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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आदर्श नारी सुशीला

आदर्श नारी सुशीला

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 970
आईएसबीएन :81-293-0431-7

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प्रस्तुत है आदर्श नारी सुशीला....

Aadarash Nari Sushila a hindi book by Jaidayal Goyandaka - आदर्श नारी सुशीला - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


ऊँ
श्रीपरमात्मने नमः


आदर्श नारी सुशीला
(1)



श्रीमद्भागवतगीता में मनुष्यों को आत्मकल्याणार्थ दैवी सम्पदा धारण करने के लिये कहा गया है  (16 । 5)।  अतः कल्याणकामी मनुष्यों को दैवी सम्पदा में  बतलाये हुए सद्गुण-सदाचारों को अमृत के समान समझकर उनका सेवन करना चाहिये। गीता में सोलहवें अध्याय के आरम्भ में ही तीन श्लोकों में भगवान ने सद्गुण-सदाचारों के साररूप दैवी सम्पदा के छब्बीस लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं-


अभयं  सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया  भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।



(1)    भय का सर्वथा अभाव, (2) अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, (3) तत्त्वज्ञाना के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और (4) सात्त्विक दान, (5) इन्द्रियों का दमन, (6) भगवान्, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं (7) शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, (8) स्वधर्मपालन के लिये कष्ट-सहन और (9) इन्द्रिओं के सहित अन्तः करण की सरलता, (10) मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार किसी को कष्ट न देना, (11) प्रिय और यथार्थ भाषण, (12) अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना (13) कर्मों में स्वार्थ का और कर्तापन के अभिमान का त्याग, (14) अन्तः करणकी उपरति चित्त की चञ्चलता का अभाव, (15) किसी की भी निन्दादि न करना, (16) सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, (17) इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, (18) कोमलता, (19) व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, (21) तेज (22) क्षमा, (23) धैर्य, (24) बाहर की शुद्धि एवं (25) किसी में भी शत्रुभाव का न होना और (26) अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव–ये सब हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।

प्रत्येक भाई बहन इन दैवी सम्पदा के छब्बीस लक्षणों को अपने में भलीभाँति धारण करने का कुछ तरीका जान सकें, इसके लिये यहाँ एक कहानी लिखी जाती है-
प्रयाग में एक ब्राह्मण रहते थे, उनका नाम था देवदत्त। वे बड़े ही विद्वान सरल स्वभाव, सदाचारी और ईश्वर भक्त थे। राज्य के अधिकारियों में भी उनका बड़ा सम्मान था। उनकी पत्नी का नाम था गौतमी। वह बड़ी ही सरल, सीधी, भोले स्वभाव की तथा अक्षरज्ञानरहित थी। उसे एक से सौ तक की गिनती  नहीं आती थी। उसके तीन पुत्र और एक कन्या थी। बड़े लड़के का नाम सोमदत्त बिचलेका रामदत्त और सबसे छोटे का मोहनलाल था। तीनों ही सुशिक्षित और सदाचारी थे। लड़की का नाम था रोहिणी। इन सभी के विवाह हो चुके थे। रोहणी के पति का देहान्त छोटी उम्र में ही हो गया था तथा उसके कोई संतान नहीं हुई, इसलिए वह नैहर में ही रहती थी।

लड़कों की पत्नियों के नाम क्रमशः रामदेवी, भगवानदेवी और सुशीला थे। इनमें से पहली दो स्त्रियां तो अनपढ़ और मूर्ख थीं, किंतु सुशीला बड़ी विदुषी थी; वह अपने नाम के अनुसार ही बड़ी शीलवती थी। वह अत्यन्त शान्तस्वभाव, सद्गुण-सदाचार सम्पन्न, ईश्वर भक्त और पतिव्रता थी। वह सभी कार्यों में चतुर और सुशिक्षिता थी। वह कटाई-सिलाई करने, कसीदे काढ़ने कपड़ों पर बेल-बूटे बनाने, गंजी-मोजे बनाने, सुन्दर लिपि लिखने तथा चित्रकारी शिल्प-विद्या में भी बड़ी निपुण थी। उसमें त्याग, सेवाभाव, धैर्य और कार्यकुशलता आदि गुण विशेषरूप थे। जब से सुशीला घर में आयी तबसे घर में मानो सुव्यवस्था आ गयी। उसने सभी को निःस्वार्थ सेवा से मुग्ध करके अपने अनकूल बना लिया। वह सभी के साथ बड़े प्रेम से  यथायोग्य बर्ताव किया करती। बड़ों का आदर करती, अपने से छोटों पर दया और स्नेह रखती तथा समान वयकी स्त्रियों से मैत्री करती थी। घरवाले तो सब उसके काम-काज और शील-स्वभाव से संतुष्ट रहते ही थे, मुहल्ले के अन्य स्त्री-पुरुष भी उसके गुणों से प्रभावित होकर सदा उसकी प्रशंसा किया करते थे।

