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गीता प्रेस, गोरखपुर >> स्त्रियों के लिए कर्तव्यशिक्षा

स्त्रियों के लिए कर्तव्यशिक्षा

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 969
आईएसबीएन :81-293-0138-5

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प्रस्तुत है स्त्रियों के लिए कर्तव्यशिक्षा....

Striyon Ke Liye Kartavya Shiksha a hindi book by Jaidayal Goyandaka - स्त्रियों के लिए उपयोगी कर्तव्य शिक्षा - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

भारतीय आर्य संस्कृति में स्त्रियों का स्थान बड़े ही महत्त्व का है। अर्थशास्त्रों ने स्त्रियों को जितना ऊँचा स्थान दिया है, उनकी मर्यादा का जितना विचार किया है, साथ ही उनके जीवन को संयम तथा सेवा से अनुप्राणित कर जितना पवित्रतम बनाने की चेष्टा की है, आदर्श माता, आदर्श भागिनी, आदर्श पत्नी, आदर्श सती, आदर्श त्यागमयी, आदर्श संयममयी, आदर्श सेवामयी, आदर्श बलिदानमयी, आदर्श वीरांग्ना, आदर्श लोकहितैषिणी, आदर्श राजनीतिनिपुणा, आदर्श कार्यकुशला, आदर्श गृहिणी और आदर्श पतिव्रता निर्माण करने की जितनी शिक्षा दी है, वह परम आदर्श है और जगत् के इतिहास में सर्वथा विलक्षण और अनुकरणीय है।

हमारी आर्य-संस्कृति में किस प्रकार की आदर्श महिलाएँ हुई हैं, स्त्रियों का क्या कर्तव्य है, उनका आचार-व्यवहार किस प्रकार होना चाहिये, इन सब बातों पर संक्षेप से इस ‘स्त्रियों के लिये कर्तव्यशिक्षा’ नामक पुस्तक में विचार किया गया है और बड़ी सुन्दरता के साथ उनके कर्तव्य का प्रतिपादन किया गया है।

इसमें आये हुए पतिव्रता शुभा, पतिव्रता सुकला, द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद, प्रतिव्रता शाण्डिली, पतिव्रता सावित्री, पतिव्रता दमयन्ती, सती लोपामुद्रा और माता कुन्ती आदि के इतिहास आर्य-स्त्री के पवित्रतम चरित्र, उसके त्याग-बलिदान, उसके उच्चातिउच्च जीवन का बड़े मधुर, साथ ही गगनभेदी गम्भीर स्वर में गौरव-गान कर रहे हैं।
आज भारत की स्त्री जहाँ एक ओर अज्ञान से मूर्च्छिता है, वहाँ दूसरी ओर भोगमयी सभ्यता और शिक्षा की नाशकारी मदिरा से उन्मत्ता है। दोनों ही दशाएँ घोर तमका आवरण विस्तार कर उसके पवित्रतम आदर्श को नष्ट कर रही हैं। इस अवस्था में उसे सात्त्विक प्रकाश प्राप्त हो और वह मूर्च्छा से जागकर तथा मदिरा के मद से छूटकर अपने पवित्र स्वरूप को सँभाले, इसकी बड़ी आवश्यकता है। यह पुस्तक अपने मधुर प्रकाश से इस तमका बहुत अंशों में विनाश करने में समर्थ होगी, ऐसी आशा है।

मैं अपनी सभी भारतीय बहिनों से निवेदन करता हूँ कि वे इस पुस्तक को पढ़कर ध्यान से मनन करें और इससे लाभ उठावें। सभी पवित्र तथा सुखी जीवन और सुखी गृहस्थी चलाने वाले भाइयों से भी निवेदन है कि वे इस पुस्तक को पढ़कर ध्यान से मनन करें और इससे लाभ उठावें। सभी पवित्र तथा सुखी जीवन और सुखी गृहस्थी चलाने वाले भाइयों से भी निवेदन है कि वे इस पुस्तक को स्वयं पढ़े और घर में माता, बहिन, पुत्री तथा पुत्र-वधुओं को भी पढावें।

