बड़ा दु:ख हुआ। करीब ही एक निर्मल पानीका झरना बह रहा था। उसमेंसे अपने कमण्डलुमें ताजा जल भरकर साधु ले किया। डाकूकी आँखें खुलीं और वह बड़बड़ाने लगा-'साले बेईमान कुत्ते कहाँ भाग गये। सैकड़ों बार मैंने अपनी जान जोखिममें डालकर उन लोगोंको बचाया है और यदि मैं न होता तो कभीका शिकारियोंने उन कमजोर कुत्तोंको मौतके घाट उतार दिया होता। इसका उन्हें कहाँ भान है? क्या वे सब कुछ भूल गये?'
श्रमण-भाई! अब तुम अपने उस पापमय जीवनके साथियोंकी याद न करो। अब तुम केवल अपने आत्माका ही विचार करो और जीवनके अन्तको सुधार ली। लो, थोड़ा-सा पानी पी लो और मुझे देखने दो, तुम्हें कहाँ-कहाँ चोट लगी है। हो सके तो मैं कुछ उपाय करूं और बचना हो तो तुम बच जाओ।
डाकू शान्त हो गया। श्रमणने उसके घाव पानीसे धो डाले घावपर लगा दिया। इससे डाकूको बड़ा आराम मिला। उसे नींद सी आ गयी।
जब वह जगा तो उसे बहुत आराम मालूम हुआ। उसने श्रमणको अपने पास देखा। उसके हृदयका परिवर्तन होने लगा।
'दयामय! अबतक मैंने सब बुरे-ही-बुरे काम किये हैं। कभी किसीका कुछ भी भला किया ही नहीं। अपनी बुरी वासनाओंके जालमें मैं स्वयं ही फँस रहा हूँ। इसमेंसे निकल सकूं, ऐसा नहीं लगता। मैं तो नरकका ही अधिकारी हूँ। मोक्ष पानेयोग्य ही न रहा।'
श्रमण-हाँ भाई! तुम्हारा कहना सत्य है। तुम्हारे अपने किये हुए कर्मोंका फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। जो गड्ढा खोदता है वही गिरता है। इसका कोई इलाज नहीं है। फिर भी निराश मत होओ। अब ऐसे सुकर्मरूपी बीज बोओ कि जिससे तुम्हें बुरे फल न भोगने पड़े। पश्चाताप करनेका समय ही न आये। ज्यों-ज्यों दुष्टताकी मात्रा तुम्हारे हृदयसे कम होती जायगी, त्योंही-त्यों शरीर-सम्बन्धी ममत्वबुद्धि भी कम होती जायगी और परिणामस्वरूप विषय–लालसा भी नष्ट हो जायगी। इस सम्बन्धका एक आख्यान है, वह मैं तुम्हें सुना रहा हूँ, उसे सुनने पर तुम्हें पता चलेगा कि दूसरोंकी भलाई करनेमें ही अपनी भलाई है। दूसरे शब्दोंमें कहें तो, मनुष्यके अपने ही कर्म अपने तथा दूसरोंका सुखका मूल है।
"क्रदन्त नामका एक जबरदस्त डाकू था। वह अपने पापोंका प्रायश्चित किये बिना ही मर गया, जिसके कारण नरकमें उसे नारकी योनि प्राप्त हुई। बहुत कल्पोंतक उसे अपने कर्मोंका फल वहाँ भोगना पड़ा। फिर भी उसका कोई अन्त नहीं दिखायी दिया। इसी बीच भगवान् बुद्धने इस पृथ्वीपर अवतार लिया। बुद्धभगवान्के पुण्यकी एक किरण नरक में भी जा पहुँची, जिसके फलस्वरूप नारकी लोगोंको अपना उद्धार शीघ्र ही होनेवाला है, ऐसा लगा। उस प्रकाशको देखकर क्रदन्त जोरसे चिल्ला उठा 'हे भगवन्! मुझपर दया करो, कृपा करो! मैं यहाँ अवर्णनीय दु:खोंसे पीड़ित हूँ। मुझे इस संकटसे छुड़ाओ। प्रभो! अब मैं सदा सत्यके मार्गपर ही चलूंगा। मुझे मुक्त करो, प्रभो! मुझे मुक्त करो।'
"यह तो प्रकृतिका नियम है कि बुरे कर्म प्राय: मनुष्यकी विनाशकी ओर ही ले जाते हैं। बुरे कर्म सृष्टि-नियमके विरुद्ध हैं, अस्वाभाविक हैं। इस कारण उनकी आयु-जिंदगी कम होती है, जबकि सत्कर्म दीर्घजीवी है; क्योंकि यह स्वाभाविक है। वह आशाके प्रति आगे बढ़ता है। पापकर्मोंका अन्त है, पुण्यकर्मोंका अन्त नहीं है।
"जिस तरह बाजरेके एक दाने बीजसे एक पौधेमें हजारों दाने लग जाते हैं और जैसे अनेक पौधे मिलकर खेतको लहलहा देते हैं, वैसे ही थोड़े-से भी सत्-कर्मसे हजारोंकी संख्यामें सत्-फल प्राप्त होते हैं और उनकी परम्परासे सृष्टि छा जाती है। दूसरे शब्दोंमें कहा जाय तो मानव भला कार्य करते-करते जन्म-जन्ममें इतनी दृढ़ता प्राप्त करता जाता है कि अन्तमें वह अनन्तवीर्य बुद्ध बनकर निर्वाणपदका भागी बनता है।"
