गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
वैराग्य की आवश्यकता
आपसमें भाई लोग अपने-अपने दोषोंको एक-दूसरेसे जाननेकी चेष्टा करें और उनका सुधार करनेकी चेष्टा करें। एक-दूसरेमें आपसमें बड़ा प्रेम हो। गोपियाँ बन्दर आदि सब इकट्ठे होकर बहुत प्रेमसे भगवान् की चर्चा करते थे। हमलोग भी आपसमें इकट्ठे होकर भगवचर्चा करें। 'बोधयन्तः परस्परम्' इससे बहुत लाभ है। वैराग्य उपरामता बहुत ऊँची चीज है। भक्ति, योग, ज्ञान सब मार्गोंमें बड़ी सहायक है। संसारमें वैराग्य उपरामता किसी भी लक्ष्यसे हो जाय, चाहे दोष देखकर, चाहे घृणा देखकर किसी भी तरह हो, विषयोंसे वृत्तियाँ हटानेकी आवश्यकता है। जिस-जिस समय वैराग्यकी झलक आती है, वृत्तियाँ संसारसे खिंच जाती हैं और सात्विक सुख मिलता है। अभ्यासात् रमते-इसका फल अलौकिक सुख होता है। वैराग्यवान् पुरुष तो हमलोगोंका व्यवहार देखकर वैसे ही हँसते हैं, जैसे-हम बालकोंकी क्रीड़ा देखकर हँसते हैं। बालकोंका खेलमें रमना और विषयी पुरुषोंका विषयमें रमना एक-सी ही बात है। अगर विषयोंमें रमना ही सुख है तो वेश्या सबसे सुखी हुई, उसके ऐश, आराम, शौकीनी सबसे ज्यादा है। कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः यह आसुरी सुख है। वेश्या आदिमें बाहुल्यतासे मिलता है। वैराग्यका अर्थ बाहरी पदार्थोंका त्याग नहीं है। त्याग तो दम्भसे, हठसे, भयसे भी कर सकता है, त्याग वैराग्ययुत हो तभी उत्तम है। वैराग्य मनकी वृत्ति है न च सन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति (गीता ३। ४)। प्रधानता भीतरी त्यागकी है, असली चीज तो वैराग्य है।
परमात्मा की प्राप्ति होने पर आसक्ति का मूल सहित त्याग हो जाता है।
रागद्वेषवियुतैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवशयैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २। ६४-६५)
अपने अधीन किये हुए अन्त:करणवाला साधक अपने वशमें की हुई राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्त:करणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है। अन्त:करणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
सारे दु:खोंका नाश हो जाता है। बुद्धि परमात्माके स्वरूपमें स्थिर हो जाती है। परमशान्ति मिल जाती है। सच्चा वैराग्य हो जानेपर परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब नहीं होता। यह आसक्ति मन, बुद्धि विषयोंसे हटकर परमात्मामें हो जाय तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाय। भगवान् अनन्य प्रेम चाहते हैं, हमारा प्रेम संसारमें बँटा है। जबतक संसारका रस आता है तबतक भगवान् में असली प्रेम कैसे हो सकता है। संसारमें रस आनेसे सीढ़ी-दर-सीढ़ी गिरता-गिरता धमसे रसातलमें चला जाता है।
ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
(गीता २।६२-६३)
विषयों का चिन्तन करनेवाला पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोधसे अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है।
संसारसे स्नेह हटाकर परमात्मामें लगाना ही एक उपाय है। दृढ़ वैराग्यरूपी शस्त्रद्वारा इस संसारवृक्षको काट डालें। रागबुद्धिसे कभी चिन्तन ही न करें, इसको आदर ही न दें। फिर ईश्वरकी शरण होकर ध्यानके द्वारा उनकी खोज करनी चाहिये।
