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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।

भगवान् में प्रेम होनेके उपाय


भगवान् के चरणोंमें प्रेम होनेका मुख्य उपाय प्रेम होनेकी इच्छा ही है। जो यह चाहता है कि मेरा भगवान् के चरणोंमें अनन्य प्रेम हो जाय उसका हो जायेगा। लोग कहते तो हैं, परन्तु वास्तवमें नहीं चाहते। इसका पता उनकी क्रियासे लगता है। धनको चाहनेवाले रात-दिन रुपया-रुपया करते फिरते हैं, रुपयोंके लिये मारे-मारे फिरते हैं। उनकी क्रिया और प्रयत्न यह सिद्ध कर देता है कि उनका रुपयोंमें प्रेम है। इसी प्रकार हमलोगोंकी प्रयत्नकी शिथिलता यह बतलाती है कि हम भगवान् में प्रेम कहाँ चाहते हैं। भगवान् में प्रेम होनेके कुछ उपाय इस प्रकार हैं-

(१) दृढ़ प्रयत्न करना।

(२) जिन पुरुषोंका भगवान् में प्रेम है, उनका सङ्ग करना, उनकी आज्ञानुकूल चलना और उनका अनुकरण करना।

(३) एकान्तमें भगवान्से गदूदवाणीसे, करुणाभावसे रुदन करते हुए प्रभुसे प्रार्थना की जाय। प्रभुके शरण होकर भगवान् में प्रेम हो सकता है। यह भी बहुत अच्छा उपाय है।

(४) भगवान् के नामका निरन्तर जप करनेसे भी प्रेम होता है। भगवान् का भजन करनेसे प्रेम होता है। यह विश्वास करना बड़ा अच्छा उपाय है।

चारों उपायोंमेंसे एकको भी काममें लानेसे प्रेम हो सकता है और चारों ही किये जायें तो बहुत जल्दी प्रेम हो सकता है, और भी बहुतसे उपाय शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं। यह चार मुख्य हैं-

सर्वधमन्परित्यज्य मामेकं शरणां व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

(गीता १८।६६)

इस श्लोकके चार चरण हैं जिनमें भगवान् ने चार बातें कही है-
(१) सारे धमाँका त्याग (२) मेरी शरण आ जा (३) मैं सारे पापोंसे छुड़ा दूँगा (४) शोक मत कर।

ये चार बातें सारी गीताका सार हैं, इसीलिये ये शेषमें कही गयी हैं। यह गीताका उपसंहार है। जिस विषय में उपक्रम होता है, उसीमें उपसंहार होता है। गीतामें सार बात भगवान् की शरण होना ही है। भगवान् आरम्भमें 'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्' और अन्तमें मा शुचः कहते हैं।

भगवान् तो सबकी बागडोर हाथमें लेनेके लिये तैयार हैं। जिस समय हमारे सारे काम भगवान् की आज्ञानुकूल होने लगें तो समझना चाहिये कि हमारी बागडोर प्रभुके हाथमें है। सबसे उत्तम सिद्धान्त यह है कि हम तो निमित्तमात्र हैं, भगवान् ही सारे कर्म करा रहे हैं। उसकी पहचान यही है कि सारे कर्म भगवान् के अनुकूल हो रहे हैं। हम लोगोंको निमित्तमात्र बन जाना चाहिये। भगवान् करायें वैसे ही करना चाहिये। भगवान् विपरीत कर्म कभी नहीं कराते।

भगवत्प्राप्त पुरुष अपने नाम-रूपकी पूजा बिलकुल नहीं चाहता। उसमें मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा चाहनेकी गन्ध भी नहीं होती। व्यवहारके लिये ऐसा कहते हैं-मानापमानयोस्तुल्य:।

शुकदेवजी जा रहे हैं, रास्तेमें बालक धूल फेंकते हैं, सभामें पहुँचते ही सब लोग आदर देते हैं, उनकी दोनोंमें समानता है। भक्तिमार्गसे जानेवाले तथा ज्ञानमार्गसे जानेवाले दोनोंमें यही बात होती है। गीता अध्याय १२ में भतिकी तथा अध्याय १४ में ज्ञानकी बात कही गयी है।

ज्ञानके मार्गसे-कीर्ति-अपकीर्ति नामकी और सत्कार-अपमान देहका ही होता है, गुणातीत पुरुष इनसे परे होता है। देह और नाममें उसका अहंकार ही नहीं होता, महात्माओंमें ऐसा अभिमान होता ही नहीं कि यह मेरा नाम है। दीवालकी निन्दा-स्तुतिसे कोई दु:खी-सुखी नहीं होता, ऐसे ही भक्तोंका देहमें अहंकार नहीं होता। भक्तके अहंकारके नाशका क्रम-पहले अपनेको सबका सेवक मानता है-

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त।
में सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।।


आगे जाकर सेवकका अहंकार नाश होता है। कहता है मैं तो कुछ भी नहीं हूँ और आगे जाकर यह भी नाश हो जाता है। 

ज्ञानीके लिये भगवान् बताते हैं-
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।

(अध्याय १४।१९)

जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्त्ता नहीं देखता और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्माको तत्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।

सब गुणोंका ही कार्य है उसका मान-अपमानसे कोई सम्बन्ध ही नहीं है। न तो वर्तमानमें मान-बड़ाई चाहता है, न मरनेके बाद ही चाहता है। बिना चाहे मान आदि प्राप्त होनेपर भी यदि मनमें प्रसन्नता होती है तो समझना चाहिये कि अभी भगवान् की प्राप्तिसे दूर है। वास्तवमें यह अवस्था स्वसंवेद्य है। दूसरा अनुमान करता है वह गलत भी हो सकता है।

ज्ञानमार्गसे प्राप्त हुए योगीकी दृष्टिमें सृष्टि ही नहीं है। उसको प्रतीति होती है कि संसार उसका आत्मा ही है। यदि मेरी स्तुति आदि करके दूसरोंको लाभ हो जाय तो क्या हानि है? यह भाव जिसके हृदयमें होता है वह महात्मा ही नहीं है। महात्माके हृदयमें ऐसा कोई धर्मी होता ही नहीं। परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषके लिये ज्ञानकी दृष्टिसे राम, कृष्ण, अल्ला, खुदा सब उसके ही रूप हो गये, फिर जो जैसी जिस रूपकी उपासना करता है उससे छुड़ाकर अपने नाम-रूपकी पूजा कैसे करवा सकता है। भक्तिके सिद्धान्तसे तो पहले ही वह अपनेको सेवक मानकर चलता है। उससे अपनी पूजा आदि कैसे करवायी जा सकती है।




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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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