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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मेरा अनुभव

मेरा अनुभव

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 993
आईएसबीएन :81-293-0694-8

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प्रस्ततु है मेरा अनुभव.....

Mera Anubhav A Hindi Book by Jaidayal Goyandaka - मेरा अनुभव - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


नम्र निवेदन


परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका इस युग में एक विशेष अधिकार –प्राप्त महापुरुष हुए हैं। उनके हृदय में हर समय एक भाव ही बना रहता था कि जीवों का उद्धार किस प्रकार हो। उन्होंने स्वयं अपने प्रवचन में बताया कि यदि किसी कारणवश मेरे सन्निपात का रोग हो जाय तो मेरे मुख से ये ही शब्द सुनने को मिलेंगे कि जीवों का उद्धार कैसे हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे गंगाजी के किनारे स्वर्गाश्रम में ग्रीष्म-ऋतु में 3/4 मासके लिये सत्संग का आयोजन किया करते थे। वहाँ सत्संग में दिये हुए प्रवचनों को उस समय लिख लिया जाता था। उन प्रवचनों को पढ़ने से मालूम दे रहा है कि बड़ा रहस्यमय विलक्षण भाव उन प्रवचनों में आये हैं। अतः प्रवचनों का लाभ भाई-बहिनों को प्राप्त हो, इस उद्देश्य से उन प्रवचनों को लेख का रूप देकर पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। हमें आशा है, इन प्रवचनों को पढ़कर लोग आध्यात्मिक लाभ उठायेंगे।

-प्रकाशक

मेरा अनुभव


सभी सिद्धान्तों से यही बात है कि मै देह नहीं, आत्मा हूँ और भगवान् चिदंश हूँ। ऐसा माने तो भक्ति के मार्ग में विपरीत बात नहीं जाती। वास्तव में स्थूल शरीर से संबंध-विच्छेद होता है और महाप्रलय में सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होता है। ज्ञान के सिद्धान्त से आत्मा और  प्रकृति का सम्बन्ध-विच्छेद होता है और परमात्मा में वह आत्मा मिल जाता है भक्ति में जीव-ईश्वर का भेद नित्य है—भगवान् नित्य हैं। भक्तिमार्ग में माया अनादि और अनन्त है। सभी सिद्धान्त वाले स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का अन्त मानते हैं, कारण का नाश सब कोई नहीं मानते। तीन देहों में से दो देह के साथ सम्बन्ध-विच्छेद सभी मानते हैं। जीव परमात्मा का अंश है, भक्तिमार्ग में स्वामी-सेवक का भाव है। अंशांशी की मान्यता का भी आरोप है। केवल ज्ञान में तो अजातवाद है—सृष्टि और माया है ही नहीं और केवल भक्ति में जीव, ईश्वर और प्रकृति सदा से हैं और सदा रहेंगे।

मैं बाल्यावस्था में भगवान् के चित्र को सामने रखकर मुखार विन्द पर दृष्टि रखता और भावना करता कि भगवान् में क्रिया हो रही है। भाव रखता कि इसमें से भगवान् प्रकट होंगे। इससे भगवान का ध्यान रहना, प्रसन्नता रहनी स्वाभाविक थी। तस्वीर कागज और काँच के सिवाय कोई वस्तु नहीं, परन्तु श्रद्धा और भाव से भगवद्विषयक ध्यान रहता था। मूर्ति चाहे पाषाण की हो, चाहे कागज की—वास्तव में श्रद्धा-भाव से मूर्ति चेतन हो जाता ही और साक्षात्-स्वरूप उसमें से प्रकट हो जाता है। छोटी अवस्था में साधु-महात्माओं का बहुत संग किया। मैं तर्कशील था, इसलिये साधुओं के दर्जे के अनुरूप उनमें श्रद्धा करता था। परमात्मा को प्राप्त पुरुष बहुत कम मिले। अच्छे-अच्छे साधक तो बहुत मिले। गीता-शास्त्र आदि में जो लक्षण बताये हैं, उनके मुताबिक जितने लक्षण जिनमें होते हैं, उनमें उतनी श्रद्धा होती थी। इस कसौटी से बहुत-से अच्छे-अच्छे साधु भी छिपकर रह जाते थे।