सगुण विषयकी बहुत महत्त्वपूर्ण बात बतायी जा रही है। यह बात समझमें आ जायगी तो संसारसे ऐसा वैराग्य हो जायगा, जैसे- मैलेसे (विष्ठा) हो रहा है। ऐसी अनोखी बात है कि वाणीके द्वारा बतलायी नहीं जा सकती, वाणीमें आ ही नहीं सकती, फिर भी महात्मा लोग हमलोगोंकी दृष्टिसे ही समझाते हैं। कोई एक ऐसे स्थानमें चला जाय जहाँ कभी सूर्य उदय ही नहीं हुआ। वहाँके निवासियोंको सूर्यका प्रकाश कैसे समझाया जाय। प्रभुकी रूपमाधुरीका कोई वाणीके द्वारा वर्णन ही नहीं कर सकता। हम लोगोंको समझानेके लिये ही कुछ कहा जाता है। प्रभुके दर्शनमात्रसे प्रेम साक्षात् मूर्तिमान् होकर प्रकट हो जाता है। नेत्रोंमें इतना आकर्षण आ जाता है कि प्राणोंका त्याग करना सहज है, परन्तु उसका त्यागना कठिन है। ऐसी अद्भुत बिजली दौड़ जाती है, स्पर्शमात्रसे बेहोश-सा हो जाता है। कामीका उदाहरण दिया जा सकता है, परन्तु यह तो अत्यन्त घृणित वस्तु है। चमड़ा लपेटा हुआ मल-मूत्रका भण्डार है, इसकी उसके साथ क्या तुलना की जाय। सारी दुनियाका प्रेम इकट्ठा कर लिया जाय, वह उस साक्षात् प्रेममूर्तिके प्रेमसागरकी एक बूंदके बराबर भी नहीं है। उसकी कोई तुलना ही नहीं
है। इन बातोंका आधार बनाकर उस परमात्माके स्वरूपका चिन्तन करना चाहिये। परमेश्वरकी शरण होकर यह विश्वास करना चाहिये कि उनकी कृपासे सब काम सफल हो जाते हैं।
सबको अपने ऊपर प्रभुकी अपार दया समझनी चाहिये। उनका महान् स्नेह और प्रेम है। जो यह समझता है वह तो लाभ उठा लेता है और न समझनेवाला वंचित रह जाता है। बिलकुल वंचित तो नहीं रह सकता परन्तु लाल (रत्न) की जगह कौड़ी ही मिलती है। प्रभुकी दया अपार और असीम है। उसका किसी प्रकार भी तौल-नाप नहीं हो सकता। मनुष्य जीवनका समय अमूल्य है। हमारा वर्तमान समय जिस प्रकार बीत रहा है यह क्या प्रभुकी साधारण दया है। संसारमें करोड़ों प्राणी दिन-रात हाय धन, हाय धन करते हैं। कौन इस प्रकार समय बिताता है प्रभुकी यह विशेष दया है। हम किसी अंशमें प्रभुकी दयाको मानते हैं, उसीका यह फल है, अगर पूरी तरहसे दया मानने लगें तो फिर ऐसा समय बीते कि क्या कहा जाय।
सूर्योदय होनेसे पूर्व ही तारे मन्द पड़ जाते हैं। उदय होनेपर एक अद्भुत रोशनी हम देखते हैं। हमारी वर्तमान स्थिति तो सूर्यके उदयसे दो घड़ी पूर्वकी छटा है। तारे हैं तो यथावत्, परन्तु कुछ फीके पड़े हैं। ऐसे ही धीरे-धीरे रोशनी बढ़ते-बढ़ते तारे दीखने एकदम बन्द हो जाते हैं। सूर्यकी रोशनी आते ही सब फीके पड़ जाते हैं। जबतक प्रभुकी सुंदरता हमारे सामने नहीं आती, तभीतक संसारके विषयोंमें सुन्दरता दीखती है। इसी प्रकार रस-सुख आदिकी और प्रभुकी भी कोई योग्य तुलना नहीं है। प्रभु तो प्रभु ही हैं। जाननेवाला जैसे चेतन है उस प्रकारकी चेतनता वहाँ मूर्तिमान् है।
भगवान् ने ज्ञातुम्, द्रष्टम्, प्रवेष्टुम्-तीनों बातें बतायीं बुद्धिका विषय, नेत्रोंका विषय तथा आत्माका विषय, प्रवेष्टुम्-जैसे नदी समुद्रमें प्रवेश कर गयी ऐसी बात यहाँ नहीं है, विलक्षण बात है। ऐसी एकता है जिसे कोई शब्दसे नहीं बता सकता। द्वैत और अद्वैत दोनोंसे विलक्षण स्थिति है। प्राप्तिका ढंग शब्दोंसे नहीं बतलाया जा सकता, अलौकिक है। 'प्रवेष्टुम्' में बुद्धिका दायरा नहीं है, 'ज्ञातुम्' तक ही बुद्धिका अधिकार है, इन्द्रियोंकी शक्ति भी परिमित ही है। वह भक्त स्वयं ही जानता है। यह जानना कहना भी समझनेमात्रके लिये ही है, क्योंकि जानना बुद्धिका कार्य है। वह भक्त भी बतला नहीं सकता। प्रभुकी बड़ी भारी दया है कि किसी समय प्रभुकी स्मृति हो जाती है, यह प्रभुकी विशेष दया है। प्रभुकी आज्ञाकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। जब हम प्रभुकी आज्ञाका पालन करेंगे तो हमारा काम बना हुआ ही समझो। जैसे १८ दिनमें सब सेना मर गयी, उसी प्रकार काम-क्रोधकी सेना दुर्योधनकी सेनासे कम थोड़े ही