गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
निराकार स्वरूप का ध्यान
प्रश्न- बोले बिहँसि महेश तब ज्ञानी मूढ़ न कोइ।
जेहिं जस रघुपति करहिं तब सो तस तेहि छन होइ।।
उत्तर-जिसके जैसे पूर्वकृत कर्म होते हैं भगवान् वैसा ही फल देते हैं। फलभोगमें परतन्त्रता है, स्वभावके परतंत्र भगवान् के परतंत्र है।
प्रश्न-मनुष्य जो पाप करता है वह भगवान् कराते हैं या स्वभावसे परतंत्र होकर करता है या स्वतंत्रतासे करता है।
उत्तर-नवीन कर्म करनेमें ईश्वरकी आज्ञा, अपना स्वभाव, अपना पुरुषार्थ तीनों हेतु हैं। प्रारब्धमें पाप मानें तो अन्यायका दोष आता है। जो पाप करवाये वह दण्ड भोगे। हमारी स्वतंत्रता नहीं होती तो शास्त्र आज्ञा ही नहीं देते। भगवान् किसीसे पाप करवायें यह युक्तिसंगत बात नहीं है।
आपके द्वारा संसारका हित होता है तो आपका उद्धार हो रहा है अगर आप अहितमें निमित्त बन रहे हैं तो आपकी हानि होगी। जिसके द्वारा लोगोंका हित होता है उससे कल्याण होता है यह नियम है।
ज्ञानका प्रकरण
(१) जो कुछ है, है नहीं बिना हुए ही दीखता है केवल एक आत्मा है।
(२) जो कुछ है, है नहीं बिना हुए ही दीखता है केवल एक ब्रह्म है।
(३) जो कुछ है सब आत्मा है।
(४) जो कुछ है सब ब्रह्म है।
इनके प्रत्येकके दो-दो भेद होते हैं व्यवहारमें और एकान्तमें।
तत् ब्रह्मका वाचक त्वं जीवका वाचक
(समष्टि चेतन) (व्यष्टि चेतन)
अहं ग्रहकी उपासना मैं ब्रह्म हूँ ऐसी बात गीतामें ध्यानके प्रकरणमें आयी है।
बाह्यस्पर्शष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्रुते।।
(गीता ५।२१)
बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्मके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनन्दका अनुभव करता है।
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा बाहरको भूलकर अपने–आप आत्मा ही आनन्दमय है, अपनी आत्माके सिवाय कोई वस्तु नहीं, ऐसा अनुभव करनेवाला ब्रह्मको प्राप्त होता है। सबका बाध करके आत्माका ध्यान अहं ब्रह्मास्मिकी उपासना हुई। शनै: शनैरुपरमेद् अर्थात् केवल आत्माका ग्रहण और सबका त्याग करे।
शनैः शनैरुपरमेदबुद्धया धूतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।।
(गीता ६।२५)
क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे। केवल आत्माका ध्यान करे।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योंतिरेव य।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।
(गीता ५।२४)
जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त सख्ययोगी शान्त ब्रह्मको प्राप्त होता है।
'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' बाहरी सुखका जिसने त्याग कर दिया है। उस ब्रह्मका ही ध्यान करनेवाला है। ब्रह्म आनन्दमय ज्ञान स्वरूप है। विज्ञान आनन्दघन है, वह मैं ही हूँ। संसारको बाध करके केवल ब्रह्मका ध्यान करे।
जो कुछ है इनका बाध नहीं अपितु जो कुछ है मेरी आत्मा है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
(गीता ६।२९)
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है।
सर्वत्र सब जगह सारे भूत मेरी ही आत्मा हैं। मेरा स्वरूप हैं। यह एकान्तमें भी चल सकता है। अधिकांश में व्यवहारका है। यह त्वं पदकी दृष्टिसे कहा गया। सब मैं ही हूँ। सारे भूतोंको आत्मा ही समझे।
व्यवहार कालमें आत्म बुद्धिसे* गीता १४।१९ के अनुसार अनन्त आकाशकी तरह व्यापक हो गया। सब मेरे संकल्पके आधारपर है-मैं छोड़ दे तो कुछ नहीं, सारा ब्रह्माण्ड मेरे अन्तर्गत है। महान् हो जाय, आकाश भी उसमें समा जाय। यह व्यवहारकालका आत्मदृष्टिका साधन है।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।
(गीता १४।१९)
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से
अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघन स्वरूप मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।
तदबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।।
(गीता ५।१७)
जिनका मन तद्रुप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रुप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही जिनकी निरन्तर एकीभावसे स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्तिको अर्थात् परमगतिकी प्राप्त होते हैं।
यहाँ तत् शब्दसे कथन भगवद्बुद्धिसे है अहं शब्दसे नहीं, आत्म शब्दसे नहीं। एक सच्चिदानन्दघनके सिवाय और कोई वस्तु है ही नहीं।
पहले उसका मनन होता है फिर उसमें स्थित हो जाता है। मनन करते-करते मन खो गया बुद्धिमें निश्चय हो जाता है। बुद्धिसे पकड़े-पकड़े बुद्धिकी वृत्तिसे ध्यान करता है फिर बुद्धि उसमें मिल गयी यह बुद्धि विशिष्टकी स्थिति हुई। फिर तत्परायण हो जाता है फिर परमात्माकी सत्तासे उसका काम चलता है। जिसका कोई मालिक नहीं उसका काम सरकार चलाती है। समष्टि चेतनमें स्थित होनेपर संसारका अत्यन्ताभाव हो जाता है। जागनेके बाद हमलोग स्वप्नके संसारमें नहीं जा सकते। वहाँ अत्यन्ताभाव है। तत् रूपसे ब्रह्मकी उपासना एकान्तमें इस प्रकार बतायी गयी है।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।
(गीता १३।१५)
वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है, और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है तथा अति समीपमें दूरमें भी स्थित वही है।
जो कुछ ऊपर नीचे बाहर भीतर है, सब परमात्माका स्वरूप है। जो कुछ है इस रूपमें ब्रह्म है। यह व्यवहारकालका भी साधन है। दोनों कालमें ही हो सकता है। दूरसे दूर नजदीकसे नजदीक एक ब्रह्म है। मिटता है-ब्रह्म कायम रहता है। सब संसारको स्वप्नवत् समझता है तथा व्यवहारकालमें संसारका अभाव देखते हुए ब्रह्मको नित्य देखता है। प्रतीति भी हो तो तिरमिरे, मृगतृष्णाके जल, आकाशमें बादलकी तरह दीखते हैं।
एक विद्वान् जलका तत्त्व बतलाता है। जलका तत्त्व जानना चाहिये। बरफ, बूंद, बादल, परमाणु सबमें जल है। जल नहीं होता तो कहाँसे आता। यही सूक्ष्म तत्त्व है। हमलोग इस शरीरको, इन लोगोंको प्रत्यक्ष समझते हैं इनकी अपेक्षा इनका कारण नित्य है। बरफकी अपेक्षा जल अधिक नित्य है जलकी अपेक्षा परमाणु अधिक नित्य है। शरीर प्रत्यक्ष है आत्मा जितना प्रत्यक्ष है उतना यह शरीर नहीं है। स्थूल शरीरकी अपेक्षा सूक्ष्म शरीर ज्यादा प्रत्यक्ष है। स्थूलका निर्णय हम सूक्ष्म शरीरसे ही करते हैं। इन्द्रियाँ मन बुद्धिसे ही निर्णय होता है। स्थूलका क्षण-क्षणमें विनाश परिवर्तन हो रहा है। क्षणभंगुर है। जिस ढाँचेमें दीखता है उसकी यदि १०० वर्षोंकी अवधि है तो १०० वर्षोंमें करोड़ों बार परिवर्तन होता है। क्षण-क्षणमें परिवर्तन होता है। स्थूलका सम्बन्ध थोड़े कालका है। मुर्देमें इन्द्रियाँ मन, बुद्धि नहीं दीखती। कहीं तो हैं ही, क्योंकि पहले थीं। स्थूलको प्रत्यक्ष करनेवाला दूसरा ही है। प्रत्यक्ष करनेवाला बलवान् है, सूक्ष्म है, श्रेष्ठ है। हम आँखसे हाथ देखते हैं। इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। सूक्ष्म शरीरमें भी इन्द्रियोंसे मन श्रेष्ठ है। इन्द्रियोंकी बातोंको मन जानता है। मनको आँख, कान आदि नहीं देख सकते, उसकी प्रत्यक्षता इनसे बढ़कर है। उससे भी बढ़कर प्रत्यक्षता बुद्धिकी है, जिससे हम निश्चय करते हैं। मन कहीं चला गया। बुद्धि जानती है कि मन कहीं चला गया। बुद्धि नहीं गयी। बुद्धि बलवान् है, सूक्ष्म है, श्रेष्ठ है। रात्रिमें आवाज हुई, मन मनन करता है कि बिलाव है या चोर है या और कुछ है, बुद्धिने निश्चय कर लिया चोर है। नेत्रोंसे देखते हैं। आँखसे मन बलवान् है, प्रत्यक्ष है। इन सबसे प्रत्यक्ष आत्मा है। बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ सब चली जाती हैं। एकान्तमें बैठकर सबको भुला दो। आत्माको नहीं भुला सकते। आत्माका अस्तित्व बलवान् है। आत्मा नहीं बदलता। बीस वर्ष पहले मैंने देखा, आज मैं देखता हूँ, आत्मामें परिवर्तन नहीं हुआ। बुद्धि बदल जाती है। विद्या पढ़ी, बुद्धि बदल गयी। नेत्र, कान, मनकी शक्ति बदल जाती है। अन्नसे मन बनता है। १५ दिन उपवास किया, कहा गया वेद सुनाओ, स्मरण नहीं। भोजन करो, अब सुनाओ, याद आ जाता है अन्नसे मन बना। सबसे प्रत्यक्ष आत्मा है। ये सब पदार्थ विनाश होनेवाले हैं, आत्माका कभी नाश नहीं होता। कोई भी आदमी अपने अभावका अनुभव नहीं कर सकता। सबसे प्रत्यक्ष आत्मा है। ये सब चीजें विनाशशील हैं।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।
