गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
प्रेम का स्वरूप
रात्रिके समय गोपियाँ भगवान् के पास गयीं। भगवान् ने कहा रात्रिको वनमें परपुरुषके पास नहीं आना चाहिये लौट जाओ। उन्होंने उत्तर दिया कि क्या आप परपुरुष हैं-आप तो सबके हृदयमें विराजमान हैं। प्रेममें लज्जा, भय, संकोच, शोक कुछ भी नहीं होता। भगवान् की इच्छा उनको वापस भेजनेकी नहीं थी। प्रेम और श्रद्धा दोनोंमेंसे एक हो जाय तो बेड़ा पार है। भगवान् की प्रत्येक क्रिया गोपियोंके लिये महान् आनन्ददायक थी। भगवान् संसारको आनन्द देनेवाले हैं। वे भगवान् की आह्लादिनी शक्तिरूपा गोपियाँ भगवान् को आनन्दित कर रही हैं। अपने प्यारे प्रीतमको प्रेम और आनन्दमें मुग्ध कर रही हैं। भगवान् को आल्हादित कर रही हैं, मुग्ध कर रही हैं। उस रसराज रसीले श्रीकृष्णको अपनी माधुर्य क्रीड़ासे मुग्ध कर रही हैं। कभी गाती हैं कभी नाचती हैं, एक यही ध्येय है कि भगवान् प्रसन्न हों। प्रेम मधुर है, अनिर्वचनीय है, प्रेम द्रव पदार्थ है, प्रेम आनन्दकी मूर्ति है, प्रेम रसमय है। यहाँतक तो शब्दकी गम है। इसके आगे उस प्रेमको कोई बता नहीं सकता, वहाँ शब्दकी गम नहीं है। उस समय कोई दर्शक हो वह भी देखकर मुग्ध हो सकता है बता नहीं सकता। उस समयका प्रेम न चित्रमें आ सकता है न वाणीमें। चित्रमें आ सके तो चित्रकार उसे उपस्थित कर दें। वाणीमें आये तो कविगण उसे पकड़कर खड़ा कर दें। भगवान् श्रीकृष्ण उत्तरोत्तर अपनी क्रियाका ज्ञान है। क्रियाओंमें सावधानी है। आगे जाकर तो न देशका न समयका न अपने आपका ज्ञान है। वही आल्हादिनी शक्ति है, भगवान् को आल्हादित करते हुए भी उसमें अपनापन कुछ भी नहीं है। अहंकारका अत्यन्त अभाव होता है। जीवन्मुक्तिसे भी विशेष स्थिति है। वहाँ ऐसी अद्भुत स्थिति हो जाती है जिसे कोई वर्णन नहीं कर सकता। गोपियोंमें कर्तापन है ही नहीं, यह प्रेमकी पहले बतायी हुई अवस्थासे उच्च स्थिति है। जीवन्मुक्त पुरुषसे भी इसमें विशेषता है। कर्तृत्व, अभिमान, अहंकार तो दोनों ही नहीं है, परन्तु उसमें बुद्धि रहती है, इनमें वह भी नहीं है। जल, बूंद, ओले सब धातुसे एक ही वस्तु हैं। शान्ति, प्रेम, आनन्द अलग-अलग नाम रूपसे दीख रहे हैं। वह सच्चिदानन्दघन ही इस जगह माधुर्य रूपमें आनन्दरूपसे प्रकट हुआ है। यह सब आनन्दके ही भेद हैं। श्रद्धा साधकके लिये मददकारक है, साधनकी जड़ है। प्रेम साध्य वस्तु है, साधन नहीं है।
आनन्द ही प्रेमके रूपमें प्रकट हुआ है, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही प्रेमके रूपमें प्रकट है। श्रद्धा साधकका भाव है। चेतन, ज्ञान, प्रकाश, क्रिया ये सब चेतन शक्तिके भेद हैं। परमात्माके सत् स्वरूपको अक्रिय ये शब्द उस सत्यके ही द्योतक हैं, सत्यके ही भेद हैं, सत्य ही इन रूपोंका द्योतक है, एक ही अनेक होकर दीखता है। अपने प्रेमास्पद भगवान् श्रीकृष्णको प्रेमकी साक्षात् मूर्ति गोपियाँ जिस समय हैं, मुग्ध कर रही हैं। इसके बाद उनको यह ज्ञान ही नहीं रहता कि मैं सुख पहुँचा रही हूँ, अपने-आपका ही ज्ञान भूल जाती हैं। उस समय उनकी क्रियाको देखकर भगवान् एकदम विह्वल हो जाते हैं गोपियोंकी जो क्रिया होती है, वह स्वाभाविक क्रिया है। ज्ञान, नीति, मान, भय, कुछ भी नहीं रहता। यह विचार भी नहीं रहता कि मैं प्यारे प्रेमीको मुग्ध कर रही हूँ। आह्लादिनी शक्ति प्रेमरूपा होकर भगवान् को मुग्ध कर रही है। उससे ऐसी चेष्टा हो रही है, कर्तापन तो वहाँ है ही नहीं। उस समय प्रभुकी अलौकिक दशा होती है। प्रभु भी अपने-आपको भूल जाते हैं, बँध जाते हैं, विवश हो जाते हैं, विह्वल हो जाते हैं। चिन्मय भगवान् अचेत हो जाते हैं। जिस समय कीर्तन करनेवाला अपने-आपको ऐसा भूल जाता है कि उसे देश, काल, क्रिया एवं अपने-आपका भी ज्ञान नहीं रहता उस होती है, लोग द्रवीभूत हो जाते हैं। जिस समय शंकरने प्रेम रसमें मुग्ध होकर अपने-आपको भुलाकर गान किया। उस समय भगवान् विष्णु जल होकर बहने लगे। मक्खन गर्मी पाकर बहने लगता है, ऐसे ही भगवान् बहने लग जाते हैं। मक्खनके बहनेमें हेतु ताप है, भगवान् के बहनेमें हेतु प्रेम है। ऐसी स्थितिको न तो कोई वाणीसे बता सकता है, न चित्र ले सकता है न भावका आकर्षण करके प्रचार कर सकता है। यह तो अलौकिक दृश्य है। जो देखते हैं वे ही देख सकते हैं, वे भी कह नहीं सकते।
भगवान् के साथ लीला करनेवाली, क्रीड़ा करनेवाली गोपियाँ अपने प्रेमास्पदके साथ तन्मय होकर ज्ञान विषयक मुक्तिको उस प्रेममें कलंक समझती हैं। भगवान् के बलात् देनेपर भी स्वीकार नहीं करतीं, अपितु विरोध करती हैं। उस समयका अहंकार भी प्रेममय है, दिव्य है। उस लीलाके सभी भाव दिव्य होते हैं। कोई तो अपनेपर प्रभुकी दया समझती हैं, कोई अपना धन्य भाग्य समझती हैं। अहा! प्रभुकी लीलामें मैं सम्मलित हूँ। कोई कहती है इसमें प्रभुका क्या निहोरा। हमें लाये बिना लीलामयकी यह लीला ही कैसे सिद्ध होती। यह विनोदमय पवित्र अहंकार है। प्रेमकी बाढ़, प्रेमका स्त्रोत बहानेके लिये प्रभु प्रेमावतार लेते हैं। गोप-गोपी उनके साथ रहकर क्रीड़ा करते हैं। उनकी संज्ञा क्या बतलायें, कारकोंमें भी उनका दर्जा बहुत ऊँचा है। ब्रह्मादिक तो उनके सामने कुछ भी नहीं हैं। दूसरोंकी मुक्ति तो उस भूमिमें जिसमें यह लीला हुई, लोटनेसे भी हो सकती है। वे भगवान् के वियोगको सह नहीं सकतीं। आरम्भका यह भाव कि इतने बड़े प्रभु साक्षात् परमात्मा और कहाँ हम, उनकी कितनी दया है। हमलोगोंको साथ लेकर ऐसा बताव करते हैं। आगे जाकर तो प्रेमके नाते में दयाकी बात नहीं रहती, वहाँ छोटे-बड़ेका दर्जा नहीं रहता। जहाँ दर्जा है, वहाँ तो श्रद्धा है, मान है। प्रेममार्गमें तो आगे बढ़कर समता है। यह एकता ज्ञानमार्गकी समतासे अलौकिक एकता है। प्रेमी, प्रेमास्पद, प्रेम तीनोंमें कोई भिन्नता नहीं रहती। उस एकताके प्रवाहके बहने बाद वहाँ श्रेष्ठता-निकृष्टता, ऊँचा-नीचा, स्वामी-सेवक कोई भाव नहीं रहता, मान-अपमान, आदर-अनादर, एक-दो कुछ भी नहीं रहता। ऐसी अद्भुत स्थिति है कोई भी उसे शब्दोंके द्वारा नहीं बता सकता है। भगवान्से किसी भी काममें, किसी भी अंशमें प्रेमी कम नहीं है। इन्द्राणी इन्द्रके साथ प्रेम करते हुए भी इन्द्रको स्वामी, मालिक मानती है, किन्तु यहाँ बड़ा अमृतमय, मधुर, शुद्ध, पवित्र, अलौकिक दिव्यभाव है। दो स्वरूप देखनेमात्रके हैं। जोड़ा तो प्रेम लीलाके लिये, प्रेमके विकासके लिये है। जोड़ेमेंसे किसीको भी श्रेष्ठ-निकृष्ट या ऊँचा-नीचा नहीं कहा जा सकता। भगवान् के साथ ऐसी क्रीड़ा, लीला, एकताकी तुलना किसीके साथ नहीं दी जा सकती।
