गीता प्रेस, गोरखपुर >> आनन्द कैसे मिले आनन्द कैसे मिलेजयदयाल गोयन्दका
|
2 पाठकों को प्रिय 406 पाठक हैं |
प्रस्तुत है आनन्द कैसे मिले...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
निवेदन
मनुष्ययोनि पाकर भी प्रायः मनुष्य भोग भोगने और धन संग्रह करने में ही लगे
हुए हैं। मनुष्य-जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इस बात को जनने की
बात तो दूर रही, लोग ठीक तरह से सुनना भी नहीं चाहते। ऐसा जीवन पशु-जीवन
के तुल्य नहीं, बल्कि उससे भी नीचा है। पशु तो प्रारब्ध कर्म भोगकर उत्थान
की और जा रहा है। मनुष्य नये-नये पाप करके आसुरीयोनि और नरकों की तैयारी
कर रहा है। इस दशापार भगवान् को तरस आता है कि मैंने मनुष्ययोनि मेरे पास
आने के लिये दी थी, परन्तु यह मनुष्य किधर जा रहा है। इसी बात को आसुरी
सम्पदा के प्रकरण में गीता 16/20 में ‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो
यान्त्यधमां गतिम्’ पद से भगवान् ने कहा है।
संत लोग भगवान् के भाव को समझकर ऐसा प्रयास करते हैं कि जीव किस तरह अपना कल्याण कर ले, यह महान् दु:खों से बच जाय। उनके भावी दु:खों का चित्र उनके हृदय के सामने आ जाता है। इसलिए उनके द्वारा स्वाभाविक ऐसी चेष्टाएँ होती हैं कि कोई भी बात स्वीकार करके यह मनुष्य अपने जीवन को उन्नत बना ले, किसी प्रकार भगवान् की ओर चल पड़ें तो यह महान् दु:खों से बचकर महान् आनन्द को प्राप्त कर ले।
गीता प्रेस के संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका ने अपनी छोटी अवस्था से ही इस प्रकार का प्रयास आरम्भ कर दिया था। वे छोटी आयु से ऋषिकेश जाने लग गये थे। वहाँ गंगाजी, वैराग्य की भूमि में भागवद्धयान में बहुत ही आनन्द आता था। उनके मन में आती कि जैसा थोड़ा-सा भगवद्विषयक आनन्द मुझे प्राप्त है, यह सभी-भाई बहिनों को भी प्राप्त हो जाय। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे सत्संग कराते एवं और सत्संगी भाई-बहिनों के लिये ठहरने एवं भोजनादि की व्यवस्था भी गीताभवन स्वर्गाश्रम में उन्होंने की।
गीताभवन की स्थापना से पूर्व प्राय: कानपुर वालों की कोठी में ठहरकर वटवृक्ष के नीचे सत्संग कराया करते थे। वट वृक्ष के सत्संग की महिमा ही अलग थी। गंगा जी की रेणुका, वन, गंगा, पहाड़ तथा ऐसे स्थान पर भगवत्-अधिकार प्राप्त महापुरुष के द्वारा सत्संग, यह दुर्लभ आयोजन था। वहाँ जो बातें कहीं जाती थीं, उन बातों को सत्संगी श्रद्धालु भाई लिख लेते थे। उन बातों में माता, बहिनों, बालकों तथा गृहस्थ भाइयों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही गयी हैं। सरल भाषा में सुगमता से जीवन में आनेवाली बातें तथा गृहस्थ में कलह न रहे, व्यापार कैसे शुद्ध बने, इस प्रकार के प्रवचन मिलते हैं। ऊँची-से-ऊँची ध्यान की, ज्ञान की, भक्ति की, वैराग्य की, तथा साधारण-से-साधारण बात बड़ों को प्रणाम करने की, घरों में रसोई में भेद न रखना तथा किसी को कठोर वचन न कहना आदि मिलती है। इन बातों को हम अपने जीवन में लाकर घर में शान्ति तथा अपना कल्याण सुगमता से कर सकते हैं।
इस पुस्तक के एक प्रवचन में श्रद्धेय श्रीगोयन्दकाजी ने यह प्रेरणा दी है कि इस प्रवचन का प्रचार करो। आज दम्भ का, स्वार्थ का, बोलबाला हो रहा है। उनके प्रवचन पढ़कर हम लोग दम्भी, ठग लोगों के चंगुल में नहीं फँसेंगे तथा हममें स्वार्थ त्याग की भावना जागेगी।