(गीता २।१७)
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।
स्थूल शरीर १०० वर्षतक रह सकता है। सूक्ष्म शरीर अधिकसे-अधिक महाप्रलयतक। कारण शरीरकी अवधि ज्ञान होनेतक है। तीनों शरीर नाशवाले हैं किन्तु आत्मा का नाश नहीं होता, आत्मा अप्रमेय है। ज्ञान होनेपर तीनों शरीरोंका नाश हो जाता है। व्यक्त-अव्यक्त, सगुण–निर्गुण, साकार-निराकार सब मिलकर ब्रह्मका स्वरूप है। ब्रह्माके रचे प्रपंचका नाश हो जाता है। ब्रह्मका कोई दृष्टान्त नहीं है, क्योंकि सारी वस्तुएँ जिनका दृष्टान्त दिया जा सकता है, जड़ हैं। जैसे जलका तत्त्व परमाणु, बादल, बूंद, बरफ, फिर भाप होता है। जल तत्वका कभी विनाश नहीं हुआ। देखनेमें परिवर्तन लीलामात्र दीखता है। इसी प्रकार भगवान् का तत्त्व है। संसारके पदार्थ विकारवाले हैं, नाशवान् हैं। यह बात भगवान् के साथ नहीं घटती। जैसे जल एक रक्ती भी कहीं नहीं जाता केवल रूपान्तर होता है। ऐसे ही भगवान् की लीला है।
प्रश्र-बुद्धिके निश्चय और आत्मामें क्या अन्तर है?
उत्तर-बुद्धि द्वार है, द्वार जड़ है। जाननेवाला आत्मा है। घड़ीको हाथसे उठाते हैं। उठानेवाला आत्मा है। हाथ तो द्वार है। ऐसे ही बुद्धि द्वार है, गीताका एक श्लोक भूल गये, स्मृति मनकी वृत्ति है। फिर सारी गीताका पाठ करने लगे। यही श्लोक था, स्मृतिसे याद आ गया। दस वर्षके बाद एक बच्चेको देखते हैं। उसके दाढ़ी-मूंछ आ गयी, वह कहता है पहचाना मुझको मैं वही हूँ। शरीरमें अन्तर पड़ गया मेरेमें नहीं।
उपवास करनेसे विस्मृति हो गयी थी, भोजन किया मनकी वृत्तियाँ फिर जाग्रत् हो गयीं। स्वप्नसे जागृति हो गयी फिर उस स्वप्नके संसारका अभाव है। देखनेवाला तो वही है। स्वप्र प्रत्यक्ष देख रहा था, स्वप्रकी प्रत्यक्षता उस समय बुद्धिके निश्चयसे ही थी। अब वह निश्चय बुद्धिमें नहीं है। आत्मा वही है। शुद्ध आत्मासे मन बुद्धिका सम्बन्ध ही नहीं है। बुद्धिको समझाना चाहिये कि तुम उस स्वप्नके संसारको एकदम निश्चय मान रही थी। बिलकुल निश्चय था। किंचित भी फर्क नहीं था, एकदम प्रत्यक्षता थी। जागते ही तुम्हारी वह प्रत्यक्षता कहाँ गयी। जाग्रत्में स्वप्र कल्पित रूपसे है और स्वप्रमें तो जाग्रत् कल्पित रूपसे भी नहीं था। यह जागृति तो न स्वप्नमें है, न समाधिमें, न मूर्च्छामें, न परमात्माकी प्राप्तिमें इसकी क्या प्रत्यक्षता है। अपनी-अपनी स्थितिमें सभी प्रत्यक्ष हैं।
प्रश्र-मृत्युके बाद इस संसारका ज्ञान रहता है या नहीं।
उत्तर-देवादि लोकमें जानेवालोंको ज्ञान रहता है, पितरलोकमें भी ज्ञान होता है। ऊपर जानेवालोंको ज्ञान है। नीचेके लोकमें जानेवालोंको ज्ञान नहीं रहता। बुद्धि कुण्ठित होती जाती है। वृक्षादिकी स्थिति देखते हैं। महामूढ़, तमोगुणी वृक्षादि होते हैं। हमारी अपेक्षा तो पशुओंमें बुद्धि कम है। उत्तरोतर ज्ञानका अभाव होता जाता है।
ऊर्ध्वगच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।
(गीता १४।१८)
सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते हैं और तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित तामस पुरुष अधोगतिकी अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको तथा नरकोंको प्राप्त होते हैं। ऊपरके लोक उज्ज्वल सात्विक और दिव्य हैं।
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- सत्संग की अमूल्य बातें