भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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सारथी : जी हां, आप ठीक कहते हैं। यहां यह सब तो दिखाई दे रहा है। राजमहल
की रानियों का शरीर इतना सुन्दर नहीं होता, उनमें यह सुन्दरता बहुत ही
कठिनाई से कहीं-कहीं देखने को मिलती है। वह सुन्दरता यदि इन आश्रमवासिनी
कन्याओं को मिली है तो इसका अभिप्राय यही है कि यहां की वन लताओं ने अपने
गुणों से उद्यान की लताओं को भी जगा दिया है।
[इतना विवार कर राजा कहने लगा, इनके आने तक मैं यहीं ओट में खड़ा रहता हूं।
उनको देखता हुआ ओट में खड़ा हो जाता
है। अपनी सखियों के साथ पौधों को सींचता हुआ शकुन्तला का प्रवेश।]
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