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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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राजा : क्या आप यह सब देख नहीं रहे हैं? यहां-
कहीं तो वृक्षों के तले सुग्गों के घोंसलों से गिरे हुए तिन्नी के दाने बिखरे पड़े हैं। कहीं इधर-उधर पड़े हुए चिकने पत्थर बता रहे हैं कि इन पर हिंगोट के फल कूटे गये हैं। कहीं निडर खड़े हुए मृग निश्चिंत होकर बिना किसी भय के हमारे जाते हुए रथ का शब्द सानन्द सुन रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि आश्रम में उनको कोई बाहरी व्यक्ति भी किसी प्रकार से डरायेगा नहीं। और उधर देखो, नदी, तालाबों पर आने-जाने वाले मार्गों में मुनियों के वल्कलों से टपके हुए जल की रेखायें बनी हुई हैं।
और भी देखो-
वायु के कारण लहरें लेने वाली पानी की गूलों से यहां के वृक्षों की जड़ें धुल गई हैं। यज्ञ में प्रयुक्त घी के धुएं से नई चमकीली कोपलों का रंग धूमिल-सा हो गया है। और जहां-जहां  उपवन से कुश को उखाड़ लिया गया है वहां मृगछौने निडर होकर मंद-मंद घास चर रहे हैं।

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