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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।

सत्संगकी आवश्यकता


आपको एक नयी बात बतायी जाती है। लोग कहते हैं कि एक बार सत्संग सुन ली फिर बार-बार सुननेकी क्या आवश्यकता है? साधन करना चाहिये, परन्तु सत्संगमें ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेसकी मीटिंग हुई और प्रस्ताव पास हो गया। सत्संग तो खुराक है। जैसे भोजन करते हैं वैसे ही दोनों वक्त सत्संग करें तो दिन रात उसका असर रहेगा। इतना भजन करना नियम बना लिया। उसका तो खयाल रखना ही चाहिये, किन्तु सत्संग तो रोज-रोज करनेकी है। नियमकी नित्य सम्हालकी आवश्यकता है कि आज कितनी बार झूठ बोला, क्रोध आया कि नहीं इस तरह रोज सम्हाल लेना चाहिये। अन्य सांसारिक विषय, सामाजिक प्रस्तावकी तरह यह नहीं है। सत्संग और ध्यान प्रतिदिन करनेके हैं। एक बार ध्यान जमा दिया बस किया करें। सत्संगमें ध्यानकी बात मिले तभी ध्यान जम सकता है। एक नम्बर महात्माओंका संग, दो नम्बर साधकका, तीन नम्बर शास्त्रोंका संग है। जैसे बद्रीनारायण जाना है। एक नम्बर तो बद्रीनारायण गए हुए व्यक्तिका संग मिलना, दो नम्बर पाँच आदमी जा रहे हैं उनका संग, तीन नम्बर टाइम टेबुलकी तरह यात्राकी पुस्तक चट्टी यात्रामें रुकनेका स्थान तो बतला ही सकती है। जिन आदमियोंको सत्संग नहीं मिलता उन्हें भजनमें आनन्द नहीं आता। सामाजिक काम जंगलके वृक्षकी तरह हैं, साधन सम्बन्धी बगीचेके वृक्ष हैं उनमें रोज पानी सींचनेकी जरूरत है। कीर्तनमें जितने आदमी सम्मलित होते हैं, प्रत्येक आदमीको उतने-उतने गुना लाभ है। कीर्तनमें अधिक-से-अधिक आदमी हों उतना ही अच्छा है। सामाजिक सभा रोज करनेकी जरूरत नहीं है, एक बार प्रस्ताव पास कर लिया। वे तो जंगलके वृक्षकी तरह हैं रोज पानी सींचनेकी जरूरत नहीं। साधक बगीचेके वृक्ष हैं, रोज सींचनेकी आवश्यकता होती है। एक गरीबकी स्त्रीके लड़का हुआ। राजाने देखा वह ज्यों-की-त्यों काम करती है। उसने रानीसे कहा कि तुम तो परदा लगाती हो और बहुत झंझट करना पड़ता है। क्या बात है। वह बोली सबकी एक-सी बात नहीं है। दूसरे दिन मालीने बगीचेमें पानी नहीं दिया। राजाने पूछा पानी क्यों नहीं दिया वृक्ष सूख गये। रानीने कहा जंगलमें वृक्षोंको रोज पानी थोड़े ही दिया जाता है। राजा बोला क्या जंगलके वृक्ष और बगीचेके वृक्ष एक-से ही हैं? रानीने कहा तो क्या रानी और मजदूरकी स्त्री एक-सी ही है। इसी तरह सत्संगकी बात और सामाजिक बातोंकी बात है। सत्संग की बातें प्रतिदिन करनेकी हैं। बालकपनसे विद्याके साथ-साथ सदाचार भक्तिकी शिक्षा रहे तो वह अच्छा तैयार हो सकता है। सैकड़ों लड़के निकलते हैं किन्तु पाँच भी अच्छे निकल जायें तो घर पवित्र हो जाता है। जहाँ महापुरुषका चरण टिक जाता है वहाँ बैठकर ध्यान करनेसे स्वत: ही ध्यान लग जाता है। बिना झाड़े-बुहारे ही वह स्थान पवित्र हो जाता है। कुल पवित्र हो जाता है। उसके कुलवाले सब परमात्माकी प्राप्तिके योग्य पात्र बन जाते हैं। कम-से-कम तीन पीढ़ी और ज्यादा-से-ज्यादा सात पीढ़ी तर जाती है। तर्पण-श्राद्ध करनेसे परमात्माकी प्राप्तिके लायक बन जाय इतना तो हो ही जाता है। एक तो स्वयं मुक्त हो जाय और एक दूसरोंको भी मुक्ति दे सके वह अधिक महत्त्वकी बात है। अग्नि चाहे घासमें गिरे चाहे घास अग्निमें गिरे वह तो भस्म ही करेगी। दोनों ही तरहसे लाभ है। संसारमें जितने भी तीर्थ हैं सब महात्माओंकी कृपासे हैं। वृन्दावन, अयोध्या आदिमें भगवान् ने अवतार लिया इसलिये तीर्थ हैं। किन्तु इसमें हेतु तो भक्त ही हैं।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनाथाय संभवामि युगे युगे।।

