गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रेमयोग का तत्व प्रेमयोग का तत्वजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत पुस्तक में 23 प्रेमसम्बन्धी लेखों का संग्रह है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विनम्र निवेदन
जबसे मेरे ज्ञानयोगसम्बन्धी लेखों का संग्रह ‘ज्ञानयोगका
तत्व’
प्रकाशित हुआ है, तभी से कुछ लोगों का यह आग्रह है कि
प्रेमसंबन्धी
लेखोंका भी एक अलग संग्रह प्रकाशित किया जाय, जिससे प्रेमपथ के
पथिकों को एकत्र ही प्रेम संबन्धी पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो सके।
इसलिये इस पुस्तक में प्रेम सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो सके। इसलिये इस पुस्तक में प्रेम सम्बन्धी 23 लेखों का संग्रह किया गया है। ये सभी लेख पहले ‘कल्याण’ में और बाद में ‘तत्व-चिन्तामणि’ आदि पुस्तकों में भी प्रकाशित हो चुके हैं। इन लेखों में प्रेम के वास्तविक स्वरूप और उसकी प्राप्ति के विविध साधनों का वर्णन तो है ही, साथ ही श्रद्धा और प्रेम, प्रेम और शरणागति, प्रेम और समता, भगवत्प्रेम और भगवत्-सुहृदताका तत्त्व भी भलीभाँति समझाया गया है।
एवं भगवान के प्रति महाराज दशरथ, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सीता और भक्त सुतीक्ष्ण आदि का तथा श्रीरुक्मिणीजी, श्रीराधाजी, द्रौपदी, मीराबाई और गोपियों का एवं भक्त प्रवीर आदि भगवत्प्रेमीजनोंका, जो अलौकिक आदर्श और अनुकरणीय प्रेमभाव था, उसका भी विवेचन-पूर्वक स्पष्टतया दिग्दर्शन कराया गया है।
यद्यपि इन लेखों में प्रेम के विषय की पुनरुक्ति दिखायी देती है, किन्तु वह अनिवर्चनीय प्रेमतत्त्व साधनकी समझ में भलीभाँति आ जाय, इसलिए प्रेमके विषयको बार –बार सुन-पढ़कर समझ लेना अत्यन्त आवश्यक होता है; अतः इस पुनरुक्तिको दोष नहीं समझना चाहिये।
एवं को प्राप्त करने के इच्छुक साधना उचित समझें तो इन लेखों को पढ़ने और मनन करने की कृपा करें और तदनुसार अपने जीवन को विशुद्ध भगवत्प्रेममय बनाने का प्राणपर्यन्त प्रयत्न करें- यही मेरा उनसे विनम्र निवेदन है।
इसलिये इस पुस्तक में प्रेम सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो सके। इसलिये इस पुस्तक में प्रेम सम्बन्धी 23 लेखों का संग्रह किया गया है। ये सभी लेख पहले ‘कल्याण’ में और बाद में ‘तत्व-चिन्तामणि’ आदि पुस्तकों में भी प्रकाशित हो चुके हैं। इन लेखों में प्रेम के वास्तविक स्वरूप और उसकी प्राप्ति के विविध साधनों का वर्णन तो है ही, साथ ही श्रद्धा और प्रेम, प्रेम और शरणागति, प्रेम और समता, भगवत्प्रेम और भगवत्-सुहृदताका तत्त्व भी भलीभाँति समझाया गया है।
एवं भगवान के प्रति महाराज दशरथ, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सीता और भक्त सुतीक्ष्ण आदि का तथा श्रीरुक्मिणीजी, श्रीराधाजी, द्रौपदी, मीराबाई और गोपियों का एवं भक्त प्रवीर आदि भगवत्प्रेमीजनोंका, जो अलौकिक आदर्श और अनुकरणीय प्रेमभाव था, उसका भी विवेचन-पूर्वक स्पष्टतया दिग्दर्शन कराया गया है।
यद्यपि इन लेखों में प्रेम के विषय की पुनरुक्ति दिखायी देती है, किन्तु वह अनिवर्चनीय प्रेमतत्त्व साधनकी समझ में भलीभाँति आ जाय, इसलिए प्रेमके विषयको बार –बार सुन-पढ़कर समझ लेना अत्यन्त आवश्यक होता है; अतः इस पुनरुक्तिको दोष नहीं समझना चाहिये।
एवं को प्राप्त करने के इच्छुक साधना उचित समझें तो इन लेखों को पढ़ने और मनन करने की कृपा करें और तदनुसार अपने जीवन को विशुद्ध भगवत्प्रेममय बनाने का प्राणपर्यन्त प्रयत्न करें- यही मेरा उनसे विनम्र निवेदन है।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका
जयदयाल गोयन्दका
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