भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्तला : सखि अनसूया! इस प्रियंवदा ने मेरा यह वल्कल इतना कसकर बांध
दिया है कि इससे मुझे काम करने में कठिनाई हो रही है। तुम आकर जरा इसको
ढीला तो कर दो।
अनसूया : अच्छा।
[वल्कल ढीला करती है।]
प्रियंवदा : (हंसते हुए) मुझे क्यों उलाहना देती हो, अपने उस यौवन को
उलाहना क्यों नहीं देतीं जो तुम्हारे स्तनों को इस प्रकार बढ़ाता चला जा
रहा है।
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