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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।

भगवान् की दयालुता


अवतारका शरीर मायिक नहीं है। ब्रह्माकी सृष्टि मायिक है। भगवान् श्रीकृष्ण सशरीर ही परमधामको चले गये, यह बात भागवतमें आती है। अर्जुनको भगवान् ने विश्वरूप दिखलाया और तुरन्त ही चतुर्भुजरूप हो गये। अर्जुनकी प्रार्थनासे ही दोनों रूप दिखलाये, प्रादुर्भाव और तिरोभाव होना हुआ, जन्मना और मरना नहीं। जन्मके समय भगवान् श्रीकृष्ण चतुर्भुजरूपसे प्रकट हुए। श्रीदेवकीजीके प्रार्थना करनेपर भगवान् दो भुजावाले हुये। यह द्विभुजरूप देवकीके गर्भसे नहीं जन्मा। इसी प्रकार अन्त समयमें इस शरीरसे अप्रकट हो गये। भगवान् का शरीर दिव्य है। एक बार बलदेवजीने तीन वर्षके बछड़ोंसे गायोंका इतना अधिक प्रेम देखकर ध्यान लगाकर देखा तो सब बछड़े श्रीकृष्णस्वरूप दिखलायी पड़े। उस समय श्रीकृष्णने उनके पूछनेपर सारी घटना सुनायी। ब्रह्मा बछड़े हर ले गये। उनके स्थानपर भगवान् ने जो बछड़े बनाये, वे ब्रह्माकी सृष्टिके नहीं थे।

प्रश्न-भीष्म और बुद्धके त्यागका तारतम्य बतायें।

उत्तर-आपका प्रश्न गम्भीर है। मैं उत्तर देनेमें असमर्थ हूँ। भगवान् ही जानते हैं। मैं दोनोंमें किसी प्रकारका त्यागी नहीं हूँ। त्यागी ही बता सकते हैं। भीष्मने ग्रहण ही नहीं किया, आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया। बुद्धने ग्रहण करके त्याग दिया। शास्त्रमें दोनोंकी ही महिमा है। परन्तु जब दोनोंका मुकाबला करके उत्तर देना है तो भीष्मका त्याग ही अधिक श्रेष्ठ है। नैष्ठिक ब्रह्मचर्यक्री बड़ी भारी महिमा है। भीष्मने महान् कार्य किया, इसलिये देवताओंने उनको देवव्रतसे भीष्म बना दिया।

भगवान् अधिकारीको ही प्राप्त होते हैं, परन्तु एक ऐसा नियम है कि जो वास्तव में अपनेको हृदयसे अनधिकारी, अयोग्य मानता है तो इस यथार्थ मान्यताका फल भी भगवत्प्राप्ति है, सत्यका फल भगवत्प्राप्ति है। भगवान् उससे छिप नहीं सकते, परन्तु कहता रहे और माने नहीं तो भगवान् कहते हैं कि कपटी है। निष्कपटभाव हृदयकी सच्चाई भगवान् को मिला देती है। ऐसा नहीं होना चाहिये कि मुखसे तो अयोग्य, नीच, अनधिकारी कहता है, परन्तु व्यवहारमें अपनेको बड़ा मानता है। यह तो केवल कहनामात्र हुआ। जो वास्तव में अपनेको वैसा समझता है, वह तो बर्ताव भी वैसा ही करता है। यह अनन्यभक्ति है। कहना सहज है पर बनना कठिन है। दूसरे उसकी प्रशंसा करते हैं तो वह रो देता है, समझता है बेचारे भूलसे कह रहे हैं। हमलोग अपनी अयोग्यताको हृदयसे स्वीकार कर लें तो अयोग्य होते हुए भी योग्य बन जाते हैं। स्वीकार करनेपर यदि भविष्यमें अपराध न करनेकी बात कही जाय तो सरकार भी छोड़ देती है। भगवान् तो निष्कपटभाव, सरलता, सत्यताको देखते हैं। जब वास्तव में सत्यता, न्याय आ गया तो परमात्मा मिल जाते हैं, सत्यता भगवान् का स्वरूप है। हमलोगोंके हृदयमें एक बात और बाहरमें दूसरी बात है, इसीलिये विलम्ब हो रहा है।

