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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।

भक्त की विशेषता


एक सजनने कहा कि भगवान् के भक्तोंके गुण, प्रभाव, चिन्तन आदिसे ज्यादा लाभ है तो फिर भक्तोंका ही चिन्तन किया जाय।

उत्तर-भगवान् के चरित्र, गुण आदिका चिन्तन तो ठीक है। ध्यान करने योग्य तो परमात्मा ही हैं, क्योंकि वास्तविक भक्तका पता नहीं लगता। अगर सच्चा भक्त हो तब तो कोई हानि नहीं है पर यदि उस भक्तमें गड़बड़ी निकल आये तो ध्यान करनेवालोंका परिश्रम व्यर्थ हो जाता है, इसलिये भगवान् का ही ध्यान ठीक है। सच्चे भक्तका निर्णय भगवान् ही कर सकते हैं। एक सज्जनने प्रश्न किया था कि महापुरुषोंको करोड़ों नास्तिक आदमी कहें कि ईश्वर नहीं है फिर भी उन्हें सन्देह क्यों नहीं होता।

यह असम्भव बात है। आपको मैं अच्छी तरह जानता हूँ। कोई कहे कि आप नहीं हैं तो मैं कैसे मानूँ। जागनेके बाद लाखों-करोड़ों आदमियोंके कहनेपर भी जागनेवाला आदमी स्वप्नके संसारको सत्य नहीं मानता। परमात्माका अनुभव, उसका ज्ञान हो जानेपर फिर कभी अज्ञान हो ही नहीं सकता।

प्रश्न-भगवान् की अपेक्षा भक्तोंके गुण चर्चासे भगवान् ज्यादा प्रसन्न होते हैं। ध्यान भगवान् का करना चाहिये। यह बात आपने कही वह ठीक समझमें नहीं आयी।

उत्तर-यह तो भगवान् की दृष्टि है। भक्त तो भगवान् का ही गुण चरित्र सुनना चाहता है।

प्रश्र-भगवान् की दृष्टि ही सत्य है।

उत्तर-इस स्थानपर भक्त भगवान् की दृष्टिमें हमें भेद नहीं मानना चाहिये। अगर हम ऐसा नहीं मानते, भतकी दृष्टिको ठीक नहीं मानते तो फिर हमको भतके गुण श्रवणसे क्या लाभ।

राजाजी-महात्मा कहें वैसे ही साधन करे। परिवर्तन करना हो तो उनको ही पूछ ले, हम झगड़ेमें क्यों पड़ें।

प्रश्न-महात्माको क्या वस्तु मिल जाती है।

उत्तर—महात्माको क्या वस्तु मिल जाती है यह बात परमात्माको प्राप्त पुरुष भी नहीं बता सकते। भगवान् भी गीतामें नहीं बतला सके केवल इतना ही कहा—
य लब्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिक तत:।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।

(गीता ६।२२)