चैतन्य महाप्रभु जब प्रेमावेशमें होते थे तब ज्ञानपूर्वक क्रिया नहीं होती थी। उनकी स्थिति ही प्रेमभक्तिका प्रचार करती थी। जब ज्ञानपूर्वक क्रिया होती तब सब काम ठीक ठिकाने होता था। गोपियाँ भी दोनों भाववाली थीं। महान् आवेशमें संसारका काम ज्ञानपूर्वक न हो तो हानि ही क्या है। वहाँ न तो ज्ञान है, न विवेक, न लज्जा, न भय, न संकोच, न मान, न अपमान, केवल प्रेम ही प्रेम है। करुणा भावकी की स्थिति में नेत्रों में जल आता है फिर नासिका में फिर मुख में आता है और रोमांच में सारे शरीर में जल आने लगता है। गोपियाँ भगवान् का संचालन करती थीं। उनका भाव देखकर भगवान् की दशा दुर्दशा हो जाया करती थी। वहाँ तो प्रेमका पुंज है। वहाँ तो सम्हालकी बात ही कलंक है। वहाँकी गोपियोंके शरीरको पिसाकर यदि चूर्ण किया जाय तो वह चूर्ण भी हँसेगा। वहाँ तो चिन्मय प्रेम-ही-प्रेम है, एक ही चीज है। वहाँ तो एक ही धातु है, प्रेमकी डली है। हिंगलू डला है। डली है तो वही चीज है पीस डाली तो वही चीज है। गोपियोंको अगर पीड़ा होती तो भगवान् क्या अक्रूरको यह कहते कि गोपियोंके ऊपरसे रथ चला दी। प्रेमकी लीला दिखला रहे हैं, तन्मयता हो रही है, प्रेमके साथ देह और देही हो तो वियोग हो। वहाँ तो नित्य वस्तु है। सच्चिदानन्दघन आत्मा ही प्रेमके रूपमें विराजमान है, प्रेमका समूह है जैसे सूर्य तेजका समूह है, चन्द्रमा अमृतका समूह है। वहाँ तो चूर्ण पीसकर बिछाया जाय तो भी प्रेम है, मरना जीना नहीं है। अग्निमें तो प्रह्लाद भी नहीं जल सके। यह तो प्रेममय स्वरूप है, चिन्मय रूप है, चेतन है। देखनेमें जड़ दीखता है, किन्तु जड़ नहीं है। सच्चिदानन्दघनका आनन्द ही यहाँ प्रेम है। आनन्द ही आकारके रूपमें है। भगवान् श्रीकृष्णमें आनन्दके सिवाय दूसरी धातु नहीं है। मायाका प्रपंच है ही नहीं, दिव्य चिन्मय आनन्द है। निर्गुणकी व्याख्याके समय संसारको स्वप्रवत् नाशवान् बताया भी जाय उस समय इस धातुका सम्बन्ध नहीं है। भगवान् अपने ऊपर परदा डाल लेते थे पर भक्तोंके सामने वह ठहर नहीं सकता था, परदा फट जाता था।
अवजानन्ति मा मूढा मानुषी तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।
(गीता ९।११)
मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ़ लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्यरूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।
(गीता ४।६)
मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिकी अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।
मायाका परदा मूढ़ोंके लिये ही था। माया भक्तोंके सामने नहीं सकती थी। असली रूप प्रकट हो जाता था। जगत्के सामने तो खुफिया पुलिसकी तरह विचरते थे, पर तत्त्व जाननेवालोंसे खुफिया नहीं छिप सकती। पहचान जाते ही परदा हट जाता है। भगवान् ने हनुमान्को पहचान लिया, हनुमान्का वानरका रूप हो गया, ब्राह्मणका हट गया। भगवान् श्रीकृष्ण उसी समय विराट्रूप हो गये। उसी समय चतुर्भुज हो गये और फिर तत्काल ही उन्होंने घोड़े और लगाम हाथमें धारण कर लिये।
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- सत्संग की अमूल्य बातें