लोग कहते हैं कि भगवान् भक्तोंका उद्धार करें इसमें क्या निहोरा। पापियोंका उद्धार करते हैं तभी तो पतितपावन हैं। बात तो सही है। ठहरे। कोई कहे कि मैं पतित हूँ। मेरा उद्धार करें तो पतितपावन मानूँ। भगवान् तो पतितपावन हैं ही। आप नहीं मानें तब भी उद्धार करते ही हैं। भगवान् न्यायकारी और पतितपावन दोनों हैं। दोनों बातें एक जगह कैसे रह सकती है? ईश्वरका कानून ही अलौकिक है। ईश्वरमें दोनों बातें हैं-न्यायकारी और पतितपावन दोनों हैं। उसके लिये न्यायकारी हैं जो लिये पतितपावन हैं। जो भगवान् को पतितपावन पुकारता है, कहता है कि आप सर्वशक्तिमान हैं, आप सब कर सकते हैं। न्यायकी बात आप जानें, आप पतितपावन हैं और मैं पतित हूँ बस और किसी बातसे मुझे मतलब नहीं है। कानूनकी रक्षा करके माफी तो दयालु राजा भी दे देते हैं। अपराधीको दण्ड-विधान करके कितने ही कैदियोंको राजालोग भी छोड़ देते हैं। उसकी इतनी स्वतन्त्रता है ही। राजासे दयाकी याचना करनेपर कोई दोषी नहीं ठहराता है। राज्यमें किसी उत्सव आदिके मौकेपर कैदी छोड़े जाते हैं, यह कानून है। भगवान् के राज्यमें यह कानून है कि जो कैदी छूटना चाहे वही छोड़ दिया जाता है। कितना दयालुतापूर्ण कानून है, जो मुक्ति चाहता है उसीको भगवान् मुक्ति दे देते इसमें तो आश्चर्य ही क्या है। हमलोगोंको भगवान् मनुष्य बनाते हैं, यह बिना चाहे ही मुक्तिका मौका देना है।

कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिन हेतु सनेही।

भगवान् विशेष कृपा करके बिना हेतु ही मौका देते हैं, हमलोंगों के आचरणोंकी तरफ नहीं देखते। भगवान् प्रेमी हैं, दयालु हैं, बिना ही कारण प्रेम और दया करनेवाले हैं, सुहृद हैं- सुहृदं सर्वभूतानाम् (५।२९)। यह मौका कभी ही मिलता है, क्योंकि जीव असंख्य हैं भगवान् सभीको ही मौका देते हैं। मनुष्य-शरीर दिया, मुक्तिका द्वार मिला। फिर भी सब मुक्त नहीं होते, इसमें हेतु यह जीव स्वयं ही है। भगवानन्ने तो बड़ा मौका दिया और जो मौका माँगे उसे भगवान् मौका देनेको तैयार हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।

(गीता १०।१०)
उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्वज्ञानरूप योग देता हूँ जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुतानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

(गीता ९।२२)
जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।

अप्राप्तकी प्राप्ति और प्रासिकी रक्षा करते हैं, मदद देनेको तैयार हैं। जो निरन्तर भजन करता है उसके लिये यह कानून लागू पड़ता है। 'हे नाथ मैं आपकी शरण हूँ'-इतना कहनेसे भी भगवान् उद्धार करते
हैं। भगवान् ने विभीषणसे कहा है-

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतदव्रतं मम्।।

(अ० रा० यु० ३।१२)
मेरा यह व्रत है कि जो एक बार भी मेरी शरण आकर 'मैं तुम्हारा हूँ।' ऐसा कहकर मुझसे अभय माँगता है, उसे मैं समस्त प्राणियोंसे निर्भय कर देता हूँ।

हमारी यह धारणा ही कि प्रभुने हमारा त्याग कर दिया हमारे त्यागमें हेतु है। प्रभुने कोई ऐसी बात नहीं कही, न कोई आकाशवाणी हुई। यह तो हमारी ही मूर्खता है कि भगवान् के वचनोंपर हम विश्वास नहीं करते। भगवान् की तो स्पष्ट घोषणा है। इस प्रकार प्राप्त हुई मुक्तिको तुम लात मार रहे हो, भगवान् का तो स्पष्ट विरद है। तुम अविश्वास क्यों करते हो कि भगवान् ने हमें त्याग दिया। भगवान् ने कितना सरल रास्ता बताया है। फिर भी यदि तुम ऐंठ रखो कि हम किसीके शरण नहीं जाते और मुक्ति चाहो तो भी भगवान् मुक्ति दे देते हैं। दयालु आदमीको मालूम हो जाय कि यह भूखा है, परन्तु माँगता नहीं; यह बात मालूम होतें ही दयालु आदमी उसके पास रोटी पहुँचाता है। यह निश्चय तो होना ही चाहिये कि दयालु है और आकर रोटी खिलायेगा। हमारे प्रभु किसीके दु:खको नहीं देख सकते। हम जितना भी मिजाज करेंगे सबको पूरा करके रोटी खिलायेंगे। बालक जानता है कि माँ मुझे रोटी खिलायेगी ही, वह चाहे जितना ऐंठ करे, दयालु माँ खिलाती ही है। प्रह्वाद कभी शरण नहीं गया, न कभी प्रार्थना की, भगवान् आये और उलटा प्रह्लादसे माफी माँगते हैं कि मुझे देर हो गयी। भगवान् कहते हैं- सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। (गीता ५।२९) जो भगवान् को दयालु मानता है, जानता है, विश्वास करता है, वह शान्तिको प्राप्त हो जाता है यह विशेष मौका है। जो भगवान् को दिलसे चाहता है, भगवान् उसे मिल जाते हैं। यह उनका कानून है-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

