गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
१४१. यदि कोई किसीको आजीविका करा दे तो मुझे इतना आनन्द होता है जैसे मेरे भाईको काम पर लगा दिया। मेरे भतीजा होनेकी खबर सुनकर इतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी इससे होती है।
१४२. प्रारब्धके अनुसार जितना शब्द बोलना है उतना ही बोल सकता है, जितना श्वास आना है उतना ही आ सकता है। इस बातको विचारकर मनुष्यको कामकी बात ही बोलनी चाहिये।
१४३. श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराजने गीतामें कई जगह कहा है कि मैंने तुम्हें बहुत गोपनीय तथा गुह्य बात कही है। इससे यह भाव दिखाया मानो पहले किसीको नहीं कही हो (गीता १८।६४)। श्रीकृष्णचन्द्रजीकी गीताजी देखकर लोगोंके यह भाव होता है कि उनके सामने १८ अक्षौहिणी सेना मर गयी। उनका प्रभाव नहीं जाना। वह लोग मूर्ख थे, किन्तु यह बात समझनी अपनी भूल है। अब भी यदि श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज आ जायें तो हमसे भी यह बात होनी कोई बड़ी बात नहीं है।
१४४. ऐसे भक्त संसारमें दुर्लभ हैं जिन्हें भगवान् का मुख्तारनामा मिला हुआ है। आज यदि अधिकारप्राप्त पुरुष मिल जायँ तो हम सबका उद्धार हो जाय।
१४५. आपलोग चेष्टा करें तो सभी इस प्रकारके बन सकते हैं। एक पुरुष भी ऐसा मिल जाय तो कल्याण हो सकता है, इसलिये उनकी खोज करनी चाहिये।
१४६. सेवा करनेके लिये कई लोगोंने नाम लिखा रखा है, किन्तु सेवा करनेवाला कोई एक ही निकलता है। में उन्हें वही काम बताऊँगा जो काम वह अच्छी तरह कर सकते हैं, किन्तु आलस्यके कारण करना नहीं चाहते, इसलिये मैं उन्हें नहीं कहता। कहकर उनकी इज्जत ही लेनी है। हजारों आदमियोंमें दस-बीस ही काम करनेवाले होते हैं।
१४७. मैं इतना बीमार होकर भी शरीरसे कितना काम करता हूँ। मुझे कोई यह नहीं कह सकता कि मैं आलसी हूँ। यह भले ही कह सकता है कि यह बहुत ज्यादा परिश्रम करता है। लोग तो सत्संगके कलंक लगा रहे हैं कि सत्संग करनेवाले आलसी हैं, इसलिये लोग सत्संगमें नहीं लग रहे हैं। यह नुकसान कम नहीं है, क्योंकि सत्संगमें जो लोग लग सकते थे उन्हें वे रोकनेवाले हुए।
१४८. साधन करना चाहिये। साधन करनेसे उद्धार होगा।
१४९. अर्जुन भगवान् का भत था। उसे भी भगवान् ने कह दिया यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा तो नष्ट हो जायेगा, फिर और लोगोंकी बात ही क्या है, इसलिये उनके कहे अनुसार चलना ठीक है।
१५०. अपना अवगुण स्वयं ही सोचना चाहिये। स्वयं ही सोचनेसे उसकी बुद्धिका विकास होगा तथा दोषोंके नाश होनेकी चेष्टा भी होगी।
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- सत्संग की अमूल्य बातें