गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान भगवान के रहने के पाँच स्थानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....
शूद्रने कहा-क्षपणक! मुझे धनकी इच्छा नहीं है। धन संसारबन्धनमें डालनेवाला एक जाल है। उसमें फँसे हुए मनुष्यका फिर उद्धार नहीं होता। इस लोक और परलोकमें भी धनके जो दोष हैं, उन्हें सुनो। धन रहनेपर चोर, बन्धु-बान्धव तथा राजासे भी भय प्राप्त होता है। सब मनुष्य [उस धनको हड़प लेनेके लिये] धनी व्यक्तिको मार डालनेकी अभिलाषा रखते हैं; फिर धन कैसे सुखद हो सकता है? धन प्राणोंका घातक और पापका साधक है। धनीका घर काल एवं कामादि दोषोंका निकेतन बन जाता है। अतः धन दुर्गतिका प्रधान कारण है।
क्षपणक बोला–जिसके पास धन होता है, उसीको मित्र मिलते हैं। जिसके पास धन है, उसके सभी भाई-बन्धु हैं। कुल, शील, पाण्डित्य, रूप, भोग-यश और सुख–ये सब धनवान्को ही प्राप्त होते हैं। धनहीन मनुष्यको तो उसके स्त्री-पुत्र भी त्याग देते हैं; फिर उसे मित्रोंकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। जो जन्मसे दरिद्र हैं, वे धर्मका अनुष्ठान कैसे कर सकते हैं। स्वर्गप्राप्तिमें उपकारक जो सात्त्विक यज्ञकार्य तथा पोखरे खुदवाना आदि कार्य हैं, वे भी धनके अभावमें नहीं हो सकते। दान संसारके लिये स्वर्गकी सीढ़ी है; किन्तु निर्धन व्यक्तिके द्वारा उनकी भी सिद्धि होनी असम्भव है। व्रत आदिका पालन, धर्मोपदेश आदिका श्रवण, पितृ-यज्ञ आदिका अनुष्ठान तथा तीर्थ-सेवन-ये शुभ कर्म धनहीन मनुष्यके किये नहीं हो सकते। रोगोंका निवारण, पथ्यका सेवन, औषधोंका संग्रह, अपने शरीरकी रक्षा तथा शत्रुओंपर विजय आदि कार्य भी धनसे ही सिद्ध होते हैं। इसीलिये जिसके पास बहुत धन हो, उसीको इच्छानुसार भोग प्राप्त हो सकते हैं। धन रहनेपर तुम दानसे ही शीघ्र स्वर्गकी प्राप्ति कर सकते हो।
शूद्रने कहा–कामनाओंका त्याग करनेसे ही समस्त व्रतोंका पालन हो जाता है। क्रोध छोड़ देनेसे तीर्थोंका सेवन हो जाता है। दया ही जपके समान है। सन्तोष ही शुद्ध धन है, अहिंसा ही सबसे बड़ी सिद्धि है, शिलोञ्छवृत्ति ही उत्तम जीविका है। सागका भोजन ही अमृतके समान है। उपवास ही उत्तम तपस्या है। संतोष ही मेरे लिये बहुत बड़ा भोग है। कौड़ीका दान ही मुझ-जैसे व्यक्तिके लिये महादान है, परायी स्त्रियाँ माता और पराया धन मिट्टीके ढेलेके समान है। परस्त्री सर्पिणीके समान भयङ्कर है, यही सब मेरा यज्ञ है। गुणनिधे! इसी कारण मैं उस धनको नहीं ग्रहण करता। यह मैं सच-सच बता रहा हूँ। कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा दूरसे उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है।
श्रीभगवान् कहते हैं—नरश्रेष्ठ! उस शूद्रके इतना कहते ही सम्पूर्ण देवता उसके शरीर और मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। देवताओंके नगारे बज उठे। गन्धर्वोका गान होने लगा। तुरन्त ही आकाशसे विमान उतर आया। देवताओंने कहा-‘धर्मात्मन्! इस विमानपर बैठो और सत्यलोकमें चलकर दिव्य भोगोंका उपभोग करो। तुम्हारे उपभोगकालका कोई परिमाण नहीं है—अनन्तकालतक तुम्हें पुण्योंका फल भोगना है।' देवगणोंके यों कहनेपर शूद्र बोला-
‘इस क्षपणकको ऐसा ज्ञान, ऐसी चेष्टा और इस प्रकार भाषणकी शक्ति कैसे प्राप्त हुई? इसके रूपमें भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, शुक्र अथवा बृहस्पति इनमेंसे तो कोई नहीं हैं? अथवा मुझे छलनेके लिये साक्षात् धर्म ही तो यहाँ नहीं आये हैं?' शूद्रके ऐसे वचन सुनकर क्षपणकके रूपमें उपस्थित हुआ मैं हँसकर बोला-‘महामुने! मैं साक्षात् विष्णु हूँ, तुम्हारे धर्मको जाननेके लिये मैं यहाँ आया था, अब तुम अपने परिवारसहित स्वर्गको जाओ।'
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