(गीता ४।।८)
साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पाप-कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।

कृष्णावतारका हेतु देवकी बनी, रामावतारका हेतु कौसल्या बनी। कौसल्या दशरथ हेतु बने। अवतार प्रधानतासे भक्तोंके लिये होते हैं। भक्त न होते तो आज भगवान् की इज्जत नहीं होती। जहाँ एक साधारण स्थान है, दुकान-घर है वहाँ ध्यान नहीं लगेगा। जहाँ महापुरुष बसते हों वहाँ ध्यान लगानेसे प्रत्यक्ष प्रतीत होगा। गङ्गाजीके किनारे तो प्रत्यक्ष लाभ मिलता है। रेणुकामें बैठकर ध्यान लगानेसे भी असर पड़ता है। इसमें भी प्रात:काल-सायंकालका विशेष महत्त्व है। सूर्योदयसे पूर्व तथा सूर्यास्तसे पूर्व सन्ध्या करनेसे बड़ा भारी लाभ है। आदर और प्रेमसे करे तो विशेष लाभ है। न करनेसे तो नियमसे करना बहुत अच्छा है इससे सैकड़ों गुना वह श्रेष्ठ है जो समयसे करता है, इससे भी वह बढ़कर है जो प्रेमसे करता है। हमलोग नियमसे एवं समयसे तो करते हैं, ऐसा विचार रखते हैं कि जिस दिन सन्ध्यामें विलम्ब हो जाय एक समयका उपवास करें। प्रेमका अधिक महत्त्व है। नारायणके दर्शनसे हमारी जैसी दशा हो वैसी ही दशा भगवान् सूर्यनारायणके दर्शनसे होनी चाहिये। भगवान् न मानें तो कम-से-कम महापुरुष तो मानें। इसी तरह सारे विषयमें है। गायत्री मन्त्र बोल रहे हैं, खूब प्रेमसे उच्चारण करें। प्रेम ही बड़ी चीज है। प्रेमसे सब काम किया जाय तो उत्तम है। एकान्तमें बैठकर अकेला ध्यान करे और एक महापुरुषके पास बैठकर ध्यान करे दोनोंमें बड़ा भारी अन्तर प्रत्यक्ष है। महात्मा न मिलें तो साधक तो मिल ही सकते हैं, साधकको लेकर ही ध्यान करे। सैकड़ों साधकोंमें कोई एक ही महात्मा होता है। साधक तो बहुत हैं। ध्यान परिपक्व हो जाय तब एकान्तमें बैठकर करे। अच्छी तरह परखी हुई बात है। साधनके विषयमें श्रद्धा बहुत ही महत्त्वकी चीज है। ईश्वरमें, महात्मामें, शास्त्रमें, परलोकमें पूज्यताका भाव प्रत्यक्षकी तरह विश्वासका नाम श्रद्धा है और प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वासका नाम परम श्रद्धा है।

