गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
श्रद्धाका महत्त्व
जिसे यह दृढ़ विश्वास या श्रद्धा हो जाय कि यहाँ भगवान् विद्यमान हैं, उससे पाप नहीं हो सकता।
सर्वता:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
(गीता १३।१३)
वह परमात्मा सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है। क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है।
यहाँ सरकारके गुप्तचर हैं-यह विश्वास हो जानेपर सरकारके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती। इसी प्रकार भगवान् सर्वत्र हैं यह विश्वास हो जानेपर भगवान्के विरुद्ध कोई काम नहीं होगा। इसी प्रकार महात्माके विषयकी बात है।
प्रश्न-श्रद्धा कैसे हो?
उत्तर-श्रद्धा होनेका पहला उपाय भगवान्से प्रार्थना करना तथा दूसरा उपाय आज्ञापालन है। शास्त्रके आज्ञापालनसे शास्त्रमें श्रद्धा होती है।
बालकको पहले बिना इच्छा ही विद्यालय भेजते हैं, फिर उसकी रुचि हो जाती है। बादमें इतनी रुचि हो जाती है कि घरवालोंके रोकनेपर भी नहीं मानता, इसी प्रकार कोई भी काम हो, करनेसे श्रद्धा होती है। इसी प्रकार भजन करते-करते भजनमें, महात्माकी आज्ञापालन करते-करते महात्मामें और सत्संग करते-करते सत्संगमें श्रद्धा हो जाती है।
कर्तव्य-पालन करना ही अपना उद्देश्य बना ले, उसके फलकी ओर नहीं देखे, चलता रहे। अपना जो ध्येय बना ले, कटिबद्ध होकर तत्परतासे उसका पालन करे। अपनी ऊँची स्थिति हो तो उसकी ओर भी खयाल नहीं करे, स्वामी यदि नरक में भी डाल दें तो वह भी उत्तम है, उसमें भी अपनी प्रसन्नता ही रहे। श्रद्धा-प्रेम बढ़नेके लिये भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये। यह भी कामना ही है, परन्तु परमात्माका प्रभाव न जाननेके कारण ही प्रार्थना की जाती है। परमात्मासे कहेंगे तो जल्दी होगा, नहीं कहेंगे तो नहीं होगा-ऐसी बात नहीं है। कर्तव्य-पालन करनेसे प्रभु स्वयं ही करेंगे, प्रभु सब अच्छा ही करेंगे। अच्छा ही करते हैं इसकी ओर भी लक्ष्य नहीं करना चाहिये। हमें तो यही देखना है कि हमारा काम प्रभुकी सम्मतिके अनुसार हो रहा है, उसीपर भार रखे। उससे भी ऊँची बात यह है कि अपने स्वार्थकी बातका प्रकरण ही नहीं लाये।
बस, केवल अपने कर्तव्यका ही पालन करता रहे। ईश्वरकी भक्ति सबसे बढ़कर है। अद्वैत सिद्धान्तके प्रचारक शंकराचार्यजीने यही कहा है कि सेवक जैसे स्वामीकी आज्ञाका पालन करता है, उसी तरहसे भगवान्की आज्ञाका पालन ही भक्ति है तथा प्रभुको स्मरण रखना और भी उत्तम है। 'भज्' धातुसे भक्ति बनती है। आज्ञाका पालन और सेवा, स्मरण-यही भक्ति है। जिस समय आज्ञाका पालन नहीं होता है, तब बड़ा दु:ख होता है। आज्ञाका पालन नहीं होनेपर रोना ही साधन है। फिर भविष्यमें अपनी गलतीको सुधारकर खूब सावधानीसे आज्ञापालन करना चाहिये।
