भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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वैखानस : राजन्! यह सामने मालिनी नदी पर हमारे कुलपति महर्षि कण्व का
आश्रम है। हम उस आश्रम के अन्त:वासी हैं और इस समय वन से समिधा लाने के
लिए निकले हैं। यदि आपके किसी अन्य कार्य में किसी प्रकार की अड़चन न आती
हो तो कृपया आश्रम में चलकर अतिथि-सत्कार स्वीकार कीजिए।
और फिर-
वहां जाकर जब आप देखेंगे कि ऋषि लोग निर्विघ्न होकर सब क्रियायें कर रहे
हैं तब आप जान भी जायेंगे कि धनुष की डोरी की टंकार से सुपुष्ट बनी आपकी
भुजा कहां-कहां तक पहुंचकर प्राणियों की रक्षा कर रही है।
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