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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


१०१. संन्यास आश्रमके तो ताला लग गया। एक गृहस्थाश्रम ही है, निश्चिन्त होकर भजन-ध्यान करो।

१०२. मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, क्या कर रहा हूँ, मुझे क्या करना चाहिये? मैं परमात्माका अंश हूँ ८४ लाख योनियोंसे संसारचक्र में भ्रमण करता-करता आया हूँ अपने स्वरूपको पहचानना है, यही कर्तव्य है, यह बात विचारता रहे।

१०३. दो बातें त्यागनेसे बहुत लाभ है-स्त्रियोंका संग और ब्राह्मणोंसे द्वेष।

१०४. दो बातें करनेके लायक हैं-सदाचार और विद्याका अभ्यास।

१०५. श्रीरामचन्द्रजी, श्रीकृष्णचन्द्रजीका किसी भी ब्राह्मणके साथ द्वेष नहीं था, वे सभीको प्रसन्न रखते थे।

१०६. श्रीराम, कृष्ण आदिके कालमें भी हम कुछ-न-कुछ थे ही। उस समय नहीं चेतनेके कारण अभीतक जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े हुए हैं। अब भी चेतना चाहिये, जिससे भविष्यमें जन्म-मरणसे छुटकारा मिल जाय।

१०७. संसारकी उन्नतिके लिये भक्ति और विद्यालयोंद्वारा गीताका प्रचार करना चाहिये।

१०८. मन, वाणी, शरीरसे ब्राह्मणोंका सत्कार करना चाहिये तथा विद्वानोंका तो विशेषरूपसे ही करना चाहिये। अपने भक्तिके प्रचारमें जो वे लोग विघ्र नहीं करते हैं, यह भी उनकी मदद ही है।

१०९. भक्तमालमें बहुतसे भक्तोंकी कथा है। भक्तोंने जो सिद्धियाँ दिखायीं, वह केवल लोगोंपर दया करके उनको भगवान् की तरफ लगानेके लिये ही दिखायीं।

११०. सिद्धि दिखाना निन्दाकी बात है, तब भी भक्त लोग उस कामको संसारके हितके लिये कर लेते हैं।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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