परमात्माको प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्रातिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता। क्या मिला यह नहीं बता सके। उसके लक्षण भगवान् ने इस प्रकार बताये। अलौकिक सुख, अलौकिक शान्ति बतायी। कैसी शान्ति, कैसा सुख, यह विधिमुखसे कोई नहीं बतला सकता। पातालमें सूर्यका दर्शन कैसे समझाया जाय। एक भाईको पारस मिल गया, हजार मन लोहा छुआया सोना हो गया। अब क्या वह चाँदी, ताँबा ढोता घूमे। पारसके अन्तर्गत ही सुवर्णके पहाड़के पहाड़ हैं। सारी धनराशि उसके अन्दर है। उस पुरुषके लिये चाँदी, सोना, ताँबा समलोष्टाश्मकांचन हो जाता है। यह तो एक समलोष्टाश्मका दृष्टान्त है। मान-अपमान आदिका नहीं। उसके पास सब तरहका पारस है। ये जगत्के रस ज्ञानकी दृष्टिसे तो नीरस रसहीन हो जाते हैं। भतिकी दृष्टिसे मैलेके समान दीखते हैं। परमात्माकी प्राप्तिके बाद तो रहते ही नहीं। पारसके मिलनेके बाद रुपये-पैसेसे क्या प्रेम रहे। जब लाखों मोहरें एक क्षणमें बना सकता है। वह रुपया पैसोंसे क्या प्रेम करेगा। भगवान् को प्राप्त पुरुषका जगत्में तो क्या ब्रह्माके पदमें भी प्रेम नहीं होगा। वह तो चाहे जिसे ब्रह्मा बना सकता है। पारसके मिलनेपर कौड़ियोंको क्या इज्जत दे। उस पुरुषके लिये त्रिलोकीके ऐश्वर्यकी कोई कीमत नहीं है। संसारमें लोगोंकी आसक्ति इसलिये है कि इसमें सुख है या सुखकी आशा है। गायकी बछड़ेमें मोहसे आसक्ति है, अज्ञान ही है। यह अज्ञान मूलसहित नाश हो जाता है फिर कोई कारण नहीं। संसारका सुख विवेकीके लिये दुःखरूप है। सारे पदार्थ परिणाममें दु:खदायी हैं, सब दु:खमिश्रित हैं। कंचन पैदा करनेमें, रक्षा करनेमें, नाशमें, खर्चमें सबमें दु:ख है ही। बीस हजार रुपये किसीको दिये। लेनेवालेके द्वारा वापस न करनेपर वकील कहता है कि न्यायालयमें दूसरे आदमीकी गवाही दिलानी पड़ेगी, चाहे झूठी गवाही ही हो तो सात्विक, राजस वृत्तियाँ लड़ती हैं। सब दु:ख रूप ही है। ज्ञानीकी दृष्टिमें तो कुछ है ही नहीं। भक्तकी दृष्टि पतिव्रताकी तरह है- सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं। उत्तम पतिव्रताकी तरह भक्तकी दृष्टिमें प्रेमकी बाहुल्यतासे भगवान् के अतिरिक्त कोई है ही नहीं। संसारके पदार्थ ही नहीं हैं। अगर हैं तो उनमें सुखकी गंध ही नहीं है। सुख, शान्ति, प्रेमके नामसे यह बात बतलायी गयी है। कई तरहसे एक ही बात बतायी गयी है। कहीं शान्ति, आनन्द, अमृत, परमधाम, अव्यक्त, अक्षर उस एक ही वस्तुको समझाते हैं। बिना मिले समझमें नहीं आती, मिलनेपर भी दूसरेको बतायी नहीं जा सकती। कोई देवता यहाँ आकर भी अमृतपानकी बात हमें नहीं समझा सकता है। यहाँ अमृतकी जातिकी कोई चीज है ही नहीं। यहाँ एक शीशा रखिये। आकाशका कोई अंश आइनेके भीतर आया। किस अंशका प्रतिबिम्ब आया, आकाशका कोई परमाणु थोड़े ही है। जब आकाशका ही पूरा अंश नहीं आ सकता तो परमात्माका कैसे बताया जाय। मनकी सामथ्र्य नहीं है कि उसकी कल्पना करके समझा सके। मन जो कल्पना करे वाणी उसे नहीं समझा सकती। वास्तविक प्राप्ति तो बुद्धिमें ही नहीं आ सकती। बुद्धिमें जितना आता है, उतना भी वाणीमें नहीं आ सकता। कैसे समझाया जाय। बस इतना समझना चाहिये कि उससे ऊँची कोई चीज नहीं है। आपलोग जिसको शान्ति समझते हैं, सारी दुनियाकी शान्ति उस परमात्माकी प्राप्तिरूपी शान्तिके अनन्त महासमुद्रकी एक बूंदके चित्रके समान है। सारे शरीरको काटकर फेंक दे तो भी उसकी शान्ति विचलित नहीं हो सकती।

