गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान भगवान के रहने के पाँच स्थानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....
इतना ही नहीं, उसे अन्त्यजों, म्लेच्छों और चाण्डालोंकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। माता-पिताका पालन-पोषण न करनेसे समस्त पुण्योंका नाश हो जाता है। माता-पिताकी आराधना न करके पुत्र यदि तीर्थ और देवताओंका भी सेवन करे तो उसे उसका फल नहीं मिलता।
ब्राह्मणो! इस विषयमें मैं एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ, यत्नपूर्वक उसका श्रवण करो। इसका श्रवण करके भूतलपर फिर कभी तुम्हें मोह नहीं व्यापेगा।
पूर्वकालकी बात है—नरोत्तम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण था। वह अपने माता-पिताका अनादर करके तीर्थ-सेवनके लिये चल दिया। सब तीर्थों में घूमते हुए उस ब्राह्मणके वस्त्र प्रतिदिन आकाशमें ही सूखते थे। इससे उसके मनमें बड़ा भारी अहंकार हो गया। वह समझने लगा, मेरे समान पुण्यात्मा और महायशस्वी दूसरा कोई नहीं है। एक दिन वह मुख ऊपरकी ओर करके यही बात कह रहा था, इतनेमें ही एक बगुलेने उसके मुँहपर बीट कर दी, तब ब्राह्मणने क्रोधमें आकर उसे शाप दे दिया। बेचारा बगुला राखकी ढेरी बनकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बगुलेकी मृत्यु होते ही नरोत्तमके भीतर महामोहने प्रवेश किया। उसी पापसे अब ब्राह्मणका वस्त्र आकाशमें नहीं ठहरता था। यह जानकर उसे बड़ा खेद हुआ। तदनन्तर आकाशवाणीने कहा-‘ब्राह्मण! तुम परम धर्मात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ। वहाँ जानेसे तुम्हें धर्मका ज्ञान होगा। उसका वचन तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगा।'
यह आकाशवाणी सुनकर ब्राह्मण मूक चाण्डालके घर गया। वहाँ जाकर उसने देखा, वह चाण्डाले सब प्रकारसे अपने माता-पिताकी सेवामें लगा है। जाड़ेके दिनों में वह अपने माँ-बापको स्नानके लिये गरम जल देता, उनके शरीरमें तेल मलता, तापनेके लिये अंगीठी जलाता, भोजनके पश्चात् पान खिलाता और रूईदार कपड़े पहननेको देता था। प्रतिदिन मिष्टान्न भोजनके लिये परोसता और वसन्त ऋतुमें महुएकी सुगन्धित माला पहनाता था। इनके लिये और भी जो भोग-सामग्रियाँ प्राप्त होतीं, उन्हें देता और भाँति-भाँतिकी आवश्यकताएँ पूर्ण किया करता था। गर्मीक मौसममें प्रतिदिन मातापिताको पंखा झलता था। इस प्रकार नित्यप्रति उनकी परिचर्या करके ही वह भोजन करता था। माता-पिताकी थकावट और कष्टका निवारण करना उसका सदाका नियम था। इन पुण्य कर्मोक कारण चाण्डालका घर बिना किसी आधार और खंभेके आकाशमें स्थित था। उसके अन्दर त्रिभुवनके स्वामी भगवान् श्रीहरि मनोहर ब्राह्मणका रूप धारण किये नित्य क्रीड़ा करते थे। वे सत्यस्वरूप परमात्मा अपने महान् सत्यमय तेजस्वी विग्रहसे उस चाण्डाल-मन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे। वह सब देखकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने मूक चाण्डालसे कहा-'तुम मेरे पास आओ, मैं तुमसे सम्पूर्ण लोकोंके सनातन हितकी बात पूछता हूँ; उसे ठीक-ठीक बताओ।'
मूक चाण्डाल बोला--'विप्र! इस समय मैं माता-पिताकी सेवा कर रहा हूँ, आपके पास कैसे आऊँ? इनकी पूजा करके आपकी आवश्यकता पूर्ण करूंगा; तबतक मेरे दरवाजेपर ठहरिये, मैं आपका अतिथि-सत्कार करूंगा।'
चाण्डालके इतना कहते ही ब्राह्मणदेवता आगबबूला हो गये और बोले- 'मुझ ब्राह्मणकी सेवा छोड़कर तुम्हारे लिये कौन-सा कार्य बड़ा हो सकता है।'
चाण्डाल बोला-बाबा! क्यों व्यर्थ कोप करते हो, मैं बगुला नहीं हूँ। इस समय आपका क्रोध बगुलेपर ही सफल हो सकता है, दूसरे किसीपर नहीं। अब आपकी धोती न तो आकाशमें सूखती है और न ठहर ही पाती है। अतः आकाशवाणी सुनकर आप मेरे घरपर आये हैं। थोड़ी देर ठहरिये तो मैं आपके प्रश्नका उत्तर देंगा; अन्यथा पतिव्रता स्त्रीके पास जाइये। द्विजश्रेष्ठ! पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेपर आपका अभीष्ट सिद्ध होगा।
व्यासजी कहते हैं—तदनन्तर, चाण्डालके घरसे ब्राह्मणरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुने निकलकर उस द्विजसे कहा-'चलो, मैं पतिव्रता देवीके घर चलता हूँ।' द्विजश्रेष्ठ नरोत्तम कुछ सोचकर उनके साथ चल दिया। उसके मनमें बड़ा विस्मय हो रहा था। उसने रास्तेमें भगवान् से पूछा-‘विप्रवर! आप इस चाण्डालके घर में जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं, किसलिये निवास करते हैं?
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