ईश्वर की दया सबपर है, उसको जो माने उसे विशेष मालूम पड़ती है। अपनी दृष्टि से सोचता हूँ तो यह मालूम पड़ता है कि मेरे ऊपर जितनी दया है, उतनी शायद ही किसी के ऊपर होगी। अपनी प्रतीति की बात कहता हूँ कि परमात्मा की अपार दया है। मुझे ऐसे प्रतीत नहीं होती तो मैं भक्ति का विरोधी होता। वेदान्त के ग्रन्थ, योगवासिष्ठ, पंचदशी, विचार-सागर देखे थे, पर विचार-सागर, पंचदशी में मेरी श्रद्धा नहीं थी, मैं इनका प्रचार भी नहीं करता। शंकराचार्यजी के अद्वैत सिद्धान्त पर मेरी श्रद्धा थी। भक्तिमार्ग के ग्रन्थःश्रीमद्भागवत, रामानुजाचार्य की टीका, माधवाचार्यजी की टीका छपवाने में, प्रचार करने में मेरा विरोध नहीं है। ज्ञान का मार्ग और भक्ति का मार्ग मुझे कठिन बताया है, पर मैं उतना कठिन नहीं मानता, हूँ समूह के लिये कठिन मानता हूँ। मैं तो कहता हूँ कि मेरे ऊपर भगवान् की विशेष कृपा नहीं होती तो मैं या तो वेदान्ती या नास्तिक बन जाता। भगवान् ने बचा लिया। मैं आधुनिक वेदान्त को नहीं मानता। मैं मर्यादा का बहुत पक्षपाती हूँ। मैं मर्यादा का भक्त हूँ। मुझे मर्यादा प्रिय है। अच्छे पुरुषों में मेरी श्रद्धा हुई, किंतु जितनी होनी चाहिये उतनी नहीं हुई। यब बात मानता हूँ कि अग्निहोत्र नित्य करना चाहिये, पर मैं नहीं कर रहा हूँ यह मेरे में कमी है। माता-पिता की सेवा करनी बड़ी महत्त्व की चीज है। परंतु मेरे व्यवहार में माता-पिता की सेवा में कमी मिलेगी—व्यवहार में कमी है। शास्त्रोचित व्यवहार को आदर देता हूँ। किंतु मेरे से वैसा व्यवहार नहीं होता तो उतनी मेरे में कमी है। ‘आवश्यकता नहीं है’ यह बात मैं नहीं मानता। मान, बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा के लिये जो दम्भ करता है वह राजसी है। नास्तिकता को लेकर जो दम्भ करता है वह तामसी है। इसी की ज्यादा निन्दा की गयी है। मैं ज्ञान के मार्ग की निन्दा नहीं करता हूँ। पर ज्ञानके मार्ग से गिरने वाला निन्दा के पात्र हैं।

प्रश्न—भक्ति के मार्ग में आने में भगवान् की दया का क्या कारण है ?
उत्तर—यह कारण हो सकता है कि भक्ति के मार्ग की समय के अनुसार आवश्यकता है। कोई अन्धा गड्ढे की ओर जा रहा है तो कोई दयालु आदमी उसकी लकड़ी पकड़कर रास्ते पर लगा देता है, वैसे भगवान् ने आवश्यक समझकर किया है।
निष्काम भाव, सत्यभाषण और मर्यादा—ये तीनों चीजें मेरी प्रकृति के अनुकूल ज्यादा पड़ी हैं। मर्यादा के अनुसार आचरण और सच्चाई प्रिय है। ये बातें होनी चाहिये, मनुष्य चाहे ज्ञान अथवा भक्ति किसी मार्ग से चले। भगवान् की सत्ता, निष्कामभाव, उत्तम आचरण, वैराग्य—ये एक-एक चीज बहुत उच्चकोटि की है।