परमात्माके ध्यानका सुख भी उस सुखकी छायाका आभासमात्र है। सारी दुनियाका ज्ञान सूर्यकी धूपके प्रतिबिम्बके चिलकेके अन्तर्गत है। परमात्मा सूर्य स्थानीय है। उसकी धूपके प्रतिबिम्बके एक चिलकेमें तो अपरिमित शान्ति, सुख, गुण हैं। परमात्मामें जो गुण हैं वह सब उस भगवत्प्राप्त पुरुषमें हैं। भेद-अभेद दोनों मार्गमें जानेवालोंकी एक ही गति होती है। साधनमें तो रात-दिनका अन्तर है। आगे जाकर मिलान होता जाता है। भेदवाला अभेदको या अभेदवाला भेदको प्राप्त हो जाता है। दोनोंसे परे एक स्थिति है जिसे न भेद कह सकते हैं न अभेद। हिन्दुस्तानसे अमेरिका चले, एक पूरब चला एक पश्चिम। बड़ा अन्तर हुआ। जैसे-जैसे चले भेद बढ़ता गया फिर कम होने लगा। अन्तमें एक जगह पहुँच गये। पूरब वालेकी दृष्टिमें पूर्वमें और पश्चिम वालेकी दृष्टिमें पश्चिममें अमेरिका मिला। बर्मा जानेके लिये रेल, बोट, सड़क, विमान, चारों रास्ते हैं। घोड़ा, ऊँट सब सवारी है। रेगिस्तानके जाटके लिये ऊँटकी सवारी और सिपाहीके लिये घोड़ा ठीक है। यही बात औषधिके विषयमें है। बीस आदमियोंको बुखार है वैद्यने अलग-अलग रोगीको अलग-अलग दवा दी। रोगी कहता है हम सबको एक-सी दवा दो

एक-सी बीमारी है, हम एक साथ बीमार पड़े। वैद्य कहता है यह मेरेपर छोड़ दो, जो जिस दवाका पात्र होता है उसे वही दी जाती है। अगर यह न होता तो एक बीमारीकी एक ही दवा होती। भगवान् ने भी अलग-अलग दवा बतायी।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।

(गीता १३।२४)
उस परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं; अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं।

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।

(गीता १३।२५)
परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोत्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।

(गीता ३।३)
हे निष्पाप ! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमेंसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा तो ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है।

संसारके सारे सिद्धान्त इन दो बातोंमें आ जाते हैं। भक्तिका सिद्धान्त, ज्ञानका सिद्धान्त दो धातु हैं। तीन रंग हैं उनसे चाहे जितने रंग बना लो। भगवान् की इच्छासे जो काम होता है वह अपनी इच्छासे बढ़कर होता है। यदि मेरे स्थानमें महात्मा होते तो यह समझना चाहिये कि प्रश्न महात्माकी इच्छासे ही होता है। भगवान् को बीचमें लानेकी जरूरत ही नहीं है। जहाँ महात्मा पुरुष हों वहाँ ऐसी बात करनी कि इन्होंने यह प्रश्र क्यों किया, महात्माको कलंक लगाना है। अगर तुम अंट-संट कहते हो तो तुम अपनी मूर्खताका ही परिचय दे रहे हो। तुम उनको महात्मा मानते ही नहीं हो। इतने दिन उनके पास रहकर तुम इतना भी नहीं जानते। तुमपर महात्माका कुछ भी प्रभाव नहीं है। महात्माको क्या जाना। उनसे प्रश्न कोई करे उत्तर तो वही देंगे। तुम अपनी अकल क्यों लड़ाते हो इसीलिये कि तुम्हारी महात्मामें श्रद्धा नहीं है। महात्मामें काम, क्रोध, लोभादि विकारोंका लेशमात्र भी नहीं है। उनके चरित्रमें अनीति और दोषोंका लेश भी नहीं है। थियेटरमें काम-क्रोधका तमाशा होता है। महात्मामें इन चीजोंकी गुंजाइश भी नहीं है। भगवान् राम सीताके लिये विलाप करते हैं कामके नाटकका नमूना दिखाया। परमेश्वरकी तुलना भक्तके साथ और भक्तकी तुलना परमेश्वरके साथ ही दी जायगी। तीसरा दृष्टान्त कहाँसे दिया जाय। चौदह हजार राक्षसोंको क्षणभरमें मार डाला। राक्षसोंको पूछो- भगवान् में कितना क्रोध है। भीष्म दस हजार रथियोंको मारनेके लिये अस्त्र छोड़ते हैं, देखनेमें क्रोध दीखता है, वास्तव में क्रोध नहीं है। महात्माके पास रहनेवालोंमें दोष है तो या तो वे लोग महात्माका संग करते नहीं या किसी साधारण पुरुषको ही महात्मा मान लिया है या वे अपात्र हैं, महात्माको बदनाम ही करते हैं। निर्विकार महात्माके पास आनेवालेका विकार दूर नहीं हुआ तो महात्माको उन्हें या तो अपने जैसा बना लेना चाहिये या त्याग देना चाहिये। ये अच्छे नहीं बनते यह हमारा दोष है। लोगोंको यह समझना चाहिये कि महात्मा तो विशेष दया करके कलंक सिरपर लेते हुए भी हमारा त्याग नहीं करते हैं। हम तो उनको बदनाम ही करनेवाले हैं।

