गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
श्रद्धानुसार आध्यात्मिक लाभ
गीताके अठारह अध्यायके पाठसे जो लाभ होता है, मनन करनेसे उससे ज्यादा लाभ होता है। भगवान् के नामका तो जप ही मुक्ति देनेवाला है। उसका मनन किया जाय तो विशेष लाभ होता है, परन्तु मुख्यता जपकी ही है, गीतामें मुख्यता मननकी है। जप तो बिना श्रद्धाप्रेमके ही मुक्ति कर देनेवाला है फिर श्रद्धा प्रेम हो तो बात ही क्या है। श्रद्धाका तो इतना महत्त्व है कि एक नामके जपसे ही कल्याण हो जाता है। श्रद्धा तो जीवन्मुक्ति देनेवाली है, बिना श्रद्धासे करे तो भी अन्तकालमें तो मुक्ति है ही। जितना प्रत्यक्षकी तरह विश्वास है उतनी ही श्रद्धा है। जिनकी श्रद्धा नहीं है उनके लिये प्रत्यक्ष होते हुये भी प्रत्यक्ष नहीं है। मनुष्य, देवता, वस्तु किसीमें भी विश्वास एवं श्रेष्ठताका भाव ही श्रद्धा है। परम श्रद्धामें प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास होता है। किसी बातको भी असंभव मानना ही नहीं चाहिये। समुद्रको सुखानेवाले टिट्टिभका प्रयत्न सराहनेयोग्य है। पक्षी समुद्रको सुखा सकता है। सारे संसारका उद्धार करना इतना कठिन काम नहीं है। परमात्माकी प्राप्तिको कठिन मानना परमात्माको निर्दय मानना है। परमात्माकी दयाके तत्वको जाननेवाला कभी नहीं कह सकता कि परमात्माकी प्राप्ति कठिन है। परमात्माके प्रेम-सुहृदताके रहस्यको जाननेवाला ऐसी बात नहीं कह सकता। अपने आचरणको देख कर तो यह बात कही जा सकती है पर भगवान् तो सुहृद् हैं, अपार दया और प्रेम करनेवाले हैं, यह बात समझमें आते ही मामला खत्म हो जाता है। भगवान् का खुला दरबार है। पूर्ण श्रद्धा होते ही उसी क्षणमें परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
अतिशय श्रद्धा-एक कुत्तेको बतला दिया कि यह महात्मा है। बस तुरन्त विश्वास हो जाय कि महात्मा ही कुतेके रूपमें आये हैं। प्रत्यक्षसे बढ़कर श्रद्धा है। दीखती तो घड़ी है कहता है कि यह फिरकी है। फिरकी दीखने लगी। प्रत्यक्षसे बढ़कर श्रद्धाका यह रूप है। भगवान् की बात तो दूर रही यह महात्माकी बात है।
जिसकी महात्मा पर श्रद्धा होती है, उसके मनमें कोई शंका, भय, चिन्ता नहीं रहती, न कुछ जानना बाकी रहता है, न कुछ कर्तव्य बाकी रहता है। सब समाप्त हो जाते हैं। अगर उसे कुछ जाननेकी ही इच्छा है कि मुझे जल्दी परमात्मा मिल जायें तो उसे महात्मा नहीं मिले। वह कोई भी प्रश्न करता है तो महात्माकी बुद्धिके भरोसे नहीं है। वह पूछता है तो महात्मा उत्तर दे देते हैं, अन्यथा कोई चिन्ता, भय, आकांक्षा रह ही नहीं सकती।
महात्मा प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी उनके दर्शन-ध्यानसे कल्याण हो जाता है, फिर यदि साक्षात् मिल जायें तो कहना ही क्या है। हमें तो उन महात्माके ही इशारे पर चलना है। हमारे उद्धारकी तो कोई बात ही नहीं चिन्ता ही नहीं है। अगर वे महात्मा चाहते हैं कि हम नरक में जायें, तो वह नरक हमारे लिये हजारों मुक्तिसे बढ़कर है। जो पूर्वमें बहुतसे महात्मा हो गये हैं, जिनका नाम हमें मिलता है, उन पुरुषोंका नाम उच्चारणसे भी हमारा कल्याण हो सकता है। यह बात मेरे कहनेसे ही नहीं युक्तिसंगत भी है। मनुष्य जिसका नाम लेता है, उसके स्वरूप, गुण, आचरण, प्रभावका भी स्मरण आ जाता है। उदाहरण-एक स्त्रीका रूप-लावण्य सुन्दरता सुन रखी है, उसका नाम याद आते ही हावभाव-कटाक्ष सामने आ जाते हैं, शरीरकी दशा बेदशा हो जाती है। काम जागृत हो जाता है। जब एक तुच्छ स्त्रीकी याद करनेसे यह दशा होती है तो महात्माओंको याद करनेसे महात्माओंके भाव, स्वरूप, गुण आयेंगे ही। शुकदेवजीका नाम लेते ही उनका स्वरूप हमारे सामने खड़ा हो जायगा, उसका हमपर असर पड़ेगा और हम शुकदेव बन जायेंगे। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-'वीतराग विषयं वा चितम्, यथाभिमद ध्यानाद्वा' जो आदर्श पुरुष स्वीकार है उसका ध्यान करनेसे हमारा कल्याण हो महात्माकी दया मानते हैं। मिलना हो जाय तो फिर कहना ही क्या है। बातचीत हो जाय, संकेत हो जाय, तब तो उसके आनन्दका ठिकाना ही नहीं रहता कि महात्माने मुझे अपना ही लिया। यदि आज्ञा हो जाय तब तो फिर कहना ही क्या है। उद्धारकी तो बात ही नहीं है। यहीं तक तो श्रद्धाकी बात है। महापुरुष किसीको शाप-वर दे दें, तब तो श्रद्धा आदिकी बात ही नहीं, वे जैसा कह देते हैं, हो ही जाता है। हमारे कल्याणके लिये शाप भी दे देते हैं। 'सर्वभूतहिते रताः -बस यही काम होता है। नहुषने महर्षि अगत्यजीसे कहा शीघ्र चलो। अगस्त्यजीको लात मारी। कानूनके विरुद्ध किया। महर्षिने कहा सर्प होकर गिरो। बस सर्प हो गया, प्रार्थना करने लगा, अगस्त्यजीने कह दिया युधिष्ठिरसे मिलकर बात करनेपर इस दोषसे छुटकारा मिल जायगा।
ब्रह्माजीकी सामर्थ्य नहीं है कि उनकी बातको टाल सकें, भगवान् भी नहीं टाल सकते। श्रृंगी ऋषिने शाप दे दिया बात मिटनेकी नहीं। उनके इशारेको भी कोई ना नहीं कर सकता। जड़ भी उनकी आज्ञाको नहीं टाल सकते। च्यवन ऋषि अश्विनीकुमारोंको यज्ञमें भाग देने लगे, इन्द्र वज्र मारना चाहता है, ऋषिने हाथके इशारेसे रोक दिया, वज्र चल नहीं सकता। पक्षी भी उनके इशारेको नहीं टाल सकते, महाभारत शान्ति पर्वमें जाजलि ऋषिका दृष्टान्त देखें, वे तुलाधारके पास गये। पक्षी भी उनकी आज्ञाको न टाल सके, आकर जाजलिके सिरपर बैठ गये, महात्माका कोई भी संकेत मिल जाय, तो धन्य भाग्य है।
उदाहरण- थोड़ी देरके लिये मान लो कि स्वामीजी महात्मा हैं और मैं इनपर श्रद्धा करनेवाला हूँ। इनकी ही चीज है। जहाँतक यह भाव है कि हमारी चीजको ये कृपा करके काममें ले रहे हैं तबतक उससे नीचा ही भाव है। भगवान् की भी यही बात है।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।
(गीता ९। २७)
हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर।
यह अच्छा भाव है, पर इससे भी ऊँचा भाव सब कुछ भगवान् का ही है। तुम अपनी तरफसे अर्पण हो जाओ तो उसी समय बाध्य होकर भगवान् को स्वीकार करना पड़ेगा। जबतक स्वीकार नहीं करते तबतक हमारे अर्पणके भावमें ही कमी है। जबतक हमने अपना ही अधिकार जमा रखा है, तबतक कोई अच्छा पुरुष भी उस चीजको स्वीकार नहीं करता। जबतक हम अपनी चीजकी प्रशंसा करते हैं तबतक महात्मा या ईश्वर कैसे लें। वह तो आपके कामकी है। जबतक हमारा अहंकार रहता है तबतक ईश्वर स्वीकार नहीं करते। जब यह कहता है कि आपकी ही चीज आपके अर्पण करता हूँ मैं तो केवल गुमास्तामात्र हूँ। तब भगवान् देखते हैं कि ठीक है।
मूकं करोति वाचाल पहूं लङ्कयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्।।