अत: पाठकों से हमारा विनम्र निवेदन है कि ऐसे महापुरुष की वाणी का हम अध्ययन करें और अपने बन्धु-मित्रगणों को पढ़ने की प्रेरणा दें। जिससे वे भी कल्याण की ओर अग्रसर हों।
संत लोग भगवान् के भाव को समझकर ऐसा प्रयास करते हैं कि जीव किस तरह अपना कल्याण कर ले, यह महान् दु:खों से बच जाय। उनके भावी दु:खों का चित्र उनके हृदय के सामने आ जाता है। इसलिए उनके द्वारा स्वाभाविक ऐसी चेष्टाएँ होती हैं कि कोई भी बात स्वीकार करके यह मनुष्य अपने जीवन को उन्नत बना ले, किसी प्रकार भगवान् की ओर चल पड़ें तो यह महान् दु:खों से बचकर महान् आनन्द को प्राप्त कर ले।
गीता प्रेस के संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका ने अपनी छोटी अवस्था से ही इस प्रकार का प्रयास आरम्भ कर दिया था। वे छोटी आयु से ऋषिकेश जाने लग गये थे। वहाँ गंगाजी, वैराग्य की भूमि में भागवद्धयान में बहुत ही आनन्द आता था। उनके मन में आती कि जैसा थोड़ा-सा भगवद्विषयक आनन्द मुझे प्राप्त है, यह सभी-भाई बहिनों को भी प्राप्त हो जाय। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे सत्संग कराते एवं और सत्संगी भाई-बहिनों के लिये ठहरने एवं भोजनादि की व्यवस्था भी गीताभवन स्वर्गाश्रम में उन्होंने की।
गीताभवन की स्थापना से पूर्व प्राय: कानपुर वालों की कोठी में ठहरकर वटवृक्ष के नीचे सत्संग कराया करते थे। वट वृक्ष के सत्संग की महिमा ही अलग थी। गंगा जी की रेणुका, वन, गंगा, पहाड़ तथा ऐसे स्थान पर भगवत्-अधिकार प्राप्त महापुरुष के द्वारा सत्संग, यह दुर्लभ आयोजन था। वहाँ जो बातें कहीं जाती थीं, उन बातों को सत्संगी श्रद्धालु भाई लिख लेते थे। उन बातों में माता, बहिनों, बालकों तथा गृहस्थ भाइयों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही गयी हैं। सरल भाषा में सुगमता से जीवन में आनेवाली बातें तथा गृहस्थ में कलह न रहे, व्यापार कैसे शुद्ध बने, इस प्रकार के प्रवचन मिलते हैं। ऊँची-से-ऊँची ध्यान की, ज्ञान की, भक्ति की, वैराग्य की, तथा साधारण-से-साधारण बात बड़ों को प्रणाम करने की, घरों में रसोई में भेद न रखना तथा किसी को कठोर वचन न कहना आदि मिलती है। इन बातों को हम अपने जीवन में लाकर घर में शान्ति तथा अपना कल्याण सुगमता से कर सकते हैं।
इस पुस्तक के एक प्रवचन में श्रद्धेय श्रीगोयन्दकाजी ने यह प्रेरणा दी है कि इस प्रवचन का प्रचार करो। आज दम्भ का, स्वार्थ का, बोलबाला हो रहा है। उनके प्रवचन पढ़कर हम लोग दम्भी, ठग लोगों के चंगुल में नहीं फँसेंगे तथा हममें स्वार्थ त्याग की भावना जागेगी।
अत: पाठकों से हमारा विनम्र निवेदन है कि ऐसे महापुरुष की वाणी का हम अध्ययन करें और अपने बन्धु-मित्रगणों को पढ़ने की प्रेरणा दें। जिससे वे भी कल्याण की ओर अग्रसर हों।
-प्रकाशक
।। श्रीहरि: ।।
चेतावनी
मनुष्य का समय बड़ा मूल्यवान् है, लाख रुपये देने पर एक क्षण भी नहीं मिल
सकता, हम समय का मूल्य जान जाये तो इसी समय में कई बार भगवान् की प्राप्ति
हो जाय। आज जितना साधन करें, दूसरे दिन उससे ज्यादा और तीसरे दिन उससे
ज्यादा करें। हमें यहाँ आये हुए एक महीना बीत गया और एक महीना बाकी रह गया
है, विचार करें। इस बचे हुए समय को खूब काम में लायें, एक ही दिन में
मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है, परन्तु हम लोगों को तो सारी आयु लगाकर भी
