गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान भगवान के रहने के पाँच स्थानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....
चन्द्रग्रहणके समय सभी दान भूमिदानके समान होते हैं, सभी ब्राह्मण व्यासके समान माने जाते हैं और समस्त जल गङ्गाजलके तुल्य हो जाता है। चन्द्रग्रहणमें दिया हुआ दान और समयकी अपेक्षा लाख गुना तथा सूर्यग्रहणका दस लाख गुना अधिक फल देनेवाला बताया गया है और यदि गङ्गाजीका जल प्राप्त हो जाय तब तो चन्द्रग्रहणका दान करोड़ गुना और सूर्यग्रहणमें दिया हुआ दान दस करोड़ गुना अधिक फल देनेवाला होता है। विधिपूर्वक एक लाख गोदान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह चन्द्रग्रहणके समय गङ्गाजीमें स्नान करनेसे मिल जाता है। जो चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गङ्गाजीमें डुबकी लगाता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करनेका फल प्राप्त होता है। यदि रविवारको सूर्यग्रहण और सोमवारको चन्द्रग्रहण हो तो वह चूड़ामणि नामक योग कहलाता है; उसमें स्नान और दानका अनन्त फल माना गया है। उस समय पुण्य तीर्थमें पहले उपवास करके जो पुरुष पिण्डदान, तर्पण तथा धनदान करता है, वह सत्यलोक में प्रतिष्ठित होता है।
ब्राह्मणने पूछा-देव! आपने पिताके लिये किये जानेवाले श्राद्ध नामक महायज्ञका वर्णन किया। अब यह बताइये कि पुत्रको पिताके जीते-जी क्या करना चाहिये; कौन-सा कर्म करके बुद्धिमान् पुत्रको जन्म-जन्मान्तरोंमें परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है। ये सब बातें यत्नपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये।
श्रीभगवान् बोले-विप्रवर! पिताको देवताके समान समझकर उनकी पूजा करनी चाहिये और पुत्रकी भाँति उनपर स्नेह रखना चाहिये। कभी मनसे भी उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। जो पुत्र रोगी पिताकी भलीभाँति परिचर्या करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है और वह सदा देवताओं द्वारा पूजित होता है। पिता जब मरणासन्न होकर मृत्युके लक्षण देख रहे हों, उस समय भी उनका पूजन करके पुत्र देवताओंके समान हो जाता है। [पिताकी सद्गतिके निमित्त] विधिपूर्वक उपवास करनेसे जो लाभ होता है, अब उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करनेसे जो पुण्य होता है, वही पुण्य [पिताके निमित्त] उपवास करनेसे प्राप्त होता है। वही उपवास यदि तीर्थमें किया जाय तो उन दोनों यज्ञोंसे करोड़ गुना अधिक फल मिलता है। जिस श्रेष्ठ पुरुषके प्राण गङ्गाजीके जलमें छूटते हैं, वह पुनः माताके दूधका पान नहीं करता, वरं मुक्त हो जाता है। जो अपने इच्छानुसार काशीमें रहकर प्राण-त्याग करता है, वह मनोवाञ्छित फल भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है।
वाराणस्यां त्यजेद्यस्तु प्राणांश्चैव यदृच्छया।
अभीष्टं च फलं भुक्त्वा मद्देहे प्रविलीयते।।
(पद्मपु°, सृष्टिख० ४७।२५२)
योगयुक्त नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुनियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वही गति ब्रह्मपुत्र नदीकी सात धाराओं में प्राणत्याग करनेवालेको मिलती है।
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