गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान भगवान के रहने के पाँच स्थानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....
श्रीभगवान् के यों कहनेपर ब्राह्मणने नाना प्रकारके रसोंको बेचते हुए तुलाधारको देखा। वह बिक्रीकी वस्तुओंके सम्बन्धमें बातें कर रहा था। बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ उसे चारों ओरसे घेरकर खड़ी थीं। ब्राह्मणको उपस्थित देखकर तुलाधारने मधुर वाणीमें पूछा-‘ब्रह्मन्! यहाँ कैसे पधारना हुआ?'
ब्राह्मणने कहा-मुझे धर्मका उपदेश करो, मैं इसीलिये तुम्हारे पास आया हूँ।
तुलाधार बोला–विप्रवर! जबतक लोग मेरे पास रहेंगे, तबतक मैं निश्चिन्त नहीं हो सकूँगा। पहरभर राततक यही हालत रहेगी। अतः आप मेरा उपदेश मानकर धर्माकरके पास जाइये। बगुलेकी मृत्युसे होनेवाला दोष और आकाशमें धोती सुखानेका रहस्य–ये सभी बातें आगे आपको मालूम हो जायँगी। धर्माकरका नाम अद्रोहक है। वे बड़े सज्जन हैं। उनके पास जाइये। वहाँ उनके उपदेशसे आपकी कामना सफल होगी।
यों कहकर तुलाधार खरीद-बिक्रीमें लग गया। नरोत्तमने विप्ररूपधारी भगवान् से पूछा-‘तात! अब मैं तुलाधारके कथनानुसार सज्जन अद्रोहकके पास जाऊँगा। परंतु मैं उनका घर नहीं जानता।'
श्रीभगवान् बोले-चलो, मैं तुम्हारे साथ उनके घर चलूंगा।
तदनन्तर मार्गमें जाते हुए भगवान् से ब्राह्मणने पूछा-‘तात! तुलाधार न तो देवताओंका एवं ऋषियोंका और न पितरोंका ही तर्पण करता है। फिर देशान्तरमें संघटित हुए मेरे वृत्तान्तको यह कैसे जानता है? इससे मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। आप इसका सब कारण बताइये।
श्रीभगवान् बोले-ब्रह्मन्! उसने सत्य और समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है; इसीसे उसके ऊपर पितर, देवता तथा मुनि भी सन्तुष्ट रहते हैं, धर्मात्मा तुलाधार उपर्युक्त गुणोंके कारण ही भूत और भविष्यकी सब बातें जानता है। सत्यसे बढ़कर कोई धर्म और झूठसे बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है।
सत्येन समभावेन जितं तेन जगत्त्रयम्।
तेनातृप्यन्त पितरो देवा मुनिगणैः सह।।
भूतभव्यप्रवृत्तं च तेन जानाति धार्मिकः।
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्॥
(पद्मपु°, सृष्टिख० ४७।९२-९३)
जो पुरुष पापसे रहित और समभावमें स्थित है, जिसका चित्त शत्रु, मित्र, उदासीनके प्रति समान है, उसके सब पापोंका नाश हो जाता है और वह भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। समता धर्म और समता ही उत्कृष्ट तपस्या है। जिसके हृदयमें सदा समता विराजती है, वही पुरुष सम्पूर्ण लोकोंमें श्रेष्ठ, योगियों में गणना करनेके योग्य और निर्लाभ होता है, जो सदा इसी प्रकार समतापूर्ण बर्ताव करता है, वह अपनी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। उस पुरुषमें सत्य, इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निर्लोभता और आलस्यहीनता—ये सभी गुण प्रतिष्ठित होते हैं। समताके प्रभावसे धर्मज्ञ पुरुष देवलोक और मनुष्यलोकके सम्पूर्ण वृत्तान्तोंको जान लेता है। उसकी देहके भीतर भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। सत्य और सरलता आदि गुणों में उसकी समानता करनेवाला इस संसार में दूसरा कोई नहीं होता। वह साक्षात् धर्मका स्वरूप होता है और वही इस जगत् को धारण करता है।
ब्राह्मणने कहा–विप्रवर! आपकी कृपासे मुझे तुलाधारके सर्वज्ञ होनेका कारण ज्ञात हो गया है, अब अद्रोहकका जो वृत्तान्त हो, वह मुझे बताइये।
श्रीभगवान् ने कहा–विप्रवर! पूर्वकालकी बात है, एक राजपुत्रकी कुलवती स्त्री बड़ी सुन्दरी और नयी अवस्थाकी थी। वह कामदेवकी पत्नी रति और इन्द्रकी पत्नी शचीके समान मनको हरनेवाली थी। राजकुमार उसे अपने प्राणोंके समान प्यार करते थे। उस सुन्दरी तरुणीका नाम भी सुन्दरी ही था। एक दिन राजकुमारको राजकार्यके लिये अकस्मात् बाहर जानेके लिये उद्यत होना पड़ा। उन्होंने मन-ही-मन सोचा-“मैं प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी अपनी इस भार्याको किस स्थानपर रखें, जिससे इसके सतीत्वकी रक्षा निश्चितरूपसे हो सके।' इस बातपर खूब विचार करके राजकुमार सहसा अद्रोहकके घरपर आये और उनसे अपनी पत्नीकी रक्षाका प्रस्ताव करने लगे। उनकी बात सुनकर अद्रोहकको बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले-‘तात! न तो मैं आपका पिता हूँ न भाई हूँ, न बान्धव हूँ, न आपकी पत्नीके पिता-माताके कुलका ही; तथा सुहदोंमेंसे कोई भी नहीं हूँ, फिर मेरे घरमें इसको रखनेसे आप किस प्रकार निश्चिन्त हो सकेंगे?'
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