महात्माओंकी तो बात ही क्या है, साधकोंमें भी श्रद्धा करनी चाहिये। भगवान् का दास है, इस बातपर मन न ठहरे तो यह समझे कि वह भगवान् के दासोंका दास है। उनके चिन्तन, दर्शन, भाषणसे अहोभाग्य समझना चाहिये। किसी अच्छे पुरुषका दर्शन हो तो खूब प्रसन्न एवं खूब मुग्ध होना चाहिये। चार साधनोंमें यह भी एक साधन बताया है- मुदिता। महात्मा या साधक पुरुषको देखकर मुग्ध हो जाय, प्रमुदित हो जाय। हमारी ही मूर्खताके कारण भगवत्प्राप्तिमें विलम्ब हो रहा है। हमलोगोंका प्रेम हजारों गुना बढ़ सकता है। बहुत गुंजाइश है, पर श्रद्धा नहीं है इसीलिये नहीं बढ़ता। एक-दूसरेको श्रेष्ठ दृष्टिसे देखें। इस तरह श्रद्धाकी दृष्टिसे देखनेसे प्रेम बढ़ता है। सब ऐसे देखने लगें तो कैसी स्थिति हो जाय। गोपियाँ एक साथ मिलतीं तो आपसमें मिलकर मुग्ध हो जातीं। हम लोग अपने-आप ही नीचे गिर रहे हैं। एक-दूसरेको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं, हमारे हृदयमें घृणा होती है। मानसिक मैल इकट्ठा हो जाता है। स्नान करके आये फिर मैला लगा लिया तो लोग घृणा करेंगे। उसी तरह किसीसे भी घृणा करना मैला लगाना है। क्या लाभ हुआ। बीस आदमियोंका मैला लगा लिया। ईश्वरकी दृष्टिसे सबको देखना एक नम्बर है। ऐसा न कर सकें तो सबको महात्माकी दृष्टिसे देखें। केवल अपनी भावनासे लाभ हो सकता है। केवल दर्शन करनेसे ही प्रसन्नता है। प्रत्यक्षमें लाभ है।

व्यभिचारीको देखा, दृष्टि गयी, उसके व्यभिचारसे कामका स्मरण आया, कामदीपन हुआ, पतन हुआ। प्रत्यक्षमें असर पड़ता है। हम उसकी बात सुनते ही नहीं, ध्यानमें लाते ही नहीं तो क्यों पतन होता। एक पुरुषको हम महात्मा पुरुषकी दृष्टिसे देखें, श्रद्धाकी दृष्टिसे देखें तो प्रेमके श्रद्धाके संस्कार हृदयमें भरेंगे। 'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्' फिर हम श्रद्धासे क्यों नहीं देखते। सबको श्रद्धाकी दृष्टिसे देखना चाहिये। जो साधक पुरुष है, श्रद्धाके लायक है, उसे देखकर तो श्रद्धा करनी ही चाहिये। हजारोंमें कोई एक ही साधक होता है, भगवान् स्वयं ही उसे श्रेष्ठ बतलाते हैं और उसे श्रेष्ठ मानना उचित ही है। फिर भी नहीं मानते तो इससे बढ़कर मूर्खता क्या होगी। सबको ऊँची दृष्टिसे देखें। फिर जिनमें थोड़ा भी स्वार्थका त्याग है, सेवाभाव है, ईश्वरकी भक्ति है उसकी तरफ खयाल करना चाहिये। थोड़ी मान-बड़ाईकी इच्छा भी है तो क्या है? महात्मा बननेवाला है तो वह भी महात्मा ही है। श्रद्धाके लायक है फिर भी हम श्रद्धा नहीं करते। ऐसा करनेमें हमारी क्या हानि है, हमारा ही भाव अच्छा होगा। हमें तो प्रत्यक्षमें लाभ होगा। दो बातें सार हैं-सत्संग रोज करना चाहिये तथा महात्मा और साधकोंमें श्रद्धा करनी चाहिये।



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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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