उद्धार करना कठिन हो रहा है। बहुत से भाई तो ऐसे हैं जो आत्मा के उद्धार
का नाम ही नहीं जानते। कुछ सुनते तो हैं, पर विश्वास नहीं करते। थोड़ा
विश्वास करके प्रयत्न करते हैं, उनमें भी कोई विरला ही भगवान् को प्राप्त
करता है। हम सुनते हैं, फिर भी अपनी आत्मा का उद्धार नहीं करते। इससे
बढ़कर मूर्खता क्या होगी। हरेक काम करते समय विचार कर लें कि इससे मुझे और
दुनिया को क्या लाभ है।
समय को मूल्यवान समझकर एक मिनट भी व्यर्थ काम में न बितायें। बहुत से भाई तो समय को भोग-आराम में ही बिताते हैं। कभी करुणा करके भगवान् यह शरीर देते हैं, परन्तु अभागा जीव इसे बरबाद कर देता है। किसी को एक मिनट भी खाली
-------------------------------------------
प्रवचन दिनांक 10-5-1941 दोपहर, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम।
नहीं रहना चाहिये। जैसे विद्यार्थी लोग अभ्यास करते हैं, परीक्षा पास करके बढ़ते ही जाते हैं, इसी प्रकार हमें बढ़ते ही जाना चाहिये। अपने समय को बहुत उन्नत करना चाहिये। हर समय खयाल रखे कि इस शरीर का भरोसा नहीं है। हम लोग अभी यहाँ बैठे हैं, पर कलका पता नहीं क्या होगा। पल भर का पता नहीं है। मनुष्य मर जाता है उसका कहीं पता नहीं चलता और सारे संबंध छूट जाते हैं। ऐसे क्षणिक संबंध में नहीं भूलना चाहिये। विचार करना चाहिये कि यह जो कंचन-सी काया है इस सबकी धूल हो जायेगी। मिट्टी की चीज है, सब मिट्टी में मिल जायेगी सारे पदार्थों को छोड़कर जाना है।
एक व्यापारी था, वह जहाज में माल भरकर दूसरे देश में ले जा रहा था। कप्तान ने कहा जहाज में छेद हो गया है, यह डूबने वाला है। तुम लोग जो माल चाहो डोंगियों में उतार दौ और उतर जाओ। जो माल उतार दोगे वह बच जायगा, उसकी घोषणा से समझदार लोग तो उतर पड़े और माल उतारने लगे। पहले स्वयं उतरो और कुटुम्ब को उतारो। फिर बाद में समय रहे तो माल उतार लो। समझदार ने कुटुम्ब और सब माल उतार लिया और अपने देश में पहुँच गया। उसने जैसी बुद्धिमानी की वैसी ही हमें भी करनी चाहिये।
शरीर जहाज है, आत्मा शरीर में रहने वाला व्यापारी है, शरीर से संबंध है वह संबंधी है और वस्तुओं में मेरापन है वह माल है, माल लदा है। महात्मा कप्तान है जो चेता रहा है कि जल्दी उतार लो। कोई तूफान आयेगा तो जहाज बहुत जल्दी डूबेगा, नहीं तो आहिस्ते-आहिस्ते डूबेगा। बड़ी-बड़ी बीमारी तूफान हैं। पहले तो खुद कूदे यानि अहंकार का नाश कर दे। डोंगियों पर माल लाद दे। ममता को लेकर जो चीजें हैं कि वह मेरी है, वह माल है।
नौकापर माल चढ़ाना यह है कि उन वस्तुओं का जो पात्र है उन्हें दे दे, मेरेपन का अभिमान मिटाकर और हलका हो जाय, हलका होने से जहाज जल्दी नहीं डूबेगा।
स्त्री, पुत्र, धन में जो अभिमान है वह सब डुबानेवाला है। जहाज पर समान रह गया, यानि मैं, मेरा का अभिमान शरीर में रह गया तो शरीर के साथ ही सब चीजें डूबेंगी। आप शरीर से कूदकर परमात्मा के स्वरूप में स्थिति हो जायँ।
समय को मूल्यवान समझकर एक मिनट भी व्यर्थ काम में न बितायें। बहुत से भाई तो समय को भोग-आराम में ही बिताते हैं। कभी करुणा करके भगवान् यह शरीर देते हैं, परन्तु अभागा जीव इसे बरबाद कर देता है। किसी को एक मिनट भी खाली
-------------------------------------------
प्रवचन दिनांक 10-5-1941 दोपहर, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम।