उस महान् वस्तुकी प्राप्तिके लिये जीवन त्यागनेके लिये हमको एक क्षणका भी विलम्ब नहीं करना चाहिये। प्रभुने हमको पशु आदि नहीं बनाया। हमलोगोंको विशेष अधिकार प्राप्त योनि दी, मनुष्य बनाया। मुक्तिका प्रमाणपत्र दिया, चेक मिल गया, रुपया लाने बैंक जा रहे हैं। रास्तेमें चेकका दुरुपयोग करें, चेकको फाड़ने लगें तो हमारी कितनी मूर्खता है। हम यहाँ आकर प्रमादमें लग गये। भगवान् कहते हैं उन मूढोंको, पापियोंको मैं नरक में गिराता हूँ। नरकमें गिरानेकी बात तो ठीक है मां अप्राप्य क्यों कहा ? इसलिये कि वास्तव में हम उनको प्राप्त करनेके पात्र हैं, प्राप्ति नहीं हुई यह हमारे प्रमादका फल है। हमारी मूर्खताकी हद हो गयी। परमात्माकी हमलोगोंपर इतनी दया है। परमात्माका हमारे मस्तकपर हाथ है। फिर हमारे उद्धारमें चिन्ता ही क्या है। प्रभु दर्शन देनेके लिये तैयार हैं। हमारे प्रमादसे ही विलम्ब हो रहा है, हमें सावधानीसे अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये। राजपुत्रका जन्मसे स्वभाव सिद्ध राज्यपर अधिकार है। बच्चा नाबालिग है। गवरमेन्ट कोर्ट आफ वार्डस बैठाकर राज्यकी व्यवस्था करती है। बच्चेको लायक बनाकर राज्य दे देती है। परमात्माकी प्राप्ति हमारे बापका राज्य है। परमात्मा ही हमारा योगक्षेम वहन करते हैं। लायक भी वही बनाते हैं, देते भी वही हैं। कोई बदमाश लड़का हो, मारपीट करे, आग लगाये, बड़ी बदमाशी करे तो उसे जेलमें भी डालना पड़ता है। भगवान् बड़ा पश्चाताप करते हैं कि लोग क्या कहेंगे। इस राजपुत्रकी योग्य बनानेके लिये मैंने सारे साधन किये, यह राज्यका अधिकारी हो सकता था, किन्तु मुझे जेल भेजना पड़ रहा है। राज्य न देकर काले पानी भेजना पड़ रहा है। हमारे इष्टदेव परमात्मा यहाँ मौजूद हैं। हमें साथ लेकर खेल रहे हैं, लीला कर रहे हैं। जैसे भगवान् श्रीकृष्णने ग्वालोंको साथ लेकर, भगवान् रामने रीछ वानरोंको साथ लेकर लीला की थी। हम तो मनुष्य हैं, यह भगवान् की बड़ी दया है। नाटकके स्वामी-नेताके इशारेपर सारे पात्र चलते हैं। स्वामी कराता है वैसे हम सब कर रहे हैं। भगवान् की दया और प्रेम अपार है। जैसे पतंगे लालटेन बुझानेवालेकी दयाके तत्त्वको नहीं समझते, उसी प्रकार हम भी नहीं समझ रहे हैं। परमेश्वरकी हमारे पर असंख्यगुनी दया है। इतने बड़े दयालुकी दया और प्रेम है, तब कोई शोक, चिन्ता, भयकी बात नहीं है। उस प्रभुपर इस प्रकारका भरोसा करना चाहिये। यह तमाशा जल्दी समाप्त होनेवाला है। समय थोड़ा ही रहा है। जो नाटकके मालिकको खुश कर देता है, मालिक सारा अधिकार उसे दे देता है। अपने-आपको भी उसको दे दूँगा यह प्रभुकी घोषणा है। बड़ा मूल्यवान् समय है, ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। हमको इस स्टेजका जो मौका मिला है वह हाथसे निकल गया तो फिर न मालूम कब मिलेगा। लाखों-करोड़ों जीव मौका माँग रहे हैं। न मालूम फिर कब हमारा नम्बर आयेगा। समय कीमती है, अमूल्य है। लाख रुपया देनेपर भी पाँच मिनट नहीं मिलेगी, एक सेकेण्डका भी समय बढ़नेकी गुंजाइश नहीं है। जल्दी-से-जल्दी कार्यकी सिद्धि कर लेनी चाहिये। मैं ऐसा बनूँ कि स्वामी मेरे अनुकूल बन जायें, मैं मालिकको खुश करूं, यह चेष्टा करते रहना चाहिये। निरन्तर मालिकको लक्ष्यमें रखना चाहिये। हमारे कार्योंसे मालिकको जल्दी खुश करनेकी चेष्टा करें। मालिक बड़े दयालु हैं। सब भूलें माफ कर देते हैं। हमें छूटका आसरा कभी नहीं लेना चाहिये। मालिकको खुश करनेके लिये उसके इशारेपर नाचनेके लिये कठपुतली बन जायें। मालिकके इशारेको हम समझते रहें, मालिककी इच्छाके माफिक बन जायें। यही असली शरण है, असली भक्ति है।