(गीता ४।। ११)
हे अर्जुन! जो भक्त जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। भगवान् सत्संकल्प हैं, उनकी इच्छासे ही हमारा कार्य बन जायेगा। भगवान् को चाहते रहो भगवान् अवश्य मिलेंगे। हम स्वयं ही विलम्ब होनेके कारण हैं। भगवान् तो बिना बुलाये ही आते हैं। फिर हम याचना करें तो भगवान् रुक ही कैसे सकते हैं। हम हृदयसे नहीं चाहते।

लगन लगन सब कोई कहे लगन कहावे सोय।
नारायण जा लगनमें तन मन दीजे खोय।।


पुत्रके लिये, धनके लिये भगवान्से प्रार्थना करना तुच्छ है, इतने बड़े आदमीसे इतनी छोटी प्रार्थना। हमें तो वह चीज माँगनी चाहिये, जिसका कभी नाश न हो। सूर्य चन्द्रमाका नाश होनेपर भी उसका नाश न हो ऐसी माँग पेश करनी चाहिये। भगवान् ऐसी माँग पूरी कर देते हैं। जो माँग पेश नहीं करते, उनका कार्य और जल्दी सिद्ध होता है। भगवान् कहते हैं- 'नियोंगक्षेम आत्मवान्' (गीता २।४५)। राग-द्वेष, प्रिय-अप्रिय सब द्वन्द्वोंसे रहित हो जा, केवल मेरे परायण हो जा, मेरी शरण हो जा। भगवान् तुरन्त प्रकट हो जाते हैं, सदाके लिये सुखी कर देते हैं। भगवान्से कोई चीज माँगनेकी आवश्यकता ही नहीं है, यदि

माँगनेकी इच्छा हो तो भगवान् को ही माँग ले। भगवान् नित्य-वस्तु हैं सदाके लिये सुख-शान्ति प्राप्त हो जाय, यदि दूसरी माँग पेश करनी हो तो यह करे कि हे प्रभु हम आपसे मित्रता चाहते हैं, आपसे प्रेम करना चाहते हैं और भी माँग करनी हो तो सदाके लिये सुख माँगे और नीचे उतरे तो स्वगादि माँग सकते हैं।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तों जिज्ञासुरथार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।

(गीता ७।१६)
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कार्य करनेवाले अर्थार्थी, आर्त्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं।

पहले तीन अज्ञानी हैं और चौथा ज्ञानी है। ज्ञानी अर्थात् निष्कामी है। अज्ञानी इसलिये कि वे माँगते हैं, भगवान् तो बिना माँगे ही देते हैं। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु कष्ट निवारणके लिये मुक्तिके लिये प्रार्थना करता है। ज्ञानी ऐसा निष्कामी है कि देनेपर भी नहीं लेता, माँगना तो दूर रहा। 'एकभक्तिर्विशिष्यते' मैं ज्ञानीकी अत्यन्त प्रिय हूँ वह मुझे अत्यन्त प्रिय है, प्रह्लाद अतिशय प्रिय है। ज्ञानी उसे कहते हैं जिसके हृदयमें ज्ञान हो। भगवान् के तत्व रहस्यको जाननेवाला हो। प्रहादको भगवान् कहते हैं वर माँग, प्रह्वाद बोले क्या मुझे छल रहे हैं? क्या मैं वणिक हूँ? सौदा करता हूँ? भगवान् कहते हैं-मेरी खुशीके लिये माँग। प्रह्लाद कहते हैं आप बार-बार माँगने को कहते हैं, अवश्य ही मेरे मनमें माँगनेकी इच्छा छिपी इच्छा हो तो वह न रहे। एक अन्य कथा सुनी हुई है प्रह्लादको जब भगवान् ने बहुत कहा तब प्रह्लादने कहा कि आप देनेका वचन दें। भगवान् ने स्वीकार किया तो प्रह्लाद बोले कि सबका उद्धार कर दें। भगवान् बोले उनका पाप-पुण्य कौन भोगेगा? प्रह्लाद बोले-मुझे भुगता दें। भगवान् बोले-तुमको कैसे भुगतायें। प्रह्लाद बोले-सबको माफ कर दें। भगवान् बोले-सबका उद्धार कैसे हो सकता है? प्रह्लाद बोले

