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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान

भगवान के रहने के पाँच स्थान

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :43
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1083
आईएसबीएन :81-293-0426-0

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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....

व्यासजी कहते हैं—यों कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। उन्हें अदृश्य होते देख ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पतिव्रताके घर जाकर उसके विषयमें पूछा। अतिथिकी बोली सुनकर पतिव्रता स्त्री वेगपूर्वक घरसे निकली और ब्राह्मणको आया देखकर दरवाजेपर खड़ी हो गयी। ब्राह्मणने उसे देखकर प्रसन्नतापूर्वक उससे कहा‘देवि! तुमने जैसा देखा और समझा है उसके अनुसार स्वयं ही सोचकर मेरे लिये प्रिय और हितकी बात बताओ।'

पतिव्रता बोली–ब्रह्मन्! इस समय मुझे पतिदेवकी पूजा करनी है, अतः अवकाश नहीं है; इसलिये आपका कार्य पीछे करूंगी। इस समय मेरा आतिथ्य ग्रहण कीजिये।

ब्राह्मण बोला-कल्याणी! मेरे शरीरमें इस समय भूख-प्यास और थकावट नहीं है। मुझे अभीष्ट बात बताओ, नहीं तो तुम्हें शाप दे दूंगा।

तब उस पतिव्रताने भी कहा-‘द्विजश्रेष्ठ! मैं बगुला नहीं हूँ, आप धर्म तुलाधारके पास जाइये और उन्हींसे अपने हितकी बात पूछिये।' यों कहकर वह महाभागा पतिव्रता घरके भीतर चली गयी। तब ब्राह्मणने चाण्डालके घरकी भाँति वहाँ भी विप्ररूपधारी भगवान्को देखा। उन्हें देखकर वह बड़ा विस्मयमें पड़ा और कुछ सोच-विचार कर उनके समीप गया। घरमें जानेपर उसे हर्षमें भरे हुए ब्राह्मण और उस पतिव्रताके भी दर्शन हुए। उन्हें देखकर नरोत्तम ब्राह्मणने कहा‘तात! देशान्तरमें जो घटना घटी थी, उसे इस पतिव्रता देवीने भी बता दिया और चाण्डालने तो बताया ही था। ये लोग उस घटनाको कैसे जानते हैं? इस बातको लेकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। इससे बढ़कर महान् आश्चर्य और क्या हो सकता है।'

श्रीभगवान् बोले–तात! महात्मा पुरुष अत्यन्त पुण्य और सदाचारके बलपर सबका कारण जान लेते हैं, जिससे तुम्हें विस्मय हुआ है। मुने! बताओ, इस समय उस पतिव्रताने तुमसे क्या कहा है?

ब्राह्मणने कहा-वह तो मुझे धर्म तुलाधारसे प्रश्न करनेके लिये उपदेश देती है।

श्रीभगवान् बोले-‘मुनिश्रेष्ठ! आओ, मैं उसके पास चलता हूँ।' यों कहकर भगवान् जब चलने लगे, तब ब्राह्मणने पूछा-‘तुलाधार कहाँ रहता है?'

श्रीभगवान् ने कहा-जहाँ मनुष्योंकी भीड़ एकत्रित है और नाना प्रकारके द्रव्योंकी बिक्री हो रही है, उस बाजारमें तुलाधार वैश्य इधरउधर क्रय-विक्रय करता है। उसने कभी मन, वाणी या क्रिया द्वारा किसीका कुछ बिगाड़ नहीं किया, असत्य नहीं बोला और दुष्टता नहीं की। वह सब लोगोंके हितमें तत्पर रहता है। सब प्राणियों में समान भाव रखता है तथा ढेले-पत्थर और सुवर्णको समान समझता है। लोग जौ, नमक, तेल, घी, अनाजकी ढेरियाँ तथा अन्यान्य संगृहीत वस्तुएँ उसकी जबानपर ही लेते-देते हैं। वह प्राणान्त उपस्थित होनेपर भी सत्य छोड़कर कभी झूठ नहीं बोलता। इसीसे वह धर्म-तुलाधार कहलाता है।

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    अनुक्रम

  1. अमूल्य वचन
  2. भगवानके रहनेके पाँच स्थान : पाँच महायज्ञ
  3. पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान
  4. तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा
  5. गीता माहात्म्य

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