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।

(गीता १०।९)
निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चा के द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।

'मच्चिताः' मालिककी तरफ लक्ष्य रखनेके लिये है। कठपुतली जड़ है उसे ध्यान करनेकी आज्ञा नहीं। हमारेमें विशेषता है। हमें उसकी तरफ लक्ष्य रखते हुए बाजीगरके झमूरेकी तरह बाजीगरकी ओर लक्ष्य रखते हुए उस मदारी भगवान् के हम झमूरे बनकर उनके साथ खेल करते रहें। झमूरा जानता है कि हमारा बाजीगर दूसरोंको नहीं देखते हुए भी खेल करता है। बड़ी कला है। अपना तन, मन, धन जिनपर हमारा अधिकार, ममता, अहंकार है, सब भगवान् को अर्पण कर दें। मेरी तरफ ही जिनका लक्ष्य है किस प्रकार चित लगाना चाहिये उनका तो उदाहरण वास्तव में कोई है ही नहीं, पर जैसे चन्द्रमाको चकोर हर समय देखता रहता है उसी प्रकार हम प्रभुको देखते रहें। अपने इष्टको मानसिक नेत्रोंसे हर समय देखते रहें। प्रभुसे हमारे मनतक चित्त वृत्तियोंकी धारा बँध जाय। दूसरा पक्षी बीचमेंसे उड़ा, चन्द्र-चकोरके बीचकी धारामें व्यवधान आ गया, किन्तु चकोर मरा नहीं। हमें तो व्यवधान स्वीकार न करके मरना स्वीकार कर लेना चाहिये। एक क्षणका भी व्यवधान स्वीकार न करके मरना स्वीकार कर लेना चाहिये। एक क्षणका व्यवधान हो उस समय दूसरी बातका स्मरण हो और हम मर जायें तो हमारी क्या गति हो। प्रभु तो सब कुछ माफ करते हैं। पर माफी लेनेवालोंकी अपेक्षा न लेनेवाला गौरवका पात्र है। यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि हमें माफी नहीं चाहिये। अन्यथा प्रभुको उस अभिमानको दूर करनेके लिये कोई दूसरी परिस्थिति करनी पड़ेगी ताकि हमें माफी माँगनी पड़े। मच्चिताका यही भाव है कि व्यवधान पड़े ही नहीं, पड़े तो मछलीकी तरह प्राण तड़फड़ाने लग जायें। फिर प्रभु व्यवधान नहीं पड़ने देंगे। उनकी प्रतिज्ञा है 'योगक्षेमं वहाम्यहम्'। 'मदूतप्राणा:' हमलोगोंके प्राण शरीरगत हैं शरीर गया प्राण गये। उनके प्राणोंके आधार भगवान् हैं सारी इन्द्रियाँ भगवान् के गतप्राण हैं। जीवात्माके जैसे शरीरगत प्राण है। ऐसे ही भगवान् में हम भगवदूत प्राण हों। 