मैं ज्ञान का वर्णन करता हूँ, तो सीढ़ी-दर-सीढ़ी साधन किया है। भक्ति के विषय में ज्यादा साधन नहीं—भगवान् की कृपा से है। एक तो प्रयत्न-साध्य है और दूसरा ईश्वर की कृपा से हो वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। भक्ति के विषय में भगवान् की प्रेरणा हुई और ज्ञान का विषय अपने अभ्यास से हुआ। ईश्वर की भक्ति के विषय में, सगुण के तत्त्व के विषय में कोई अपनी विशेष जानकारी की बात कहे तो उसकी बात सुनकर कुछ हँसी-सी आती है। वह असली भक्ति के इर्द-गिर्द फिरता दीखता है। उनके वचन बिना जाने, अभिमान के वचन मालूम पड़ते हैं। अतएव मैं चुप रहता हूँ।

कोई कहे भगवान् भजन-ध्यान ठीक बनाता है तो मैं समझता हूँ, मूर्ख है कुछ नहीं करता।
उसपर आक्षेप नहीं करता—अपमान नहीं करता। कोई पूछे कि तुमको भगवान् के दर्शन हुए या नहीं तो उत्तर है कि इसका उत्तर देने में मैं लाचार हूँ। ऐसा प्रश्न किसी से नहीं करना चाहिये। प्रश्न करना मूर्खता है। इतना जानने मात्र से उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। जो हमारे पास वर्षों से रहते हैं, उनके भी विशेष लाभ नहीं दीखता तो एकदम उसका उत्तर दे देने से लाभ कैसे होगा !

समता अमृत है। जैसे बासे की पूड़ी में भेद-भाव नहीं है, उस पूड़ी को चाहे अमीर ले, चाहे साधु ले, एक-सी पूड़ी है, वह अमृत है। साधुओं के लिये तो बिना माँगे मिले वह वस्तु अमृत है। किंतु गृहस्थों के लिये कोई चीज खरीदने पर ही अमृत होता है।

मेरी सबसे यह प्रार्थना है कि शरीर सबका शान्त होता है। मेरा शरीर शान्त होने पर सत्संग का सिलसिला चलता रहे। जिस उद्देश्य से मकान (गीताभवन) बनाया गया है, उसका उद्देश्य यही है कि यहाँ पर, भजन, सत्संग होता रहे तभी उद्देश्य की पूर्ति होगी। यह स्थान, वटवृक्ष सब भगवान् की कृपा से कुदरती बने हुए हैं। ये  जब तक कायम रहें, तबतक यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहे तो बहुत ही उत्तम बात है। मेरी तो यही प्रार्थना है कि भविष्य में यथाशक्ति कोशिश करें कि यह चले—यहाँ भजन, ध्यान और सत्संग तीनों चलें। संसार में भजन, ध्यान और सत्संग से बढ़कर और कोई चीज मूल्यवान नहीं है।

हर-एक को यह ध्यान रखना चाहिये कि भजन, ध्यान और सत्संग बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं, जो इसमें शामिल होता है उसे तो लाभ होता ही है। अतएव हर-एक भाई तन-मन से इसमें सहायता देता रहे तो बहुत फायदा है। धन की तो आवश्यकता नहीं है, क्योंकि धन तो जबर्दस्ती आकर प्राप्त हो उसे स्वीकार करना पड़ता है। इस काम में तन-मन लगाने की ही प्रेरणा की जाती है। जो कोई शरीर से यहाँ नहीं आ सकता वह मन तो दे सकता है। तन-मन से आत्मा के कल्याण में मदद दें। जन और धन वे ही कल्याण करने वाले हैं जो भगवान् की प्राप्ति में मदद करने वाले हों।
भगवान् के भावों का प्रचार करने वाले पुरुष को भगवान् ने सबसे उच्चकोटि का पुरुष माना है। मैंने गीता में पढ़ा—


न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।

(18/69)


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