गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
१३१. वक्तामें सदाचार, विद्या और युक्ति हो तो लोगोंके ऊपर बहुत असर पड़ता है। सदाचार में नि:स्वार्थभावकी बहुत आवश्यकता है।
१३२. कल्याणमें श्रद्धा ही प्रधान है।
१३३. जो आदमी यह चाहता है कि थोड़ा भजन करनेसे भगवान् मिल जायें, उनके लिये तो भगवान् का भजन करना परिश्रम है। जो भजनका मर्म नहीं जानते उन्हें तो परिश्रम ही होता है। वे तो बेचारे बोझा ढोते हैं। बोझा ढोनेवालेको मजूरी मिलती है और उन्हें इसके बदले भगवद्विषयक धन मिलता है।
१३४. जिन्हें भगवान् के भजनमें आनन्द आता है वे चाहते हैं कि भजन-ध्यान छूटे नहीं। उन्हें भजन-ध्यानका थोड़ा आनन्द आया है। जिन्हें भजनका पूरा आनन्द आ गया वे तो भगवान् की प्राप्ति भी नहीं चाहते। यही चाहते हैं कि भजन-ध्यान बढ़ता रहे। बार-बार जन्म हो और यही काम करें।
नाथ एक बर मागऊँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।
१३५. बीमारीसे बहुत शिक्षा मिलती है। मन्दाग्निकी बीमारी साधन करनेवाले पुरुषके लिये बहुत अच्छी है, क्योंकि धीरे-धीरे आदमीके शरीरको कमजोर करके सावधान कराती रहती है तथा अन्तकालतक चेत रहता है।
१३६. महाराज युधिष्ठिरका बर्ताव देखकर कितना भारी रोमांच होता है कि दुर्योधनके साथ कितनी भलाई करके भी कहीं गिनायी हो ऐसा मुझे याद नहीं आता। श्रीरामचन्द्रजी महाराजके बर्तावका तो कहना ही क्या है। जिस समय उनका बताव याद आता है उस समय रामचन्द्रजी महाराजकी शान्त मूर्ति सामने बँध जाती है। भरतजी, लक्ष्मणजी, दशरथजी, कौशल्याजी, सीताजी उन सबका ही बर्ताव बहुत उत्तम है; किन्तु सुमित्राजीका बर्ताव तो बहुत ही प्रत्यक्ष चमकता है। लक्ष्मणजीसे भी ज्यादा उत्तम समझा जाता है-
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँईं दिवसु जहँ भानु प्रकासू।
जीं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।।
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई।
१३७. मेरे मनमें यह रहता है कि मैं सबको भगवान् की तरफ लगा दूँ। कम-से-कम मेरे सामने जो आये उनका तो यह भाव जरूर ही हो जाय, जैसे लड़ाईके बिगुलसे कायर भी जूझकर प्राणोंकी बाजी लगा देते हैं।
१३८. मेरे मनमें यह बात उठती है कि लोगोंके ऐसा जोश उत्पन्न हो जाय, भगवत्प्रातिके लिये प्रेरणा करनेके साथ तैयार हो जायें, यदि आगमें पड़नेके लिये कहा जाय तो आगमें पड़नेके लिये तैयार हो जायँ।
१३९. अपने लोगोंमें प्रेम कहाँ है। प्रेम होनेके बाद तो रोमांच और अश्रुपातकी धारा चल जाती है।
१४०. दूसरोंको लाभ पहुँचाना अपने आपको ही लाभ पहुँचाना है। जैसे-अपने हाथकी अंगुलियोंमें किसी अंगुलीके लाभ पहुँचानेसे अपने ही लाभ है। समझमें नहीं आये तो भी उस एक अंशमें आपको लाभ होता ही है। किसी एक अंशमें कहनेका तो यह तात्पर्य है कि वास्तव में तो भगवान् के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं। तब किसके फायदा किसके नुकसान हुआ। व्यवहारकी दृष्टिमें भी दूसरोंको फायदा होता है वह हमें ही होता है। यदि यह बात समझमें न आये तो निष्कामभावसे दूसरोंको लाभ पहुँचाना हमें भगवत्प्रातिके नजदीक पहुँचानेवाला है। यदि यह भावना हो जाये कि सबको लाभ पहुँचानेसे अपना ही लाभ है तो सबके ज्ञान होनेसे ही ज्ञान होगा उसकी दृष्टिमें तो किसीके अज्ञान रहता नहीं, मूर्खोंकी दृष्टिमें रहे तो उसके कोई हानि नहीं।
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- सत्संग की अमूल्य बातें