'बोधयन्तः परस्परम्' समय ऐसे ही बीते, ऐसा नहीं हो तो मौन ही रहना चाहिये। ऐसे पुरुषोंकी क्रिया-लक्षण भगवान् इस प्रकार बताते हैं-'तुष्यन्ति च रमन्ति च' पतिव्रता पतिमें ही रमण करती है। दूसरा पुरुष उसकी दृष्टिमें ही नहीं होता।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।

(गीता ६।३१)
जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।

जहाँ वृत्ति जाती है, जहाँ नेत्र जाते हैं, वहीं भगवान् में क्रीड़ा करता है, मुग्ध रहता है, नित्य रमण करता है, प्रेमपूर्वक निरन्तर भजता है। यह रमण ही भजन है। जैसे गोपियाँ एक भगवान् को ही सर्वत्र देख रही हैं। वहाँ दूसरा कोई पुरुष ही उनकी दृष्टिमें नहीं है। एकीभावमें स्थित हुआ भजता है अर्थात् रमण करता है। वह महात्मा साधक इस प्रकार प्रीतिपूर्वक रमण करता है। प्रेममें कोई कामना नहीं, भय नहीं। केवल प्रेम करता है, में उसको प्राप्त हो जाता हूँ। साधन करनेके लिये तत्पर रहे, एक क्षणका भी व्यवधान मृत्युके समान बन जाय। छूट कभी न चाहे, भले ही प्राण चले जायें, मुक्ति न हो, परमात्माकी प्राप्ति न हो, ऊँचे दर्जेके भक्तके लिये कहते हैं- निर्योगक्षेम आत्मवान्। मुक्तिके लिये नहीं भजते। योगक्षेमको न चाहनेवाला और आत्मपरायण हो। एक क्षणका चिन्तन छुटे तो रहा नहीं जाता। हे प्रभो! हे दीनबन्धो! एक क्षणका व्यवधान न पड़े। हे प्रभो! मैं इसके लायक नहीं हूँ। ऐसी अवस्था हमारी बन जाय कि वह सहन न हो। हे नाथ ! बस ऐसा चिन्तन निरन्तर बना रहे। मुक्तिको तो वे ठुकरा देते हैं, छूट नहीं चाहना उत्तम है। छूट नहीं चाहे तब भी मिलती है। निर्योंगक्षेम बने। ऐसी छूट हम नहीं चाहते इसमें विशेष गौरव है। गौरवके लिये नहीं लेते यह बात नहीं। हम तो अशक्त हैं, कमजोर हैं, हम तो उसका अभीतक रस भी नहीं जानते, तभी तो सहते हैं। प्रभो हमको ऐसा बना दो कि यह व्यवधान हम सह न सकें।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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