गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान भगवान के रहने के पाँच स्थानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....
एक महान् भाग्यशाली शूद्र था, जो कभी लोभमें नहीं पड़ता था। वह साग खाकर, बाजारसे अन्नके दाने चुनकर तथा खेतोंसे धानकी बालें बीनकर बड़े दुःखसे जीवन-निर्वाह करता था। उसके पास दो फटे-पुराने वस्त्र थे तथा वह अपने हाथोंसे ही पात्रका काम लेता था। उसे कभी किसी वस्तुका लाभ नहीं हुआ, तथापि वह पराया धन नहीं लेता था। एक दिन मैं उसकी परीक्षा करनेके लिये दो नवीन वस्त्र लेकर गया और नदीके तीरपर एक कोनेमें उन्हें आदरपूर्वक रखकर अन्यत्र जा खड़ा हुआ। शूद्रने उन दोनों वस्त्रोंको देखकर भी मनमें लोभ नहीं किया और यह समझकर कि किसी औरके पड़े होंगे चुपचाप घर चला गया। तब यह सोचकर कि बहुत थोड़ा लाभ होनेके कारण ही उसने इन वस्त्रोंको नहीं लिया होगा। मैंने गूलरके फलमें सोनेका टुकड़ा डालकर उसे वहीं रख दिया। मगध प्रदेश, नदीका तट और कोनेका निर्जन स्थान-ऐसी जगह पहुँचकर उसने उस अद्भुत फलको देखा। उसपर दृष्टि पड़ते ही वह बोल उठा-बस-बस; यह कोई कृत्रिम विधान दिखायी देता है। इस समय इस फलको ग्रहण कर लेनेपर मेरी अलोभवृत्ति नष्ट हो जायगी। इस धनकी रक्षा करनेमें बड़ा कष्ट होता है। यह अहंकारका स्थान है। जितना ही लाभ होता है, उतना ही लोभ बढ़ता जाता है। लाभसे ही लोभकी उत्पत्ति होती है।
लोभसे ग्रस्त मनुष्यको सदा ही नरकमें रहना पड़ता है। यदि यह गुणहीन द्रव्य मेरे घरमें रहेगा तो मेरी स्त्री और पुत्रोंको उन्माद हो जायगा। उन्माद कामजनित विकार है। उससे बुद्धिमें भ्रम हो जाता है, भ्रमसे मोह और अहंकारकी उत्पत्ति होती है। उनसे क्रोध और लोभका प्रादुर्भाव होता है। इन सबकी अधिकता होनेपर तपस्याका नाश हो जायगा। तपस्याका क्षय हो जानेपर चित्तको मोहमें डालनेवाला मालिन्य पैदा होगा। उस मलिनतारूप साँकलमें बँध जानेपर मनुष्य फिर ऊपर नहीं उठ सकता।'
यह विचारकर वह शूद्र उस फलको वहीं छोड़ घर चला गया। उस समय स्वर्गस्थ देवता प्रसन्नताके साथ ‘साधु-साधु' कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। तब मैं एक क्षपणकका रूप धारण करके उसके घरके पास गया और लोगोंको उनके भाग्यकी बातें बताने लगा। विशेषतः भूतकालकी बात बताया करता था, फिर लोगोंके बारम्बार आने-जानेसे यह समाचार सब ओर फैल गया। यह सुनकर उसे शूद्रकी स्त्री भी मेरे पास आयी और अपने भाग्यका कारण पूछने लगी। तब मैंने तुरन्त ही उसके मनकी बात बता दी और एकान्तमें स्थित होकर कहा-‘महाभागे! विधाताने आज तेरे लिये बहुत धन दिया था, किन्तु तेरे पतिने मूर्खकी भाँति उसका परित्याग कर दिया है। तेरे घरमें धनका बिलकुल अभाव है। अतः जबतक तेरा पति जीवित रहेगा, तबतक उसे दरिद्रता ही भोगनी पड़ेगी—इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता! तू शीघ्र ही अपने घर जाकर पतिसे उस धनके विषयमें पूछ।' इस मङ्गलमय वचनको सुनकर वह अपने पतिके पास गयी और उस दुःखद वृत्तान्तकी चर्चा करने लगी। उसकी बातको सुनकर शूद्रको बड़ा विस्मय हुआ। वह कुछ सोचकर पत्नीको साथ लिये मेरे पास आया और एकान्तमें मुझसे बोला-‘क्षपणक! बताओ, तुम क्या कहते थे?'
क्षपणक बोला–तात! तुम्हें प्रत्यक्ष धन प्राप्त हुआ था; फिर भी तुमने अवज्ञापूर्वक तिनकेकी भाँति उसका त्याग कर दिया। ऐसा क्यों किया? जान पड़ता है तुम्हारे भाग्यमें भोग नहीं बदा है। धनके अभावमें तुम्हें जन्मसे लेकर मृत्युतक अपने और बन्धु-बान्धवोंके दुःख देखने पड़ेंगे। प्रतिदिन मृतकोंकी-सी अवस्था भोगनी पड़ेगी। इसलिये शीघ्र ही उस धनको ग्रहण करो और निष्कण्टक भोग भोगो।
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