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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।

व्यवहार-सुधारसे मुक्ति


आपलोगोंके व्यवहार-व्यापारमें सुधार हो जाय तो बड़ा अच्छा हो। राजा जनकको याज्ञवल्क्यजीके उत्तरोंसे बहुत सन्तोष हुआ। उन्होंने सारा राज्य याज्ञवल्क्यजीको दे दिया। याज्ञवल्क्यजीने स्वीकार कर फिर राजाको अपना गुमास्ता बनाकर संचालन हेतु सारा राज्य राजाको दे दिया। यही निष्काम कर्मयोगका सिद्धान्त है। सब कुछ भगवान् के अर्पण कर दे। बार-बार उनको पूछकर कर्म करे। भगवान् सबके हृदयमें हैं ही।

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।

(गीता १५।१५)
मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदोंद्वारा मैं ही जाननेके योग्य हूँ तथा वेदान्तका कर्ता और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ।

शास्त्र भी भगवान् की आज्ञा है। व्यवहारमें लोभ, विषमता, झूठ, कपट इन चारोंका त्याग कर दे तो वह व्यवहार ही मुक्तिका देनेवाला है। स्वयं सेवककी तरह रहे। एक लोभका त्यागकर दे तो सब सुधार हो जाय। व्याज, भाड़ा, नौकरी अपना वेतन यह सब पूर्ति हो जाय, नफा करनेका लक्ष्य न हो, फिर हो जाय तो भगवत् इच्छा। लोगोंको कम-से-कम दाममें माल मिले ऐसा व्यवहार करे। लोक सेवाके लिये सब काम करे। दुनियाको अधिक लाभ कैसे हो, मूलधन बना रहे, उन रुपयोंके हेर-फेरसे लोगोंकी सेवा हो। सब रुपया भगवान् का, काम भगवान् का, हम भगवान् के, चन्देके रुपयोंकी तरह समझ ले। सारा का-सारा परमार्थमें निकाल दे। धर्मादेके पैसेसे ग्लानि हो उसी तरह इसमें भी हो। व्यवहारमें कष्ट होगा, पर मुक्ति निश्चित है। इसमें रागद्वेषका नाश होकर भगवान् मिल जाते हैं। गरीब-से-गरीब आदमी भी यह काम कर सकता है। १००/- पूँजी हो तो इसीको लगा दे। एक चना बेचनेवालेको केवल चना बेचनेसे ज्ञान हो गया। उस गाँवके राजाको भगवान् की प्राप्ति हो गयी। उस राजाने यह पता लगाना चाहा कि हमारे राज्यमें कोई भगवत्प्राप्त पुरुष है या नहीं, जगह-जगह आदमी भेजे सबको यह प्रश्र पूछकर आओ कि किसीको अमोलक वस्तु मिल जाय तो क्या करे? लोगोंने तरह-तरह के उत्तर दिये। उस चना बेचनेवालेने कहा कि किसीको अमोलक वस्तु मिल जाय तो ढिंढोरा क्यों पीटे। राजाको उसका उत्तर ठीक मालूम दिया। राजा हाथीपर चढ़कर गया। उसने राजाके बैठनेके लिये बोरा बिछा दिया। राजा प्रसन्न हुआ कहा वर माँगो। राजासे उसने माँगा न तो आप यहाँ कभी फिर आयें और न मुझको बुलायें, राजाने कहा क्यों? वह बोला १०/- की पूँजीसे चना क्रय-विक्रयका काम करता हूँ। आप आने लगेंगे तो लोग आना-जाना शुरू कर देंगे। मेरे काममें विघ्न पड़ेगा। आप बुलायेंगे तब भी वही बात होगी। कमी आपके कुछ है नहीं, व्यर्थ परिश्रम क्यों करते हैं। राजाने कहा ठीक है। उद्देश्य लोगोंके लाभका होना चाहिये, यह बड़ा सीधा रास्ता है। भगवान् कहते हैं कर्मण्येवाधिकारस्ते। पूँजी बनायी रखे। दुनियाकी सेवा दानकी अपेक्षा क्रय-विक्रय रूप व्यवहारसे करना उत्तम है। यह बड़े त्यागका काम है। अपना घर छोड़नेकी अपेक्षा इसमें सैकड़ों गुणा त्याग है। घर छोड़कर साधु होना सुगम है। यह काम चलाना बड़ा कठिन है। कठिन नहीं होता तो १०२० आदमी तो तैयार होते।


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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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