यह दयाका भाव है। जिसकी कृपा मूककी वाचाल कर देती है, जाता है, उस परमानन्द माधवको हमारा प्रणाम है। भगवान् के बहुतसे नाम हैं-माधव परमानन्दमें क्या विशेषता है-जिसकी कृपा मूकको वाचाल बनाती है। मूक कौन जो समयपर बोलना नहीं जानता, वह वाचाल बोलनेलायक बन जाता है। मैं तो वास्तवमें इस भगवद्विषयमें मूक ही हूँ। आप किसी अंशमें मुझे वाचाल मान रहे हैं यह भगवत्कृपा ही है। यथार्थ मार्गमें चलना ही यहाँ चलना है। भगवान् की आज्ञानुसार पंगु भी इस मार्गमें चलने लगता है। जो भी कुछ कहनेके अनुसार काममें लाया जाता है यह उनकी कृपा ही समझनी चाहिये। पंगुकी पहाड़पर चलाना और गूंगेको बुलाना यह तो मामूली बात है। कोई महात्मा कह दे कि चल तो चलने लग जाय। लौकिक और अलौकिक, मूक और वाचालकी बात हुई। उनकी कृपा ऐसी चीज है। माधवमां लक्ष्मीके पति। मां-आह्लादिनी विद्या, अमृत विद्याके पति, लौकिक श्री, माया, प्रकृति उनकी शक्ति है, उनके अधिकारमें है। जरा-सा हुकुम कर दें टांग लगा दो बस लगा दे। ऐसे ही बोलना आदि सारी शक्तियां तो माधवके हाथमें है। कुम्हारके हाथमें माटी है चाहे जैसा खिलौना बना दे। मां ब्रह्मविद्याके स्वामी प्रभु हैं। ऐसी प्रभुकी कृपासे मूक वाचाल बन जाय, महामूढ ब्रह्मका वक्ताका बन जाय तो कौन बड़ी बात है, वह ब्रह्म प्रातिके मार्गपर चलने लग जाय तो कौन बड़ी बात है। भगवान् की तीन शक्ति हैं-लक्ष्मी, ब्रह्मविद्या और आह्वादिनी। श्रद्धा बड़ी महत्वकी चीज है। जैसे यह मकान है सब मानते हैं कि ईट, मिट्टी, चूनेका बना है। कोई महापुरुष कह दे कि यह सोनेका है। जिसकी विशेष श्रद्धा है उसे सोनेका दीखने लगता है। मान लेता है ऐसी बात नहीं है सोनेका दीखता है।
पहले तो मिट्टीका ही था जब आपने कह दिया कि सोनेका है तो मिट्टीका दीखनेपर भी उसके भीतर सोना भरा पड़ा है, यह मानना दो नम्बर श्रद्धा है।
महाराजके मुँहसे भूलसे वचन उच्चारण हो गये, महाराज यदि कह दें कि सोनेका बन जाय तो बन सकता है। यह तीन नम्बरकी श्रद्धा है।
यह असम्भव बात है कि मिट्टीकी चीज सोनेकी हो सकती है कोई सम्भव बात कहें तो हो सकती है। किसी पापीको कहें धर्मात्मा बन जाय पर कुत्तेको कह दें कि महात्मा बन जाय तो थोड़े ही बन सकता है, शनिवारका सोमवार और रातका दिन थोड़े ही बन सकता है। यह नीचे-से-नीचे दर्जेकी श्रद्धा है। इससे भी कल्याण हो सकता है। श्रद्धा जितनी तेज होगी उतनी जल्दी कल्याण हो जायगा। श्रद्धा होनेके बाद फिर विलम्बका काम नहीं रहता। परमात्मा तो सब जगह हैं ही, महात्मा कह दें कि यह भगवान् हैं श्रद्धा होगी तो मान लेगा बस कल्याण हो जायगा। गीताके आरम्भमें अर्जुनकी श्रद्धा दूसरी, मध्यमें दूसरी और अन्तमें दूसरी ही है।
आरम्भमें 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' साथ ही कहता है न योत्स्ये। भगवान् हँसते हैं कि पंचोंकी राय सिर माथेपर, लेकिन नाला वहीं गिरेगा, झगड़ा भी नालेका ही था।
बीच में- परं ब्रह्म परं धाम आपके वचन मुझे अमृतके समान लगते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके वचन इत्थंभूत हैं, यदि मैं पात्र समझा जाऊँ तो दिखला दें। भगवान् दिखाते हैं, अर्जुनको भय होता है। भगवान् कहते हैं मा ते व्यथा मा च विमूढभावः। अन्तमें भगवान् कहते हैं सर्वधर्मान् परित्यज्य समझा कि नहीं। अर्जुन कहते हैं-हाँ करिष्ये वचनं तव जो कुछ भी कहें करूंगा।
यह नहीं मानना चाहिये कि ऐसी श्रद्धा होनी असम्भव है।
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- सत्संग की अमूल्य बातें