जैसी आपकी इच्छा। भगवान् बोले-जो मन, वाणी, शरीर किसी प्रकारसे भी तुम्हारे संसर्गमें आ जाय, दर्शन-स्पर्श कुछ भी करेगा, उसका उद्धार हो जायगा। इसीलिये तुलसीदासजी कहते हैं।

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्रजति मां सर्वभावेन भारत।।

(गीता १५।१।९)
हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्वसे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।

यह भक्त की दृष्टि है। तुलसीदासजीका कहना भगवान् की दृष्टिसे ही है- रामसिन्धु घन सजन धीरा। जल समुद्रका ही है, पर जीवनका आधार तो बादल ही है, वही जल बरसाता है। मोर, पपीहा बादलको देखकर मुग्ध हो जाते हैं। किसान हर्षित होता है। बादल जल बरसाता है, भगवान् के भक्त प्रेम बरसाते हैं, वाणीके द्वारा सबको तृप्त कर देते हैं। जिज्ञासु लोग प्रेमकी बातें सुनना चाहते हैं। जगत् में बादल न होते तो समुद्रका जल हमारे क्या काम आता। तरसकर मर जाते। बादलके मुखमें आकर खारा जल मीठा हो जाता है। भगवान् के भक्तोंके द्वारा अमृत वर्षा होती है। यह प्रेमका दृष्टान्त है। दूसरा ज्ञानका दृष्टान्त है- चन्दन तरु हरि सन्त समीरा/भक्त ज्ञानी सबको ब्रह्ममय बना देता है। वायुकी विशेषता है, लाखों वृक्षोंको चन्दन बना देता है। संसारमें जितने ज्ञानी, महात्मा हुये हैं सब भक्तोंकी ही कृपा है। भगवान् की महिमा संसारमें भक्तोंको लेकर ही है। रामसे बढ़कर रामके दास होते हैं। भगवान् ने दुर्वासाको कहा 'अहं भक्त पराधीन:' मैं भक्तोंके आधीन हूँ।

निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यडिस्ररेणुभिः।।

(भा० ११।१४।१६)
मेरे जो भक्त कुछ भी इच्छा नहीं रखते, हमेशा भगवचिन्तनमें मग्न रहते हैं शान्त स्वभाव हैं, किसीके साथ भी जिनका वैरभाव नहीं है, सबमें समदृष्टि हैं ऐसे मेरे निष्काम प्रेमीजनके पीछे-पीछे मैं नित्य फिरा करता हूँ कि इनकी चरणधूलि मेरेपर पड़ जाय तो मैं पवित्र हो जाऊँ।

भगवान् का भक्त भगवान् की चरणधूलि चाहता है इसलिये भगवान् को भी यह चाहना करनी पड़ती है, अन्यथा भगवान् भक्त के ऋणसे मुक्त नहीं होते। भक्त मानता है कि मैं भगवान् के अधीन हूँ भगवान् अपनेको भक्तके अधीन मानते हैं। भक्त भगवान् का ध्यान करे तो भगवान् भक्तका करते हैं। अपनी-अपनी दृष्टिकी बात है। भगवान् का कहना अपनी दृष्टिसे है, तुलसीदासजीका कहना विनोदमें और भगवान् की दृष्टिसे है। तीन बातें कानून की हैं-

(१) भगवान् की स्वाभाविक दया सबपर है, भगवान् बिना कारण दया करते हैं, मनुष्य-शरीर देते हैं, सबको मौका देते हैं, यह विशेष कानून है।
(२) जो मुक्ति चाहता है उसे मुक्ति देते हैं।
(३) जो मुक्ति की याचना नहीं करता, परन्तु वास्तव में मुक्त होना चाहता है उसे भी मुक्ति दे देते हैं।

नारदजी भगवान् के पास गये बोले सबका उद्धार कर दो। भगवान् बोले जो चाहता हो उसे ले आओ। नारदजी बहुत घूमे कोई चाहनेवाला मिला ही नहीं।

हम भगवान् की शरण हो गये और भगवान् ने स्वीकार कर लिया। यह विश्वास कर लेना चाहिये कि जीव सब प्रकारसे परतन्त्र होनेपर भी शरण जानेमें स्वतन्त्र है।



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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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