गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान भगवान के रहने के पाँच स्थानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....
ब्राह्मणरूपधारी भगवान् ने कहा–विप्रवर! इस समय तुम्हारा हृदय शुद्ध नहीं है; पहले पतिव्रता आदिका दर्शन करो, उसके बाद मुझे ठीक-ठीक जान सकोगे।
ब्राह्मणने पूछा- तात! पतिव्रता कौन है? उसका शास्त्र-ज्ञान कितना बड़ा है? जिस कारण मैं उसके पास जा रहा हूँ, वह भी मुझे बतलाइये।
श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन्! नदियों में गङ्गाजी, स्त्रियों में पतिव्रता और देवताओंमें भगवान् श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं। जो पतिव्रता नारी प्रतिदिन अपने पतिके हित-साधनमें लगी रहती है, वह अपने पितृकुल और पतिकुल दोनों कुलोंकी सौ-सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है।
पतिव्रता च या नारी पत्युर्नित्यं हिते रता।
कुलद्वयस्य पुरुषानुद्धरेत्सा शतं शतम्।।
(पद्मपु°, सृष्टिख० ४७।५१)
ब्राह्मणने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! कौन स्त्री पतिव्रता होती है? पतिव्रताका क्या लक्षण है? मैं जिस प्रकार इस बातको ठीक-ठीक समझ सकें, उस प्रकार उपदेश कीजिये।
श्रीभगवान् बोले-जो स्त्री पुत्रकी अपेक्षा सौगुने स्नेहसे पतिकी आराधना करती है, राजाके समान उसका भय मानती है और पतिको भगवान् का स्वरूप समझती है, वह पतिव्रता है। जो गृहकार्य करनेमें दासी, रमणकालमें वेश्या, भोजनके समयमें माताके समान आचरण करती है और जो विपत्तिमें स्वामीको नेक सलाह देकर मन्त्रीका काम करती है, वह स्त्री पतिव्रता मानी गयी है। जो मन, वाणी, शरीर और क्रियाओं द्वारा कभी पतिकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करती तथा हमेशा पतिके भोजन कर लेनेपर ही भोजन करती है, उस स्त्रीको पतिव्रता समझना चाहिये। जिस-जिस शय्यापर पति शयन करते हैं वहाँ-वहाँ जो प्रतिदिन यत्नपूर्वक उनकी पूजा करती है, पतिके प्रति कभी जिसके मनमें डाह नहीं पैदा होती, कृपणता नहीं आती और जो मान भी नहीं करती, पतिकी ओरसे आदर मिले या अनादर-दोनोंमें जिसकी समान बुद्धि रहती है, ऐसी स्त्रीको पतिव्रता कहते हैं। जो साध्वी स्त्री सुन्दर वेषधारी परपुरुषको देखकर उसे भ्राता, पिता अथवा पुत्र मानती है, वह भी पतिव्रता है।
पुत्राच्छतगुणं नेहाद्राजानं च भयादथ।
आराधयेत् पतिं शौरि या पश्येत् सा पतिव्रता।।
कार्ये दासी रतौ वेश्या भोजने जननीसमा।
विपत्सु मन्त्रिणी भर्तुः सा च भार्या पतिव्रता।।
भर्तुराज्ञां न लङ्घद्या मनोवाक्कायकर्मभिः।
भुक्ते पतौ सदाचात्ति सा च भार्या पतिव्रता।।
यस्यां यस्यांतु शय्यायां पतिस्स्वपिति यत्नतः।
तत्र तत्र च सा भर्तुरच करोति नित्यशः।।
नैव मत्सरतां याति न कार्पण्यं न मानिनी।
मानेऽमाने समानत्वं या पश्येत् सा पतिव्रता।।
सुवेषं या नरं दृष्ट्वा भ्रातरं पितरं सुतम्।
मन्यते च परं साध्वी सा च भार्या पतिव्रता।।
(पद्मपु०, सृष्टिख० ४७।५५-६०)
द्विजश्रेष्ठ! तुम उस पतिव्रताके पास जाओ और उसे अपना मनोरथ कह सुनाओ। उसका नाम शुभा है। वह रूपवती युवती है, उसके हृदयमें दया भरी है। वह बड़ी यशस्विनी है। उसके पास जाकर तुम अपने हितकी बात पूछो।
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