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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

भगवत्प्रेम की विशेषता

प्रश्न-कितना ही झंझट हो, मन भगवान्से हटे ही नहीं, इसका क्या उपाय है?

उत्तर-भगवान्में यदि प्रेम हो तो कितना ही झंझट हो, वृत्तियाँ भगवान्से हट ही नहीं सकतीं।

प्रश्न-इस प्रकारकी स्थिति कैसे हो? भगवान्में प्रेम कैसे हो?

उत्तर-भगवान्का गुण और प्रभावका रहस्य जाननेसे।

प्रश्न-कैसे जाना जाय? ऐसी वृत्ति किस प्रकार हो?

उत्तर-जाननेवाले पुरुषोंका संग, भजन, ध्यान, भगवान्से प्रार्थना करनेसे, भगवान्की कृपासे भक्ति फलवती होती है। भगवान् सदा सर्वदा सब जगह वर्तमान हैं, यह विश्वास करे, शास्त्र और महात्माके वचनोंपर विश्वास करे। मन और बुद्धिमें यह निश्चय करे कि गुणोंमें भगवान्से बढ़कर दुनियामें कोई भी नहीं है, भगवान् गुणोंके सागर हैं, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी हैं, इस प्रकारका विश्वास करे। केवल सर्वशक्तिमान् हों और सर्वज्ञ नहीं हों तो काम नहीं चल सकता। कोई दयालु हो, किन्तु सामथ्र्य न हो तो क्या कर सकता है? सामथ्र्यवान् और दयालु न हो तो भी काम नहीं चल सकता। भगवान् ऐसे हैं कि उनमें सब प्रकारकी शक्ति है और वे अप्रमेय हैं, परम दयालु हैं। इस प्रकार समझकर एकान्तमें बैठकर आर्तभावसे प्रार्थना करे तो काम हो सकता है। ऐसा करनेसे फिर स्मृति अपने-आप हो सकती है। भगवान्का हर समय भजन, ध्यान करनेसे प्रेम हो सकता है और प्रेम होनेसे भजन-ध्यान होता है।

संसारमें प्रिय बुद्धि हो रही है इसीलिये संसारमें आसक्ति है। संसारमें प्रेम होनेके कारण ही भजन-ध्यान नहीं होता है। भगवान्के प्रेममें बाधा आ रही है, अत: संसारको घृणित समझकर संसारसे वैराग्य करना चाहिये। फिर संसारसे वैराग्य और भगवान्से प्रेम होनेसे भजन स्वत: ही होता है। संसार रमणीय प्रतीत हो रहा है। यह समझमें आ जाय कि यह संसारकी सुन्दरता केवल दीखती ही है, बिना सुगन्धके फूल हैं, स्वप्नवत् है, जागनेपर कुछ नहीं है तो संसारसे स्वतः ही वैराग्य हो जायगा।

असली सुख तो भगवान्में ही है। भगवान् वास्तवमें आनन्दरूप हैं, अमृतमय हैं। उनका नाम, रूप, गुण, लीला, प्रभाव सभी अलौकिक है, मधुर है, चित्तको आकर्षित करनेवाला है। भगवान्को इस प्रकार समझकर भजन-ध्यान करनेसे चित उनमें रम जाता है। फिर उसे संसारकी कोई चीज भी अच्छी नहीं लगती। यदि तुलना की जाय तो प्रभुके समान कुछ भी नहीं है। तुलसीदासजीने कहा है-

निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।

यदि दुनियाके सारे गुण इकट्ठे किये जायें तो उनकी शक्तिकी एक बूंदके बराबर भी नहीं हो सकते।

प्रश्न-श्रद्धाका क्या स्वरूप है? सुनते हैं कि श्रद्धावान् पुरुषों का संग करना चाहिए, भगवान् के गुणानुवाद करना चाहिए, ये किस रूपमें कैसे करें?

उत्तर-जिन पुरुषोंका भजनमें प्रेम है, उन पुरुषोंका प्रेमसे संग करे तथा वे जो कुछ कहें, उनके वचनोंमें विश्वास करके उनका पालन करे। भगवान्के गुण-प्रभावकी बातोंको सुनकर उसके अनुसार अनुष्ठान करे यानी काममें लाये।

श्रद्धालु पुरुषोंका निश्चय और विश्वास दृढ़ होता है। कितनी ही आपत्ति आये, उनके मन-बुद्धि सिद्धान्तसे विचलित नहीं होते।

साधु, महात्मा कहते हैं, संसारमें अलौकिक पदार्थ देखनेमें आते हैं, इनको संचालित करनेवाले ही परमात्मा हैं। सब जगह परमात्मा हैं। ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार कर ले तो बादमें वह कैसे हैं यह तो वह स्वत: ही जना देंगे। फिर ईश्वरके विरुद्ध कार्यवाही नहीं हो सकती। ईश्वर-विरुद्ध कार्यवाही होती है तो ईश्वरमें विश्वास नहीं है। पापकी फुरणा भी नहीं हो सकती। यदि पापकी क्रिया भी होती है तो विश्वास कहाँ है?

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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