"क्रदन्तका आक्रन्दन सुनकर दयासागर बुद्धभगवान् बोले-'तुमने कभी किसी भी प्राणीपर थोड़ी-सी भी दया की है? यदि की होगी तो वही दया तुरंत दौड़ती हुई आयेगी और तुम्हें उन दु:खोंसे छुड़ा देगी। किंतु जबतक तुम्हारे मनसे देहका ममत्व, क्रोध, मान, कपट, ईष्र्या और लोभका नाश न होगा, तबतक उन दु:खोंसे तुम्हें मुक्ति नहीं मिल सकती।' क्रदन्तका मूल स्वभाव बड़ा क्रूर था। उसे अपने उद्धारका मार्ग कहीं भी दिखायी न पड़ा। पर करुणानिधि बुद्धभगवान् तो सर्वज्ञ थे। वे उसके पूर्वजन्मके तमाम कर्मोंको एकके बाद एक देखने लगे। देखा तो एक बार उसने थोड़ी-सी दया दिखायी थी। क्रदन्त अपने पूर्वजन्ममें एक दिन एक जंगलसे गुजर रहा था। उसके आगे एक मकड़ा चला जा रहा था। उसके मनमें आयी कि उस मकड़ेको पैरोंतले कुचलकर आगे निकल जाऊँ। किंतु तुरंत ही यह विचार आया कि 'नहीं, नहीं, यह बेचारा निरपराध है। ऐसा नहीं करना चाहिये।' और इस विचारके फलस्वरूप वह यह पाप करनेसे बच गया और मकड़ेके प्राणोंकी रक्षा हुई। बस, भगवान् बुद्धने उसके उस छोटे-से सत्कार्यको ध्यानमें लेकर क्रदन्तका उद्धार करनेका विचार किया। उन्होंने मकड़ेको जालके एक तन्तुके साथ नरकमें भेजा। उसने क्रदन्तसे जाकर कहा कि 'लो इस तन्तुको पकड़ लो और इसकी मददसे तुम ऊपर चढ़ जाओ'-इतना कहकर मकड़ा तो अदृश्य हो गया। उसके बाद क्रदन्त बेचारा बड़ी कठिनतासे तन्तुको पकड़कर ऊपर चढ़ने लगा। आरम्भमें तो तन्तु मजबूत मालूम दिया, किंतु बादमें धीरे-धीरे तन्तु टूटनेकी तैयारी करने लगा; क्योंकि नरकके अन्य दु:खी जीव भी उसी तन्तुको पकड़कर ऊपर चढ़ने लगे थे। क्रदन्त बहुत घबड़ा गया। उसे ऐसा लगा, जैसे वह तन्तु लम्बा होता जा रहा है और वजनके कारण पतला बना जाता है। मेरा वजन तो वह झेल ही सकता है। फिर ऐसा क्यों हो रहा है ? इस तरह विचार करके क्रदन्तने जो नीचेकी ओर देखा तो असंख्य नारकी जीव उस तन्तुको पकड़कर ऊपर चढ़ते हुए दिखायी दिये। अब उसे लगा कि इतने सारे जीवोंके वजनसे तो यह तन्तु अवश्य टूट जायगा। वह घबड़ा गया और एकाएक बोल उठा-'यह तार तो मेरा है, तुमलोग इसे छोड़ दो।'-ये शब्द उसके मुँहसे निकलते ही क्रदन्त पुन: नरकमें जा गिरा।
"क्रदन्तके देहका ममत्व और अहंभाव अभी छूटा नहीं था। वह केवल अपनेको ही अपना समझता था। सत्यका वास्तविक ज्ञान उसे नहीं था। सिद्धि प्राप्त करानेवाली अन्तःकरणकी सूक्ष्म शक्तिसे वह अज्ञात था। वह शक्ति देखनेमें तो जालके तन्तु-सी पतली-पतली होती है, किंतु वह इतनी मजबूत होती है कि हजारों मनुष्योंका भार उठा सकती है। इतना ही नहीं, बल्कि जो उसकी सहायता करनेके उद्देश्यसे आगे बढ़ता है, उसे कम परिश्रम करना पड़ता है। किंतु जब उस शक्तिका संग्राहक यह सोचने लगता है कि 'वह शक्ति तो मेरी ही है, सत्य मार्गपर चलनेका फल केवल अकेले मुझे ही मिलना चाहिये, उसमें अन्य किसीका हक-हिस्सा न होना चाहिये', तब उसके अक्षय सुखका तन्तु टूट जाता है और तुरंत ही वह स्वार्थके गहरे कुएँमें जा गिरता है। स्वार्थीपन नरक है और नि:स्वाथीपन स्वर्ग है। हमारे जीवनमें जो अहंता और ममताके भाव पाये जाते हैं, वे ही सच्चे नरक हैं।"
श्रमणकी कथा सुनकर मृत्युके मुखमें पड़ा हुआ डाकू बोल उठा-'महाराज! मैं उस मकड़ेके जालके तन्तुको पकड़ूँगा और नरककी अगाध गहराईमेंसे अपनी शक्तिका प्रयोग करके बाहर निकल जाऊँगा।'
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