भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
शकुन्तला : सखियो! इधर आओ, इधर आओ।
अनसूया : अरी शकुन्तला! मैं समझती हूं कि पिता कण्व इन आश्रम के पादपों को
तुमसे भी अधिक प्यार करते हैं। नहीं तो भला चमेली की कली जैसे कोमल
अंग वाली तुमको वे ये आल-वाल भरने का काम क्यों सौंपकर जाते?
शकुन्तला : पिताजी ने मुझे इस काम पर नियुक्त किया है, केवल इसलिए ही मैं
इन पादपों को नहीं सींचती।
अनसूया : तो फिर?
शकुन्तला : मेरा स्वयं का भी इनके प्रति अपने सगे जैसा प्यार है इसलिए मैं
यह सब करती हूं।
[पौधे सींचने लगती है।]
|