सुशीला यद्यपि छोटी उम्रकी और नववधू थी, पर उसके गुणों की इतनी ख्याति हो गयी थी कि दूर-दूर की स्त्रियाँ उससे सलाह और शिक्षा लेने आया करती थीं।

पण्डित देवदत्तजी नित्य नियमित रूप से संध्या, गायत्री पूजा-पाठ और जप-ध्यान किया करते। वे उपदेश, व्याख्यान और पण्डिताई से अपने घर की जीविका चलाते थे। उनके दोनों बड़े लड़के नगर में ही व्यापार-कार्य किया करते और जो कुछ उसमें प्राप्त होता, पिताजी को सौंप देते थे। छोटा लड़का मोहन लाल कालेज में पढ़ता था। घर में जो कुछ भी भोजन-खर्च लगता, उसके लिये पण्डितजी प्रतिमास अपनी पत्नी को कुछ रुपये दिया करते, वह अपने रसोइयों या नौकर के द्वारा बाजार से आवश्यक समान मंगवा लिया करतीं। गौतमी को अत्यन्त भोली समझकर रसोइया और नौकर दोनों ही बेईमानी और चोरी करते थे। जिस चीज का जो दाम बतला देते, वह उतना ही उन्हें दे देती। फिर रुपये पैसे भी वे ही दोनों गिनते; क्योंकि गौतमी को गिनती आती नहीं थी। ? वे रूपये माँगकर ले जाते और थोड़ी चीज लाकर ही कह देते कि रुपये सब पूरे हो गये। कभी मोटा-मोटा हिसाब बतला देते, कभी नहीं। बतलाते तो भी गौतमी तो कुछ समझती थी नहीं।

बुद्धिमती सुशीला को उनकी चोरी-चालाकी समझने में देर न लगी। उसने सोचा-सासजी का स्वभाव सरल और भोला होने के कारण ये घर का धन लूट रहे हैं। इसका कोई उपाय करना चाहिये। आखिर, उसने एक  दिन रसोइया से कहा - ‘महाराज जी ! आप बाजार से जो गेहूँ, चावल, दाल, साग, घी, तेल और  मसाला आदि सामान लाते हैं उसका पूरा हिसाब रखना चाहिये।’ रसोइया ने कड़ककर कहा- ‘वाह ! तू बड़ी हिसाब लेने वाली आयी ! हमारे यहाँ यों ही सारा काम विश्वास पर चलता है। तेरी सास, इतनी बड़ी हो  गयी, पर बेचारी ने कभी कोई हिसाब नहीं माँगा और तू कलकी आयी हुई हम घर के लोगों से हिसाब माँगने लगी। मालूम होता है, अब तू ही घर की मालकिन हो गयी है ?’

वधू के प्रति तिरस्कार-सूचक कड़े शब्द बगल के कमरे में बैठे हुए पण्डित देवदत्त जी के कानों में पड़े। उन्होंने स्वाभाविक ही बड़े धीरज के साथ रसोइये को सम्बोधन करके कहा- ‘भैया ! बहू तो ठीक ही कहती है, उसकी सीधी बात पर यों कड़कना और डाँटना तो उचित नहीं है। तुम जो हिसाब नहीं देते, यह अच्छी बात थोड़े ही है। रुपयों का हिसाब तो पाई-पाई का होना चाहिये। जो भी कुछ हो, अब तुम छोटी बहू को सब बतला दिया करो। यह लिखी पढ़ी है, सब हिसाब लिख लिया करेगी।’ उन्होंने फिर बहू से कहा- ‘बेटी  ! तुम्हारी सास तो भोली है, अब तुम्हीं घर का हिसाब रखा करो।’ सुशीला तो यह चाहती ही थी। वह लेन देन का पूरा हिसाब रखने लगी। रसोइया तथा नौकर दोनों से ही जो भी बाजार से सामान मँगाया जाता, वह उनसे पूछकर सारा हिसाब लिख लिया करती।

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