गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
मान-बड़ाई चाहनेवालोंकी श्रेणियाँ
महापुरुषोंके गुण-प्रभावकी बात सुननेसे, श्रद्धावान् पुरुषोंका सङ्ग, दर्शन, उनसे एकान्तमें श्रद्धाके विषयकी आलोचना करनेसे श्रद्धा बढ़ती है। उनकी किसी भी प्रकारकी क्रिया देखकर श्रद्धावान्को आनन्दमें, प्रेममें मुग्धता हो जाती है, बेहोशी हो जाती है। भगवान् कृष्णकी लीला देखकर गोपियाँ ग्वालबाल प्रेममें मुग्ध हो जाते थे, बेहोश हो जाते थे, यह श्रद्धाका फल है।
गीता १२। १३ से १९ के लक्षण जिनमें घटते हों, वही महापुरुष है, इनमें बहुतसे लक्षण स्वसंवेद्य हैं। दूसरा मनुष्य महापुरुषको पहचान सके ऐसे लक्षण शास्त्रमें बहुत कम लिखे हैं। प्रधानतासे इस प्रकार हैं-
उनकी सबपर दया रहती है, वे सबके हितमें रत रहते हैं। ज्ञानमार्ग भक्तिमार्ग दोनोंसे चलनेवालोंमें यह बात रहती है।
ज्ञानमार्ग— सर्वभूतहिते रताः। (गीता १२।४)
भक्तिमार्ग- मैत्रः करुण एव च। (गीता १२।१३)
दया और प्रेम होनेपर सुहृदता कहलाती है। उनके व्यवहारमें हृदयमें समता होती है। भगवान् कहते हैं-
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(गीता ९।। २९)
मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ। भजनेवालोंमें भेद दीखता है यह न्याययुक्त है।
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ।।
सूर्य सब जगह समान होते हुए भी दर्पणमें प्रतिबिम्ब पड़ता है। काठमें नहीं पड़ता। दर्पण पात्र है, यह पात्रकी विशेषता है।
अच्छे पुरुष अपनी सफाई नहीं देना चाहते, दूसरों की दृष्टि में जो दोष हैं, वह उनकी दृष्टिसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तव में महापुरुषोंमें कोई दोष नहीं होता। दूसरा कोई उनका अपराध समझता है तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं। यह उनकी साधुता है, यह उनका समताका व्यवहार है।
महापुरुषोंका प्रभाव पड़ता है। अंधकारमें लालटेनका प्रकाश होता है। लालटेन जड़ ज्योति है, महापुरुष चिन्मय ज्योति है। उनके दर्शनसे ज्ञानकी वृद्धि होती है। महात्माओंके सङ्ग से हमारे हृदयके छोटे-छोटे दोष भी दीखने लगते हैं। हमारे आचरणोंका सुधार होता है। हमारेमें है, हलका हो जाता है। दोष दीखने लगते हैं और चेष्टा करनेसे समूल नष्ट हो जाते हैं। उनके सामने कोई बुरा व्यवहार नहीं कर सकता। उनके दर्शनसे स्वाभाविक ही ईश्वर-स्मृति हो जाती है, जिसके दर्शनसे हमें ईश्वरकी स्मृति हो वही ईश्वरका भत है। जिसकी विशेष श्रद्धा होती है उसकी तो स्मृति छूटती ही नहीं। लाल पगड़ीवाले सिपाहीको देखते ही सरकार याद आ जाती है। दूसरे आदमी भी उसीके जैसे हैं, पर सरकार याद नहीं आती। भगवान् के भक्तके दर्शनसे ही भगवान् की स्मृति हो जाती है, उनके चले जानेपर ऐसे मालूम होता है मानो हमारे सामनेसे कोई प्रकाश हट गया।