नहीं रहना चाहिये। जैसे विद्यार्थी लोग अभ्यास करते हैं, परीक्षा पास करके बढ़ते ही जाते हैं, इसी प्रकार हमें बढ़ते ही जाना चाहिये। अपने समय को बहुत उन्नत करना चाहिये। हर समय खयाल रखे कि इस शरीर का भरोसा नहीं है। हम लोग अभी यहाँ बैठे हैं, पर कलका पता नहीं क्या होगा। पल भर का पता नहीं है। मनुष्य मर जाता है उसका कहीं पता नहीं चलता और सारे संबंध छूट जाते हैं। ऐसे क्षणिक संबंध में नहीं भूलना चाहिये। विचार करना चाहिये कि यह जो कंचन-सी काया है इस सबकी धूल हो जायेगी। मिट्टी की चीज है, सब मिट्टी में मिल जायेगी सारे पदार्थों को छोड़कर जाना है।
एक व्यापारी था, वह जहाज में माल भरकर दूसरे देश में ले जा रहा था। कप्तान ने कहा जहाज में छेद हो गया है, यह डूबने वाला है। तुम लोग जो माल चाहो डोंगियों में उतार दौ और उतर जाओ। जो माल उतार दोगे वह बच जायगा, उसकी घोषणा से समझदार लोग तो उतर पड़े और माल उतारने लगे। पहले स्वयं उतरो और कुटुम्ब को उतारो। फिर बाद में समय रहे तो माल उतार लो। समझदार ने कुटुम्ब और सब माल उतार लिया और अपने देश में पहुँच गया। उसने जैसी बुद्धिमानी की वैसी ही हमें भी करनी चाहिये।
शरीर जहाज है, आत्मा शरीर में रहने वाला व्यापारी है, शरीर से संबंध है वह संबंधी है और वस्तुओं में मेरापन है वह माल है, माल लदा है। महात्मा कप्तान है जो चेता रहा है कि जल्दी उतार लो। कोई तूफान आयेगा तो जहाज बहुत जल्दी डूबेगा, नहीं तो आहिस्ते-आहिस्ते डूबेगा। बड़ी-बड़ी बीमारी तूफान हैं। पहले तो खुद कूदे यानि अहंकार का नाश कर दे। डोंगियों पर माल लाद दे। ममता को लेकर जो चीजें हैं कि वह मेरी है, वह माल है।
नौकापर माल चढ़ाना यह है कि उन वस्तुओं का जो पात्र है उन्हें दे दे, मेरेपन का अभिमान मिटाकर और हलका हो जाय, हलका होने से जहाज जल्दी नहीं डूबेगा।
स्त्री, पुत्र, धन में जो अभिमान है वह सब डुबानेवाला है। जहाज पर समान रह गया, यानि मैं, मेरा का अभिमान शरीर में रह गया तो शरीर के साथ ही सब चीजें डूबेंगी। आप शरीर से कूदकर परमात्मा के स्वरूप में स्थिति हो जायँ।
नौका में पानी बढ़े घर में बाढ़े दाम।
दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम।।
दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम।।
जो आदमी रुपया बढ़े, रुपया बढ़े करता है, वह तो दु:ख को बढ़ाना चाहता है।
रुपये से भोग प्रमाद ही होता है, रुपया प्राय: परमार्थ में नहीं लगाया
जाता, परमार्थ में लगाना शूरवीर का काम है। मन धोखा देता है, इसलिये उत्तम
यह है कि कमाये ही नहीं यदि कमाई हो जाय तो गरीबों को देवे।
आजकल तो सरकार अच्छी शिक्षा दे रही है कि दो हिस्सा तुम्हारा एक हमारा। पाप करोगे तुम भोगोगे। इतने पर भी हम लोगों को चेत नहीं होता तो कब होगा। कमर कस के अपने उद्धार के लिये कटिबद्ध हो जाय।
आजकल तो सरकार अच्छी शिक्षा दे रही है कि दो हिस्सा तुम्हारा एक हमारा। पाप करोगे तुम भोगोगे। इतने पर भी हम लोगों को चेत नहीं होता तो कब होगा। कमर कस के अपने उद्धार के लिये कटिबद्ध हो जाय।
तं विद्याद् दु:ख संयोगवियोगं योग संज्ञितम्।
स निश्चियेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।
स निश्चियेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।
(गीता 6/23)
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book