असली बात यह है कि आज्ञाका पालन न करना साधनमें रुकावट है। यह अश्रद्धासे है, अश्रद्धा प्रभुके गुण, प्रभाव न जाननेसे है। प्रभु दीखते नहीं तो कैसे विश्वास करें? शास्त्र तथा महात्मा कहते हैं कि प्रभु हैं इस आधारपर मान लें।
साधन तेज कैसे हो? दृढ़ विश्वाससे। जितना अधिक विश्वास होगा, साधन उतना ही तेज होगा। यह विश्वास हो जाय कि भगवान् हैं और मिल सकते हैं तो साधन तेज हो जाय।
भगवान् तो वास्तवमें सब जगह हैं ही, यह सोलह आने विश्वास हो जानेसे ही प्राप्ति हो जाती है। यही बात महात्माओंके विषयमें समझनी चाहिये।
श्रद्धा कम हो या न हो तो भी भगवान्की आज्ञाका पालन करना चाहिये। किसी भी निषिद्ध कर्मके निकट भी कभी न जायें। उसका तो हरेक प्रकारसे त्याग करें। हठसे, भयसे, लजासे किसी प्रकारसे हो, त्याग करें।
ईश्वर न दीखें तो भी मानना चाहिये। साधु, महात्मा, शास्त्र कहते हैं, अत: इस बातपर जोर लगावे कि भगवान् प्रत्यक्ष हैं। वह सब देखते हैं। प्रभुकी आज्ञाका पालन, भजन इत्यादि करना चाहिये। रोगी रोगकी निवृत्तिके लिये विश्वास करके अरुचिकर होनेपर भी कड़वी दवाका सेवन करता है, दवासे रोग मिटे या न मिटे, परन्तु यह भवका रोग तो भगवान्के भजनसे मिटेगा ही। मन नहीं टिके तो कोई बात नहीं, आनन्द नहीं आये तो कोई बात नहीं, चाहे मनको अनुकूल न लगे तो भी भजन करता ही जाय। यह औषधि तो निश्चय ही लाभ करनेवाली है। फिर श्रद्धा-प्रेमकी तो बात ही क्या है?
मयूरध्वजको यह विश्वास था कि ये भगवान् ही आये हैं। कहा कि शरीर काट दी, ऐसा मौका फिर नहीं आयेगा। शरीर कट रहा है, उसके आनन्दका ठिकाना नहीं है, प्रह्लादको आगमें डाल दिया, सुधन्वाको तेलके कड़ाहेमें डाल दिया। उससे भी यह अधिक कड़ी परीक्षा है। वहाँ तो भगवान्की दयासे आग ठंडी हो गयी। शस्त्र प्रह्लादके शरीरको काट नहीं सकते थे, परन्तु यहाँ तो उसका शरीर कट रहा है, फिर भी आनन्दका ठिकाना नहीं है।
दुर्योधन की भगवान् में श्रद्धा नहीं थी, इसलिये उसको भगवान्की प्रत्येक क्रिया खटकती थी। उसको भगवान्की एक भी क्रिया अच्छी नहीं लगती थी। गोपियोंको भगवान्की एक भी क्रिया भारी नहीं लगती थी, एक-एक क्रिया आनन्द देनेवाली थी। केवल एक वियोग उनको सहन नहीं होता था।
भगवान् शामको गाय चराकर आते थे, उनका धूलि-धूसरित अंग भी उन्हें बहुत ही मनभावन लगता था, वह धूल भी भगवान्का गहना हो गया। गोपियोंके लिये उनकी सारी क्रिया शोभाके रूपमें है। बालकोंके साथ बैठकर भोजन कर रहे हैं। कोई भी क्रिया कर रहे हैं, असुरों को मारने की, काटने की, सब क्रियाएँ आनन्ददायक हो रही हैं। एक भी ऐसी क्रिया नहीं है जो उन्हें आनन्ददायक न हो।
जिन पुरुषोंकी भगवान्पर श्रद्धा है, उनको उनके दूषण भी भूषण जान पड़ते हैं। जैसे भगवान् कंसको मारने जाते हैं, धोबी को मारकर कपड़े छीन लिये, परंतु उनके प्रेमी श्रद्धालु को उनकी वह क्रिया खटकी नहीं, अपितु आनन्ददायक ही थी। पूतनाको मारा, श्रद्धालु तो यही कहेंगे कि उद्धार किया। जितने असुरोंको मारा सबका उद्धार हुआ।
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