जिसका श्रद्धा विश्वास विशेष होता है उसको ऐसा प्रतीत होता है मानो ईश्वर-भक्ति और सद्गुण उस महात्माके द्वारा मुझमें प्रवेश कर रहे हैं। वह महापुरुष किसीको भी देखता है तो प्रेम और दयासे भरे हुए नेत्रोंसे देखता है। आगसे जैसे घास भस्म हो जाती है वैसे ही मेरे दुर्गुण-दुराचार भस्म हो रहे हैं। समता, दया, शान्ति, प्रेम, आनन्द, ईश्वर स्मृति, ज्ञान मेरेमें जोरसे प्रवेश कर रहे हैं।
भगवान् जब दयादष्टिसे जीवको देखते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है मानो समता, शान्ति, दया, प्रेम, आनन्द, ज्ञानकी बाढ़ आ रही है। पगथली, हथेली, नेत्र ये विशेष द्वार हैं। जहाँपर रोम नहीं हैं, वे विशेष द्वार हैं। जहाँ रोम होते हैं वहाँ रुकावट है। हर एक आदमी अपने अनुभवसे देख सकता है कि शारीरिक गर्मी आदिका अनुभव जितना हथेलीसे होती है उतना पीछेकी तरफसे नहीं होता है। उन महात्माओंके सारे शरीरमें, रोम-रोममें शान्ति, दया आदि गुण वास करते हैं, परन्तु नेत्रोंके द्वारा विशेष रूपसे प्राप्त होते हैं। 'समदर्शी', 'नयनन नहीं सनेह' आदि शब्दोंसे नेत्रोंकी विशेषता प्रकट होती है। शरीरमें तेजोमय वस्तु नेत्र होनेसे शान्ति, आनन्द, दया, प्रेम, समता और ज्ञान इन छ: बातोंका नेत्रोंके द्वारा विकास होता है।
बर्फके ढेलेमें सभी जगह चारों ओर समान रूपसे ठंड और जल होते हुए भी यहाँ एक ढेला टँगा हो तो वह नीचेकी तरफसे ही चूता है, इसीलिये चरणोंकी विशेषता है।
महात्माओंकी जहाँतक दृष्टि जाती है, वहाँतक पवित्रता हो जाती है। यह नेत्रोंकी विशेषता है। यह बात नहीं कही जाती कि जहाँतकका शब्द उन्हें सुन पड़े वहाँतक पवित्र हो जाता है। परमात्माकी प्राप्तिवाले पुरुषोंमें भगवान् की दृष्टिमें कोई भेद नहीं होनेपर भी साधकोंकी दृष्टिमें उन पुरुषोंमें विशेषता है जो प्रचार आदि करते हैं।
भगवान् स्वयं आते हैं या कारक पुरुषको प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं या किसीको अपनी ओरसे अधिकार दे देते हैं अर्थात् किसी वर्तमान महापुरुषको ही विशेष शक्ति दे देते हैं। कारकको उद्धार करनेकी तो आज्ञा है, परन्तु यदि एकदम जगत्का विनाश करना हो तो आज्ञा लेनी पड़ती है।
महात्माओंका यह सारा वर्णन व्यवहार-दृष्टिसे है, पारमार्थिक दृष्टिसे कोई भेद नहीं है। शान्ति, आनन्द सब एक-सा है, उसमें कोई अन्तर नहीं है।
साधक जो ऊपरको उठता है, उसके उठनेमें कई विघ्न आते हैं। समय-समय पर सब नष्ट हो जाते हैं। एक विघ्न तबतक रहता है, जबतक अन्त:करण में अहंकार रहता है। जितना-जितना अहंकार कम होता जाता है, उतना-उतना वह भी कम हो जाता है। वह विघ्न मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा की इच्छा है।
जितना-जितना वह आगे बढ़ता है, लोकदृष्टिमें उसे मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा अधिक मिलती है। उस समय उस दोषका पता लगता है। पहले तो वह दोष ढका हुआ था, ये चीजें प्राप्त नहीं थीं। पहले यह दोष अन्य दोषोंके साथ ढका था। जैसे ग्वारका पौधा चारों तरफ घाससे ढका हो, परन्तु जब घास अलग कर ली जाती है, तब वह पौधा सबको दीखता है। लोग कहते हैं और दोष तो नहीं है, मान-बड़ाईका दोष है। भगवान् के मिलनेपर तो अहंकारका ही नाश हो जाता है, तब यह किसके आधारपर रहे। किसी-किसीमें अहंकार रहते हुए भी मान-बड़ाईके दोषका नाश हो जाता है। अधिक विनययुक्त आदमी मान-बड़ाईको इतना बुरा समझने लगता है कि मिलनेपर रोने लग जाता है। मान-बड़ाई तो नहीं चाहता पर अहंकार रहता है। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठामें जितना सुख मनुष्यको मालूम देता है, उतना खाने-पीने किसी चीजमें नहीं मालूम देता। मान-बड़ाई चाहनेकी श्रेणियाँ बतायी जाती हैं-
(१) पहले वह दूसरोंसे मान-बड़ाई करवाता है, स्वयं अपनी प्रशंसा करता है। निन्दनीय कार्योंसे निन्दाके भयसे बचता है, पापके भयसे नहीं।
(२) चेष्टा करके तो नहीं कहलाता, स्वयं नहीं कहता, परन्तु मनमें चाहता है कि दूसरा करे।
(३) मनमें यह तो नहीं चाहता कि दूसरे करें, पर कोई कर देता है तो अच्छा मालूम देता है। विचारके द्वारा तो अच्छा नहीं समझता, पर प्राप्त होनेपर प्रसन्नता होती है।
(४) प्राप्त होनेपर संकोच होता है। यह चाहता है कि न हो तो अच्छा है लज्जा होती है।
(५) प्राप्त होनेपर दु:ख होने लगता है। एकदम उलटा भाव हो जाता है। वह निन्दाका कार्य नहीं करता, परन्तु निन्दाका कार्य न होनेपर भी उसकी निन्दा होनेपर उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। जैसे-कोई साधक अपना साधन बनाये रखनेके लिये छिपाना चाहता है, अपनेको छिपाकर विचरता है, लोगोंद्वारा दुत्कारमें उसे विशेष प्रसन्नता होती है। उपरामता, वैराग्य, बेपरवाही जिस साधुमें अधिक होती है, वह सच्चा साधु है। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठासे वह दूर भागता है। पहली श्रेणीसे बिलकुल उलटी बात है। यह दोष दूर होनेपर भगवान् की प्राप्ति हो ही जाती है। पहले भी हो सकती है। यह दोष रहते हुए भी जब कभी प्रेमका भाव जाग्रत् हो जाता है, तब भगवान् प्रकट हो सकते हैं। अपने धनको गुप्त रखना हो तो मोहरोंपर घास-फूस-कूड़ा डालकर उसे ढक दो, यह चोर डाकुओंसे बचनेका रास्ता है। जल्दी आत्माका कल्याण चाहनेवालेके लिये यह सबसे बढ़िया उपाय है। अपमान-निन्दा-यह कूड़ा कचरा है, अपने धनको बचानेवाला है, इसलिये इनको आदर देना चाहिये। यह खयाल रखे कि सत्यका बचाव रहे, अनुचित चेष्टा न करे, अपमान अपने-आप आकर प्राप्त हो जाय तो प्रसन्न रहे। सत्य है वही न्याय है, न्याय ही धर्म है, धर्म ही परमात्मा है। सत्य परमात्माका स्वरूप है।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
(गीता १४।२७)
उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्यधर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।