है। 'ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' सेना तो मरेगी ही, भगवान् दयालु हैं, बागडोर अपने हाथमें ले चुके हैं, उनको ही लाज है। अगर वह इस सेनाको नहीं मारेंगे तो उसकी दयालुतामें धब्बा लगेगा। हम नालायक बनें तो क्या वे अपनी दयालुता छोड़ देंगे। उस दयालुकी बहुत भारी दया है इसे मानना चाहिये। उस दयाको स्मरण करके हम मुग्ध नहीं होते, यह हमारी कृतघ्रता है, इसीलिये हम वंचित हो रहे हैं। उपकार करनेवालेके प्रति प्रत्युपकार करना चाहिये, अगर प्रत्युपकार करनेकी सामथ्र्य न हो तो कम-से-कम उपकारको तो मानना चाहिये। प्रभु तो इतनेपर भी दया करते ही रहते हैं। हम यह स्वीकार कर लें, मान लें। हमारी नालायकी उस प्रभुकी दयासे ही मिटेगी। दो बातोंपर खयाल कर लेना चाहिये। 'ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' यह दयाकी बात है। परसोंसे कल बढ़कर बात हुई, कल से बढ़कर हुई, इस बढ़नेकी कोई सीमा नही जबतक कि भगवान् प्रकट होकर दर्शन न दे दें। अगर आप कहें कि ऐसी ही बातें उत्तरोत्तर हों सो यह प्रभुके हाथकी बात है। अगर आप कहें कि यह तुम्हारे हाथकी बात है तो मैं कहूँगा कि तुम्हारे हाथकी बात है। सुननेवालोंका श्रद्धाभाव ही उत्तरके रूपमें प्राप्त होता है। कहनेवालोंको तो सुननेवालोंको ही निमित्त और हेतु मानना चाहिये और सुननेवालोंको वक्ताको मानना चाहिये। वास्तव में भगवान् हेतु होते हैं। प्रभुकी अपार दया, अपार स्नेह है, उसको याद कर-करके हम मुग्ध होते रहें। प्रत्युपकार तो हम कर ही नहीं सकते, बस केवल मान लें, स्वीकार कर लें। यह तो मनुष्यतामात्र है और इतनेमें ही कल्याण है। भगवान् की दया तो पशुओंपर भी है, पर उनमें समझ नहीं है। जो दया नहीं मानता वह पशु ही है। जिस भाषामें आप समझे उसी भाषामें समझा दें। भगवान् भी यहाँ प्रकट होकर हम लोगोंको समझावेंगे तो उनको भी हमारी भाषा, हमारा भाव और हमारी मान्यता धारण करनी पड़ेगी। प्रह्लादने अपने पिताके कल्याणके लिये भगवान्से प्रार्थना की। भगवान् ने कहा कि तुम्हारी तो इक्कीस पीढ़ियाँ तर गयीं।
यह प्रह्लादकी मान्यताके अनुसार ही उत्तर है। भगवान् की क्या मान्यता है यह तो भगवान् ही जानें, हम किसी प्रकारसे भी शब्दोंद्वारा उसे बाँध नहीं सकते। भगवान् की धारणाकी व्याख्या मनुष्य नहीं कर सकता, वह तो अलौकिक है। वाणीके द्वारा मनुष्य कैसे वर्णन करे।
ध्रुवजीने राज्यकी कामना विचारके द्वारा हटा दी। पहले उनकी कामना थी, इसलिये भगवान् ने राज्य दिया अन्यथा शायद आगे जाकर उद्देश्यकी पूर्तिके लिये लोग भगवान् को भजना छोड़ देते। यह समझते कि उद्देश्य ही नष्ट हो जायगा। उसकी इच्छा हुई कि स्तुति गाऊँ। भगवान् ने शंख छुआया। यह ध्रुवकी धारणाके अनुकूल ही तो किया, परन्तु यदि कुपथ्य माँगे तो नहीं देते। बच्चा रोकर चाहे मर जाय, पर अपने हाथसे विष देना माँको स्वीकार नहीं है। भगवान् मातासे भी बढ़कर दयालु हैं जो वस्तु देनेमें हानि हो वह नहीं देते हैं। नारदजीको हरिरूप नहीं दिया, शाप ले लिया। लड़का मारने, पीटने लग जाता है तब भी मां अनिष्ट करनेवाली चीज नहीं देती। प्रभु तो हेतुरहित दया करनेवाले हैं। मां भी बदला नहीं लेना चाहती। पुत्रको यही मानना चाहिये कि मांकी मुझपर अहैतुकी दया ही है। मांका उदाहरण तो समझानेके लिये ही है। मांसे बढ़कर इस लोकमें महात्माकी दयाका उदाहरण है। वह ईश्वरकी दयाकी जातिवाला ही है। महात्मा और ईश्वर दोनोंमें एककी भी दया जान ले या दोनोंकी जान ले। हमलोग इस बातको न जाननेके कारण ही लाभ नहीं उठा पाते।
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- सत्संग की अमूल्य बातें