विनयावनत

हनुमानप्रसाद पोद्दार



।।श्रीपरमात्मने नम:।।

स्त्रियों के लिए कर्तव्यशिक्षा


व्यवहार


प्रत्येक स्त्री को उचित है कि वह अपने नैहर और ससुराल में सबके साथ बहुत ही उत्तम व्यवहार करे। व्यवहार करते समय नीचे लिखी तीन बातों का खयाल रखने से व्यवहार शीघ्र ही बहुत उच्च कोटि का हो सकता है।
(1)    व्यवहार करते समय भगवान् को याद रखना चाहिये, जैसे गोपियाँ हर समय भगवान् को याद रखती हुई ही घर के सारे काम-काज किया करती थीं। श्रीमद्भागवत में लिखा है-

 या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
प्रेखेंखंनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठयो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयाना:।।

(10/44/15)

‘जो गौओं का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय बालकों के पालने में झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी देते समय, घरों में जल छिड़कते समय और झाड़ू देने आदि कर्मों को करते समय प्रेमपूर्ण चित्त से आँखों में आँसू भरकर गद्गद् वाणी से श्रीकृष्ण का गान किया करती हैं, इस प्रकार सदा श्रीकृष्ण में ही चित्त लगाये रखनेवाली ये व्रजवासिनी गोपरमणियाँ धन्य हैं।’
(2)    जिसके साथ व्यवहार किया जाय, अपना स्वार्थ छोड़कर उसके हित की दृष्टि से किया जाय।
(3)    दूसरों के सच्चे गुणों का तो वर्णन किया जाय, पर अवगुणों की चर्चा न की जाय।

इस प्रकार का आचरण करने से व्यवहार का भी सुधार होता है और सबके साथ प्रेम भी बढ़ता है। घर में जो अपने से बड़ी अवस्था वाले स्त्री-पुरुष हों, श्रद्धापूर्वक उनकी आज्ञा पालने की चेष्टा और सेवा करनी चाहिये। तथा उनके चरणों में नित्य नमस्कार करना चाहिये। स्त्री को पति के तो पैर छूकर प्रणाम करना चाहिये और पति के सिवा दूसरे पुरुष को हाथ जोड़कर दूर से भूमि में मस्तक लगाकर प्रणाम करना चाहिये। अपने समान वयवालों को आदर-सत्कारपूर्वक नि:स्वार्थ प्रेमभाव से सुख पहुँचाने की चेष्टा करनी चाहिये और अपने से जो छोटे हैं, उनका जिस प्रकार हित हो, इसका विशेष ध्यान रखते हुए वात्सल्यभाव से पालन करना चाहिये। बालकों के गुण स्वभाव और चरित्र अच्छे बनाने के लिये अपना उत्तम-से-उत्तम चरित्र उनके सामने रखना और उसी प्रकार की उन्हें शिक्षा देनी चाहिये। माता के उपदेश की अपेक्षा भी उसके आचरण का असर बालकों पर अधिक पड़ता है। बालकों के लिये प्रथम गुरु माता ही है। श्रीतुलसीदासजी की रामायण में देखिये, सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण के प्रति कैसा उत्तम उपदेश दिया है-

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही।।
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू।।
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।।
गुर पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।।
********************************
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम विमुख सुत तें हित जानी।।
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं।।
********************************
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।
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जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू।।

वाल्मीकीय रामायण में भी प्राय: इसी प्रकार कहा है-

रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छ तात यथासुखम्।।

(2/40/9)

‘बेटा ! तुम इच्छानुसार सुखपूर्वक वन में जाओ। श्रीराम को पिता दशरथ समझना, सीता को माता (मुझे) समझना और वन को अयोध्या समझना।’


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