केवल सत्यके पालनसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। भगवान् ही धर्मके रूपमें प्रकट होते हैं। धर्म, ईश्वर, सत्य और न्याय-इनमें कोई भेद नहीं है, इसलिये सत्यपर विशेष ध्यान रखना चाहिये। एक आदमी वाणीसे तो सत्य बोलता है, परन्तु कपट रखकर बोलता है, तो यह न्याय नहीं है। जो न्याय नहीं वह सत्य नहीं। न्याय ही धर्म है, धर्म ही भगवान् का स्वरूप है। धर्म है वही सत्य है। सत्य है वही धर्म है। हरिश्चन्द्रने सत्यका त्याग नहीं किया। वहाँ कोई झूठकी बात नहीं थी, जब उनकी स्त्री रोहताश्वको जलाने गयी थी, यदि वे जलाने देते तो धर्मका त्याग होता, न्यायका त्याग होता। न्यायका त्याग होना ही सत्यका त्याग है। कोई झूठ बोलता है, तो लोग कहते हैं-अन्याय करता है।
सत्यपर खूब जोर रखना चाहिये। भारी आपत्ति आ जाय तो मौन रह सकता है, यह छूट है। अपराध है, परन्तु माफी है। प्राण जानेके समय भी ऐसी छूट है। धर्मसंकटके समय दोनोंको तौल ले और जो न्याय मालूम दे, जो हलके दोष वाला हो, वह कर ले।
स्वाभाविक महात्मा और विशेषाधिकारयुक्त महात्मा-सभी महात्माओंकी यह स्वभाविक चेष्टा होती है कि सबका कल्याण हो, परन्तु उन विशेषाधिकारयुक्त महात्माकी कोई भी क्रिया असफल नहीं होती। शरीरकी, मनकी, वाणीकी सारी क्रिया सफल होती है। कोई भी उनकी क्रियामें रुकावट नहीं डाल सकता। जो कारक पुरुष होते हैं उनका शरीर अनामय होता है, क्योंकि बीमारी पापसे होती है। महात्मा पुरुषके शरीरमें बीमारी हो सकती है; क्योंकि उनके पूर्वके पाप हो सकते हैं, अवतार और कारकके नहीं हो सकते। महात्माओंकी बहुत-सी क्रिया प्रारब्धके संयोगवश होती है या स्वेच्छासे प्रारब्ध भोग होता है, परन्तु कारक पुरुषकी सारी क्रिया लोगोंकी श्रद्धा, प्रेम और उनके प्रारब्धसे होती है, ईश्वर प्रेरित होती है। साधारण लोगोंकी क्रिया पापमय भी हो सकती है। महात्माओंके द्वारा कोई भी पापकी क्रिया नहीं हो सकती।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
(गीता ३।२१)
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देते हैं, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।
साधारण पुरुषकी क्रियामें तीन हेतु हैं। महात्माकी क्रियामें दो हेतु हैं। कारककी क्रियामें एक हेतु है। भगवान् की क्रिया अहैतुक है।
साधारण पुरुषकी क्रियामें काम-क्रोध-लोभ, शास्त्राज्ञा, प्रारब्ध हेतु है एवं खेती आदि प्रारब्धसे हो सकती है।
महात्माओंमें काम-क्रोधसे प्रेरित क्रिया नहीं होती, प्रारब्धसे प्रेरित हो सकती है। प्रारब्ध बनकर हो जाती है तथा दूसरोंके प्रारब्धसे सम्बन्धित क्रिया भी हो सकती है, दूसरे उनपर श्रद्धा-प्रेम रखते हैं, उसका फल उनके द्वारा मिलनेके लिये हो जाती है।
कारक पुरुषके प्रारब्ध नहीं है, उसकी क्रियामें हेतु ईश्वरकी आज्ञाका पालन ही है। ईश्वर कठपुतलीकी तरह उनसे करा रहे हैं। ईश्वरके लिये अपना कोई हेतु नहीं है, न कोई कर्तव्य है न किसीकी आज्ञाका पालन है, अहैतुकी दया ही उसमें हेतु है।
महात्मासे मिलन प्रारब्धसे तथा श्रद्धा-प्रेमके कारण नया प्रारब्ध बनकर भी हो सकता है।
आने वाले लोगों में जिसकी जैसी श्रद्धा होती है उसीके अनुसार महात्माकी वाणी निकलती है। समूहमें जो बात कही जाती है उसका भी अपनी-अपनी श्रद्धाके अनुसार ही असर पड़ता है।
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- सत्संग की अमूल्य बातें